भारत की वायुसेना तेजस मार्क वन ए (Tejas Mk1A) विमानों की डिलीवरी में लगातार हो रही देरी से चिंतित है. बेंगलुरु में चल रहे एयर शो एयरो इंडिया (Aero India) में एयर चीफ मार्शल के साथ आर्मी चीफ ने इसमें उड़ान भी भरी. वहीं दूसरी तरफ एयरफोर्स अपने स्क्वाड्रंस की घटती संख्या को पूरा करने के लिए 83 Tejas Mk1A जेट्स की डिलीवरी का इंतजार कर रही है. अब खुद एयरफोर्स चीफ, एयर मार्शल अमर प्रीत सिंह ने एयरो इंडिया शो के दौरान तेजस बनाने वाली कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) से नाराजगी जताई. गौरतलब है कि HAL सरकारी नियंत्रण वाली कंपनी है.
HAL, ऑर्डिनेंस फैक्ट्री और कोच्चि शिपयार्ड, इन तीन कंपनियों से परेशान हैं भारत की तीनों सेनाएं!
ऐसा पहली बार नहीं है जब सरकार के अधीन आने वाली कंपनियों ने फौजों को उनके हथियार, विमान या साजो-सामान सौंपने में देरी की हो. Tejas Fighter Jet के अलावा भी Ordnance Factory Board और Kochi Shipyard Limited ने हथियार और एयरक्राफ्ट कैरियर विक्रांत को सौंपने में देरी की.
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ऐसा पहली बार नहीं है जब सरकार के अधीन आने वाली कंपनियों ने फौजों को उनके हथियार, विमान या साजो-सामान सौंपने में देरी की हो. तेजस विमान का उदाहरण हमारे सामने है. अगर नेवी के प्रोजेक्ट्स को भी देखें तो कोच्चि शिपयार्ड लिमिटेड (CSL) द्वारा निर्मित एयरक्राफ्ट कैरियर INS विक्रांत में भी 12 साल की देरी हुई. वहीं LoC पर चुनौतियों के बीच आर्मी के लिए गोला-बारूद और साजो-सामान बनाने वाली संस्था ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड ने भी कई बार सेना को सामान की डिलीवरी देने में देरी की है. तो समझते हैं कि इस देरी से हमारी फौजों की क्षमता और ऑपरेशनल रेडिनेस पर क्या असर पड़ा? सबसे पहले बात तेजस फाइटर जेट की.

ये पहली बार नहीं है जब किसी एयर चीफ मार्शल ने तेजस विमानों में हो रही देरी का मुद्दा उठाया हो. पूर्व एयर चीफ मार्शल वी आर चौधरी ने भी तेजस की डिलीवरी में देरी पर चिंता जाहिर की थी. तो पहले समझते हैं कि इस डील की क्या कहानी है? और नजर डालते है भारत के इस लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट प्रोजेक्ट पर. समझते हैं कि कब और कैसे इस प्रोजेक्ट शुरुआत हुई.

साल 1983 ने डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट विंग DRDO ने रक्षा मंत्रालय के सामने एक Light Combat Aircraft बनाने का प्रस्ताव रखा. मकसद था एक ऐसा हल्का लड़ाकू विमान बनाना जो एयरफोर्स की जरूरतों को पूरा कर सके. इसे मिग और मिराज विमानों के विकल्प के रूप में पेश किया गया.
- 1984 में इस प्रोजेक्ट को मिनिस्ट्री ने हरी झंडी दिखा दी.
- बिजनेस स्टैण्डर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक 1993 तक इसे सर्विस में शामिल करने का प्लान था. पर इसे शुरूआती ऑपरेशनल क्लीयरेंस ही 2013 में जाकर मिला.
- 1990 में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड ने इस विमान का डिजाइन तैयार कर लिया.
- 1995 में जहाज के दो वेरिएन्ट सामने आए. इनके नाम टेक्नोलॉजी डिमॉन्सट्रेटर 1 (TD-1) और टेक्नोलॉजी डिमॉन्सट्रेटर 2 (TD-2) रखे गए. यानी मंजूरी मिलने के 11 साल बाद विमान का प्रोटोटाइप बन कर तैयार हो पाया.
- प्रोटोटाइप बनने के बाद 6 साल तक इस प्रोजेक्ट में कोई प्रगति नहीं हुई. रक्षा मामलों के जानकार इसका एक कारण कारगिल की लड़ाई और पोखरण न्यूक्लियर टेस्ट को भी बताते हैं. कारगिल के बाद इस प्रोजेक्ट ने फिर से रफ्तार पकड़ी और साल 2001 और 2002 में क्रमशः TD-1 और TD-2 पहली बार एयरबॉर्न (हवा में उड़ान) हुए. ये दोनों प्रोटोटाइप उड़ानें सफल रहीं.
- प्रोटोटाइप के सफल होने के बाद 2003 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने Light Combat Aircraft को तेजस नाम दिया. आज Light Combat Aircraft को इसी नाम से जाना जाता है.
- अगले 3 सालों तक HAL ने एयरफोर्स के लिए इसके कई टेस्ट्स किए और 1983 में प्रोजेक्ट की शुरुआत के 23 साल बाद एयरफोर्स ने 2006 में 40 विमानों का पहला ऑर्डर दिया.
- 2010 में ये विमान फुली ऑपरेशनल हो जाने थे. पर HAL अब तक इन 40 जेट्स की डिलीवरी नहीं कर पाई है.
- ऑर्डर प्लेस होने के बाद एक दिक्कत सामने आई. प्रोटोटाइप तो सक्सेस हो गए पर इसमें लगा स्वदेशी कावेरी इंजन इसे आवश्यक थ्रस्ट यानी पावर देने में कारगर साबित नहीं हो सका.
- इसके बाद अमेरिकन कंपनी GE Aerospace से उसके बनाए FN-404-IN20 इंजन के लिए संपर्क किया गया. इंजन भारत आए और साल 2016 में पहली बार एयरफोर्स में तेजस को शामिल किया जा सका. पर जो ऑर्डर 40 विमानों का था, उसमें से महज 2 विमान ही शामिल किए जा सके.
- देरी की वजह से जेट के डेवलपमेंट की कीमत 13 हजार 390 करोड़ तक पहुंच गई.
- CAG 2015 की एक रिपोर्ट से पता चला कि समय के अलावा इस देरी के कारण भारतीय वायुसेना को 20,000 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ, क्योंकि उसे अपने मौजूदा युद्धक विमानों को उन्नत करने जैसी चीजों पर खर्च करना पड़ा.
- 2006 में 20 जेट्स की कीमत 2812.91 करोड़ आंकी गई थी. पर देरी की वजह से इनकी कीमत लगातार बढ़ती गई.

2017 आते-आते वो समय आ चुका था जब एयरफोर्स में सेवा दे रहे मिग-22 और जगुआर विमान काफ़ी पुराने हो चुके थे. लिहाजा 2017 में ही एयरफोर्स ने 83 और तेजस विमानों का ऑर्डर HAL को दिया. पर अबतक 40 विमानों का पहला ऑर्डर भी पूरा नहीं हो सका था. एयरफोर्स को उम्मीद थी कि HAL हर साल करीब 16 विमान बना कर एयरफोर्स को सौंप देगी. पर HAL का धीमा इंफ्रास्ट्रक्चर इस उम्मीद पर खरा नहीं उतर सका. साल 2020 में जाकर तेजस विमान का पहला स्क्वाड्रन, स्क्वाड्रन नंबर 45 जिसे Flying Daggers कहा जाता है, वो एयरफोर्स में 16 जहाजों के साथ शामिल हो पाया. वहीं स्क्वाड्रन नंबर 18-Flying Bullets को तेजस से लैस करने पर अभी भी काम चल रहा है.

डिलीवरी की ये रफ्तार एयरफोर्स की क्षमता को प्रभावित कर रही थी. इसके पीछे अलग-अलग कारण बताए गए. जैसे 4 नवंबर 2024 को फाइनेंशियल टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी. इस रिपोर्ट में बताया गया कि भारत ने अमेरिकी कंपनी GE Aerospace पर तेजस के इंजन की डिलीवरी में हो रही देरी के लिए जुर्माना लगाया है. GE Aerospace को ये FN404-IN20 इंजन 2 साल पहले ही भारत की Hindustan Aeronautics Limited को भेजने थे. इस मामले पर GE Aerospace ने भी अपना पक्ष रखा. GE Aerospace ने इंजन डिलीवरी में हुई देरी का कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया पर विशेषज्ञ कहते हैं कि कोविड महामारी के बाद से सप्लाई चेन में जो दिक्कत आई, ये उसी का नतीजा है. अब GE Aerospace ने एक नई डेट दी है. कंपनी का कहना है कि अब अप्रैल 2025 तक ये इंजन भारत के HAL को डिलीवर कर दिए जाएंगे.
तेजस अकेला ऐसा प्रोजेक्ट नहीं है जिसे बनाने या डिलीवर करने में HAL ने इतना समय लगाया हो. HAL का प्रोजेक्ट एडवांस्ड लाइट हेलीकॉप्टर (ALH) भी एक ऐसा प्रोजेक्ट है जिसमें कई दशकों का समय लग चुका है. 1984 में HAL द्वारा इस प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई. उसी साल HAL ने ALH को ध्रुव का नाम दिया. इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य था सेनाओं को एक ऐसा चॉपर देना जो ट्रांसपोर्ट, यात्री और VIP ट्रेवल के अलावा फोर्सेज की रैपिड तैनाती और सर्च एंड रेस्क्यू मिशन में इस्तेमाल किया जा सके.
इस चॉपर के पहले प्रोटोटाइप ने 1992 में उड़ान भरी. पर इसके बाद 2002 तक ये प्लान अटक गया. इसके पीछे पहली वजह बताई गई 1992 में देश में आई इकोनॉमिक क्राइसिस. और दूसरी वजह बताया गया अमेरिका को. दरअसल 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर कई सारे प्रतिबंध लगा दिए. लिहाजा अमेरिका से आने वाले LHTEC 800 इंजन की सप्लाई पर गरारी अटक गई.

इसके बाद फ्रेंच कंपनी Safran की Turbomeca ने भारत को TM 333 2B2 इंजन टर्बोशाफ़्ट इंजन सप्लाई किए जिन्हें ध्रुव में लगाया गया. हालांकि ये इंजन भी चॉपर को जरूरी पावर नहीं दे पा रहे थे. तो फ्रेंच कंपनी ने HAL के साथ मिलकर एक नए इंजन Ardiden को डेवलप किया जिसे ‘शक्ति’ नाम दिया गया. साल 2002 में जाकर ध्रुव को पहले कोस्ट गार्ड, फिर आर्मी, नेवी और एयरफोर्स में शामिल किया जा सका. यानी अगर सब ठीक और समय पर चलता तो भारत को लगभग 10 साल पहले ये चॉपर मिल जाते.
हालांकि अब भी इनमें खामियां सामने आ रही हैं. 5 जनवरी को गुजरात के पोरबंदर में एक ध्रुव हेलीकॉप्टर क्रैश कर गया जिसमें कोस्ट गार्ड के दो पायलट समेत एक क्रू मेंबर की मौत हो गई. उसके बाद से ही इन हेलीकॉप्टर्स के पूरे बेड़े को ग्राउंडेड (उड़ने की मनाही) कर दिया गया. तब से इनकी पूरी फ्लीट ज़मीन पर ही है. HAL के चेयरमैन डीके सुनील ने कहा है की पूरी जांच के बाद ही ये हेलीकॉप्टर्स वापस से उड़ सकेंगे.
ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्डOrdnance Factory Board एक डिफेंस पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग (DPSU) है. माने आसान भाषा में कहें तो ये सरकार के स्वामित्व वाली 7 कंपनियों का समूह है. सेना को सप्लाई किए जाने वाले एम्युनिशन, गोला-बारूद, कपड़े, पैराशूट, तोप के गोले, कारतूस जैसे जरूरी उपकरणों का निर्माण इन्हीं कंपनियों के जिम्मे है. ये संस्था भी देरी की वजह से सवालों के घेरे में रही. डिफेंस सर्विसेज, ऑर्डिनेंस फैक्ट्री और DPSUs पर 2021 में आई CAG की रिपोर्ट नंबर 25 में कहा गया कि 2014-15 और 2018-19 में ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों में बने सामान में गुणवत्ता की कमी देखने को मिली. 11 ऐसी वस्तुओं की रिपोर्ट सामने आई, जिनकी खराब गुणवत्ता की वजह से 584 दुर्घटनाएं हुईं. यानी देरी के अलावा गुणवत्ता भी एक चिंता का विषय बनी रही.
गुणवत्ता पर CAG रिपोर्ट के एक पैराग्राफ में कहा गया 2014-15 से 2018-19 के दौरान गोला-बारूद से जुड़ी 10 चीज़ों और टैंक में काम आने वाली एक चीज की वजह से 584 बार दुर्घटना हुई. जिस तरह के फॉल्ट इनमें पाए गए, उन्हें देखकर ये प्रतीत होता है कि इनकी जांच में लगने वाले समय ने गुणवत्ता की कमी को दूर करने के लिए किए जाने वाले उपायों में देरी की.

इसके बारे में 19 जुलाई 2022 को इकोनॉमिक टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने सेना की आयुध कोर (Army Ordnance Corps) पर नाराजगी जाहिर की थी. ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के कारखानों में क्वालिटी कंट्रोल (Quality Control- QC) और क्वालिटी पर आश्वासन (Quality Assurance -QA) के लिए यूनिट्स बनी हुई हैं. इनमें भी खामियां पाईं गईं.
क्वालिटी कंट्रोल यानी QC में पास हुए 11 प्रोडक्ट्स को QA के स्तर पर रिजेक्ट कर दिया गया जिनकी कुल कीमत 175 करोड़ थी. इन फैक्ट्रियों की सबसे प्रमुख ग्राहक भारतीय सेना है, ऐसे में अपनी प्लानिंग करते समय उनका ध्यान रखना जरूरी है. मगर इन फैक्ट्रियों की प्लानिंग में कमी देखने को मिली. साथ ही ऑर्डिनेंस फैक्ट्री द्वारा बनाई गए मैटेरियल और कंपोनेंट्स (M&C) और आर्मी की जरूरत के बीच एक बड़ा गैप नजर आता है. कारखानों द्वारा शुरु की गई तीन M&C वस्तुओं और दो फाइनल प्रोडक्ट्स के लिए क्षमता में इजाफा होना था. जो 2021 तक, 5 से 6 साल बीतने के बाद भी पूरा नहीं हो पाया.
ये तो हुई CAG रिपोर्ट की बातें जिसमें ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड की अनियमितताएं और क्वालिटी में कमी की बात कही गई है. अब जानते हैं कुछ ऐसी डिलीवरीज़ के बारे में जिन्हें देने में फैक्ट्री ने तय समय से ज्यादा लगा दिया. और इसका नतीजा ये हुआ की सेनाओं की ऑपरेशनल केपेबिलिटीज़ पर असर पड़ा. साल 2012-13 से 2016-17 के बीच ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड ने 49 में से सिर्फ 5 बार समय पर ऑर्डर पूरे किए.
- 2015 में पता चला की 6 सालों से ITBP का ऑर्डर लटका हुआ है जिससे चीन से लगी सीमा पर किसी खतरे की स्थिति में उसे संभालना और भी मुश्किल हो जाता.
- 2018 में CAG रिपोर्ट ने बताया की बोर्ड ने सेना को दिए जाने वाले पैराशूट डिलीवर करने में देरी की जबकि कर समय सेना में इसकी कमी 33 से 100 प्रतिशत के बीच थी.
- अलग-अलग समय पर इन कारखानों में ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल का एलान किया जिससे काफी बार काम प्रभावित हुआ.
- गोला-बारूद के निर्माण में क्वालिटी की दिक्कत से जवानों की सुरक्षा पर सवाल खड़े हुए.
- 2022 में CAG रिपोर्ट ने फिर से आर्मी ऑर्डिनेंस कॉर्प्स पर सवाल खड़े किए. कुछ मामलों में तो डिलीवरी देने में 301 हफ्ते का समय लगा दिया गया.
CAG ने बताया कि कुछ मामलों में तो आयुध कोर ने ऑर्डर और आपूर्ति को पूरा करने में 301 सप्ताह का समय लगा दिया. CAG का कहना है कि इस तरह की देरी से आर्मी की ऑपरेशनल रेडिनेस पर असर पड़ता है. CAG ने इसपर टिप्पणी करते हुए कहा
डिफेंस प्रोक्योरमेंट मैनुअल के मुताबिक किसी डिलीवरी के लिए 23 हफ्तों का टाइम फ्रेम तय है. पर हमने देखा है कि कुछ जगह तो 13 से 301 हफ्तों का समय लग गया. ये देरी मुख्य रूप से एक्सेप्टेंस ऑफ नेसेसिटी (जरूरत की रिक्वेस्ट) और वैध अवधि के भीतर टेंडर को पूरा करने में हुई है.
इसके अलावा CAG ने टेंडर को स्वीकृत करने में देरी के कारण 'लागत बढ़ने' पर भी सवाल उठाए हैं. CAG ने कहा कि इस देरी की वजह से खरीद की लागत कई गुना बढ़ गई. CAG ने लागत बढ़ने पर जानकारी देते हुए कहा
एक ऐसा मामला है जिसमें वैधता की अवधि के भीतर टेंडर स्वीकार न करने पर दोबारा से टेंडर निकालना पड़ा. इससे 6.75 करोड़ रुपये का एक्स्ट्रा खर्च कर फिर से टेंडर जारी किया गया.
CAG के अनुसार देरी की वजह से एक ही नहीं बल्कि कई मामलों में एजेंसियों ने ऑर्डर को रिपीट करने की जगह दोबारा से नए ऑर्डर दे दिए. इससे 3.89 करोड़ का अतिरिक्त खर्च हुआ. CAG की रिपोर्ट से एक साल पहले सरकार को फौज की ओर से इस बात की आशंका जताई जा चुकी थी कि देरी के कारण न सिर्फ लागत बढ़ रही है, बल्कि इसका असर सेनाओं की क्षमता पर भी पड़ रहा है.
इन दिक्कतों को दूर करने के लिए 2021 में सरकार ने कोलकाता स्थित ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड जिसमें 41 फैक्ट्रियां शामिल हैं, उसके स्ट्रक्चर में मूलभूत बदलाव शुरु किया. सरकार ने इन फैक्ट्रियों को एक साथ मिलाकर 7 नई कंपनियों यानी डिफेंस पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स (DPSUs) में बदल दिया. इसके पीछे तर्क था कि इससे जवाबदेही के साथ इनकी क्षमता में भी इजाफा होगा. क्योंकि ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड द्वारा ऑर्डर्स में देरी से न केवल सेनाओं पर बल्कि लागत और क्वालिटी के स्तर पर भी प्रभाव पड़ रहा था. क्योंकि देरी के अलावा ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड पर कई बार खराब क्वालिटी के आरोप भी लग चुके हैं.
विक्रांत- 13 गुना ज्यादा लागतदेर हुई खरीद से लागत कैसे बढ़ती है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है भारत का एयरक्राफ्ट कैरियर आईएनएस विक्रांत का. बिजनेस स्टैण्डर्ड की एक रिपोर्ट कहती है कि इस एयरक्राफ्ट कैरियर को बनने में 12 साल की देरी हुई. इस देरी का नतीजा ये हुआ कि न सिर्फ नौसेना की क्षमता पर असर पड़ा, बल्कि कैरियर की लागत 13 गुना बढ़ गई. कोच्चि शिपयार्ड लिमिटेड (CSL) द्वारा बनाया गया ये एयरक्राफ्ट कैरियर आज भारत की शान है. पर इसे बनाने में हुई देरी की जिम्मेदारी किसकी थी, ये आज तक तय नहीं हुआ. तो एक नजर डालते हैं प्रोजेक्ट विक्रांत की टाइमलाइन पर, और समझते हैं कैसे ये एयरक्राफ्ट कैरियर 12 साल देरी से नेवी को सौंपा गया.
- 1999 में INS विक्रांत के प्रोजेक्ट को कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी की मंजूरी मिल गई.
- CAG की रिपोर्ट के अनुसार अक्टूबर 2002 और जुलाई 2014 में इसमें संशोधन किए गए.
- 1990 में कहा गया कि नेवी को एक 37,500 टन के के कैरियर की जरूरत है जो कि पर्याप्त नहीं था.
- मई 1999 में कारगिल की लड़ाई के बाद भारत ने इस प्रोजेक्ट पर ध्यान देना शुरु किया क्योंकि 90 के दशक में आई आर्थिक मंदी ने इसपर बुरा असर डाला था.
- CAG की रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है कि कैरियर की टाइमलाइन को लेकर हमेशा नेवी और कोच्चि शिपयार्ड लिमिटेड (CSL) के बीच मतभेद रहे.
- वॉरफेयर में बने रहने के लिए नेवी को जल्द से जल्द एयरक्राफ्ट कैरियर के जरूरत थी. पर CSL की ओर से इसमें लगातार देरी हुई.
- CSL ने 2005 में स्टील कटिंग सेरेमनी के बाद इसे बनाना शुरु किया.
- शिप की Keel Laid सेरेमनी 28 फरवरी 2009 में हुई. ये एक सेरेमनी होती है जिसमें किसी जहाज के कंस्ट्रक्शन को आधिकारिक तौर पर शुरु किया जाता है. इसके अलावा जहाज का लॉन्च, कमीशनिंग और डी-कमीशनिंग एक अहम सेरेमनी होती है.
जहाज के लॉन्च का मतलब है उसे बिल्डिंग साइट से पहली बार पानी में उतारना. 2013 में विक्रांत की 80 प्रतिशत मशीनरी फिट की जा चुकी थी इसलिए CSL ने इसकी लॉन्चिंग कर दी. टर्बाइन, अल्टरनेटर और गियरबॉक्स जैसे जरूरी उपकरण भी लगाए जा चुके थे. पर अगले चरण में पहुंचने तक इस जहाज को 2 साल और लग गए. फिर विक्रांत को बिल्डिंग डॉक से बाहर निकाल कर री-फिटिंग डॉक में भेजा गया जहां अगले चरण का काम शुरू हुआ. फिर 2015 में जाकर जहाज को अनडॉक किया गया. प्रोजेक्ट लगातार लेट हो रहा था. लिहाजा लागत में भी इजाफा होता जा रहा था. इसलिए आईएनएस विक्रांत की शुरूआती लागत जो 3 हजार करोड़ के लगभग थी वो कमिशनिंग होने तक 20 हजार करोड़ को पार कर गई.

भारत में चाहे आर्मी हो, नेवी हो या एयरफोर्स; तीनों सेनाओं के लिए किसी भी डील या खरीद में काफी समय लगता है. अगर डील फाइनल हो जाती है, तो भी डिलीवरी में देरी होती है. इन्हीं सब कारणों को देखते हुए डिफेंस सेक्रेटरी राजेश कुमार सिंह ने जनवरी 2025 में एक बयान दिया. साल 2025 की शुरुआत में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि ये साल रक्षा क्षेत्र में सुधारों का साल है. डिफेंस सेक्रेटरी ने इस बात को दोहराते हुए देश की डिफेंस प्रोक्योरमेंट पॉलिसी में सुधार की बात कही. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आने वाले कुछ महीनों में इसे बदला जाएगा. इससे डील्स में देरी और लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों को सुलझाया जा सकेगा.
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