लोकसभा चुनावों (Lok Sabha Elections 2024) की तारीखों का एलान किसी भी वक्त हो सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) की अगुवाई में बीजेपी जोर शोर से मतदाताओं को ये समझाने में जुटी है कि देश में पीएम मोदी (PM Modi) और भाजपा का कोई विकल्प है ही नहीं. उधर विपक्ष ने INDI ब्लॉक बनाकर संयुक्त रूप से NDA का मुकाबला करने की बात कही जरूर, मगर सीटों के बंटवारे पर बात फंस गई. ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने खेला करते हुए बंगाल में एकला चलो से का मार्ग अपना लिया तो अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की आम आदमी पार्टी भी दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने के मूड में दिख नहीं रही. इंडिया गठबंधन (India Alliance) का कॉन्सेप्ट देने वाले बिहार के सीएम नीतीश कुमार (Nitish Kumar) खुद एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं. और इन सबके बीच यूपी में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभाने वाली समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के मुखिया अखिलेश यादव खुद कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं. एक तरफ उनके सामने गठबंधन की लाज बचाए रखने की चुनौती है तो दूसरी तरफ सपा के पार्टी कॉडर को संतुष्ट रखने का चैलेंज भी...
नरेंद्र मोदी से लेकर अति पिछड़ा वोटर और जयंत चौधरी तक, इन 5 चुनौतियों से कैसे निपटेंगे अखिलेश यादव?
Akhilesh Yadav की समाजवादी पार्टी को UP Politics में प्रधानमंत्री Narendra Modi और भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जाता है. मगर Lok Sabha Election 2024 से पहले खुद सपा प्रमुख को 5 बड़ी चुनौतियों से निपटना है. इनमें बिखरता OBC वोट बैंक, राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के बाद के पैदा हुए हालात और Rahul Gandhi की कांग्रेस के साथ सीटों के तालमेल जैसे मुद्दे तो हैं ही. RLD मुखिया जयंत चौधरी के एनडीए जाने के बाद जाट मतदाताओं को साधने जैसी समस्याएं भी शामिल हैं.
इसके अलावा भी ऐसी बहुत सी चुनौतियां हैं जिनसे पार पाना अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) और उनकी पार्टी के लिए आसान नहीं होगा. राजनीतिक पंडित मानते हैं कि किंग या किंग मेकर बनने के लिए सपा प्रमुख को आगे बढ़कर ऐसी 5 बड़ी चुनौतियों से निपटना होगा, जो लोकसभा चुनाव में उनके सामने मुंह फैलाए खड़ी हैं. लल्लनखास की इस कड़ी में आज बात अखिलेश के सामने मौजूद उन्हीं 5 चुनौतियों की...
पहली चुनौती: बीजेपी का नैरेटिव तोड़ना
लोकसभा चुनाव हों या विधानसभा या फिर स्थानीय निकाय के इलेक्शन, पिछले दस सालों में BJP हर चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही अपना चेहरा बनाती आ रही है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भाजपा का तीर ज्यादातर निशाने पर ही लग रहा है. आसान शब्दों में कहें तो बीजेपी ये नैरेटिव सेट करने में काफी हदतक कामयाब रही है कि राष्ट्रीय स्तर पर मोदी और भाजपा का कोई विकल्प नहीं है. लोकसभा चुनाव 2024 से पहले अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती भारतीय जनता पार्टी के इसी नैरेटिव को तोड़ना होगा. वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार इसके लिए रास्ता भी सुझाते हैं. उनका कहना है कि-
"अखिलेश यादव को यूपी के मतदाताओं के बीच जाकर ये समझाना होगा कि क्षेत्रीय दल भी एक विकल्प हो सकते हैं. उन्हें लोगों को इस बात पर राजी करना होगा कि प्रधानमंत्री पद के लिए कोई नाम या चेहरे के बिना भी वोट दिया जा सकता है. भारत का संविधान कहता है कि जनता अपना सांसद चुनती है, फिर वो सांसद अपना नेता. पिछले दस सालों से बीजेपी जो उल्टी गंगा बहा रही है, उसे रोकना ही होगा."
दूसरी चुनौती: मंदिर मुद्दे की काट
राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह को एक बहुत बड़े इवेंट में बदलने के बाद बीजेपी काशी, मथुरा और यहां तक की कल्कि मंदिर के बहाने अपना हिंदू वोट बैंक बढ़ा रही है. यूपी की सियासत को अच्छी तरह समझने वाले जानते हैं कि हिंदू वोट बैंक का सीधा नुकसान जाति की राजनीति करने वाली सपा और बसपा जैसी पार्टियों को होगा. लिहाजा, टीपू को अगर सुल्तान बनना है तो लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें इस चुनौती से पार पाना ही पड़ेगा. राजनीतिक विश्लेषक संजीव कौशिक कि मानें तो इस चुनौती से निपटने के लिए सपा को ज्यादा कुछ नहीं करना है. उनका कहना है कि-
“चार हफ्तों के अंदर अयोध्या का राम मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर-व्यास तहखाना मुद्दा, कृष्ण जन्मभूमि मथुरा और फिर संभल में कल्कि धाम का शिलान्यास कर बीजेपी ने हिंदू वोट बैंक को पुख्ता करने के लिए एक तरह की सियासी कारपेट बॉम्बिंग की है. मगर यूपी के वोटर पर इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि लोग अलगाव की इस राजनीति से तंग आ चुके हैं.लिहाजा अखिलेश को इससे परेशान होने की जरूरत नहीं है.”
मगर वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते.उनका कहना है कि-
“धर्म की सियासत करके बीजेपी काफी समय से अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने में कामयाब होती आ रही है. लिहाजा इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता. मगर समाज के शोषितों और वंचितों की आवाज उठाकर अखिलेश यादव इस चुनौती से पार पा सकते हैं. विभिन्न सामाजिक समीकरणों को साधना ही सपा के सामने मौजूद इस चुनौती की सबसे बड़ी काट है.”
तीसरी चुनौती: असली मुद्दों पर चुनाव लड़ना
आपने महंगाई के मुद्दे पर विपक्षी नेताओं को अक्सर उन दिनों की बात करते देखा-सुना होगा, जब बीजेपी विपक्ष में हुआ करती थी और नरेंद्र मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक महंगाई पर तत्कालिन कांग्रेस सरकार को घेरा करते थे. मगर इस बात का दूसरा पहलू ये है कि आज का विपक्ष इस मुद्दे को उस जोरदार तरीके से नहीं उठा पाया है, जितनी मजबूती से विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ने उठाया था. ऐसा ही एक मुद्दा बेरोजगारी का भी है. सोशल मीडिया पर ट्विट करके या ईडी की नोटिस मिलने पर कभी कभार सड़क पर उतर कर महंगाई-बेरोजगारी की बात कह तो दी जाती है, मगर इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने की उस तरह से कोशिश नहीं होती, जैसा भाजपा करती थी. अखिलेश को अगर यूपी की 80 सीटों पर बीजेपी का मिशन 2024 फेल करना है तो उन्हें इसी चुनौती को हल करना पड़ेगा. राजनीतिक विश्लेषक संजीव कौशिक मानते हैं कि-
"आम जरूरतों की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं. बेरोजगारी बढ़ती जा रही है. सरकारी वैकेंसी या तो निकलती नहीं और अगर निकलती भी है तो पर्चा लीक हो जाने से भर्ती का मामला लटक जाता है. "
वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार कहते हैं कि अखिलेश को बस भाजपा के किसी भी जाल में फंसे बिना महंगाई और बेरोजगारी को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाना है. वो कहते हैं-
"अखिलेश आम लोगों के बीच जाते हैं तो उन्हें समझाएं कि कैसे बेरोजगारी और महंगाई के असल मुद्दों से भाजपा उनका ध्यान भटका रही है. कैसे ये दो मुद्दे मंदिर-मस्जिद या समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों से ज्यादा जरूरी है. अगर वो ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं तो भाजपा को चुनावों में तगड़ी चोट पहुंच सकती है."
चौथी चुनौती: किसानों और जाटों की नाराजगी
चुनावों से ठीक पहले रालोद मुखिया जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) का एनडीए में शामिल होना, ना सिर्फ समाजवादी पार्टी बल्कि इसके अध्यक्ष अखिलेश यादव के लिए भी व्यक्तिगत झटका माना जा रहा है. राजनीतिक पंडित मानते हैं कि वेस्ट यूपी की जाट बहुल सीटों पर इसका निगेटिव प्रभाव पड़ सकता है. अगर समय रहते क्राइसिस मैनेजमेंट नहीं किया गया तो लोकसभा चुनावों में इसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है. उधर एक बार फिर से किसान आंदोलन (Farmers Protest) का जिन्न भी बोतल से बाहर निकल आया है. ऐसे में सपा प्रमुख को हर हाल में किसानों को साधना ही होगा. राजनीतिक विश्लेषक संजीव कौशिक कहते हैं कि अखिलेश के सामने चुनौती सिर्फ किसानों की है, ना कि जयंत चौधरी की...संजीव कहते हैं-
"छोटे चौधरी के पाला बदलने से जाट समुदाय खुद ही नाराज है. खास तौरपर किसान समुदाय जो कि पीएम मोदी की सरकार से कुछ खास खुश नहीं है. ऐसे में अखिलेश को RLD की चिंता किये बगैर अपना सारा ध्यान किसानों को साधने पर लगाना चाहिए."
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प्रेम कुमार इसके लिए अखिलेश को एक रोड मैप भी सुझाते हैं. उनका कहना है कि-
"किसानों को 23 फसलों पर MSP चाहिए और मोदी सरकार कहती है कि ऐसा करना मुमकिन नहीं है. ऐसे में यूपी के सीएम रह चुके अखिलेश यादव को किसानों के बीच जाना होगा और बताना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कैसे मुमकिन है. जरूरत इस बात की है कि टीपू अपना होम वर्क पूरा करके जाएं. उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक प्लान और रोड मैप देकर बताना होगा कि किसानों को एमएसपी कैसे और कब तक मिल सकती है. अगर ऐसा करने में वो कामयाब रहे तो सिर्फ यूपी ही नहीं देशभर में उन्हें मोदी के विकल्प के तौर पर देखा जा सकता है."
पांचवीं चुनौती: पिछड़ा वोट बैंक का विभाजन रोकना
2014 के बाद से बीजेपी ने अपनी 'सामाजिक समरसता' की नीति के तहत पिछड़ा वर्ग से अति पिछड़ा और गैर यादव ओबीसी वोटर का अलग करने में कामायबी हासिल की. इसी तरह दलित वोटर में से जाटव और अति दलित का बंटवारा करने का काम भी किया गया. कहने की जरूरत नहीं है कि इसका नुकसान सपा और बसपा जैसी पार्टियों को हुआ. अति पिछड़ा और अति दलित वोटर ने काफी हदतक या तो भाजपा का साथ दिया या फिर सुभासपा और अपना दल जैसी छोटी पार्टियों का. इन्हीं छोटे दलों को साधकर बीजेपी ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ 2017 और 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों के बाद सत्ता तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की. 2024 में फिर से ऐसा ही करने की कोशिश है. वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार भी इसे अखिलेश यादव के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर देखते हैं.वो कहते हैं-
"इन छोटी जातियों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए सपा को कांग्रेस की जरूरत है. पल्लवी पटेल (Pallavi Patel), चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) और ओपी राजभर (OP Rajbhar) जैसे कई नेता हैं जो सपा से नाराज होकर कांग्रेस की तरफ देखते हैं, मगर यूपी में कांग्रेस का मजबूत आधार ना होने की वजह से मजबूरी में भाजपा की ओर चले जाते हैं. ऐसे में भाजपाई किला और मजबूत ना हो, इसके लिए जरूरी है कि अखिलेश, कांग्रेस के जरिए इन छोटे दलों को साधने का काम करें."
प्रेम कुमार का ये भी मानना है कि अखिलेश यादव के सामने एक और बड़ी चुनौती अपने नेताओं की जुबान पर लगाम लगाना भी है. पिछले कुछ दिनों में पार्टी के कई नेताओं ने कई ऐसे गैरजरूरी बयान दिए हैं,जिसकी वजह से सपा को बेमतलब का नुकसान और बीजेपी को फोकट का फायदा मिला है.
वीडियो: अखिलेश यादव इंटरव्यू में नीतीश के एनडीए में जाने पर गंभीर बातें बोल गए