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क्यों छिपाई गई तालिबान के ख़ूंखार मौलवी की क़ब्र?

मुल्ला उमर की पूरी कहानी क्या है?

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मुल्ला उमर की पूरी कहानी क्या है? (AFP)

मुल्ला उमर मारा गया.
मुल्ला उमर को आईएसआई ने छिपा रखा है.
मुल्ला उमर ज़िंदा है.
मुल्ला उमर अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के आर्मी बेस के पास रहता है.
मुल्ला उमर मर चुका है. लेकिन उसे कहां दफ़नाया गया, इसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता.
क्या सच में मुल्ला उमर की मौत हो चुकी है?

2015 से पहले तक दुनियाभर के न्यूज़ चैनलों पर ये हेडलाइंस धड़ल्ले से चला करतीं थी. बिना किसी पुख्ता दावे के चलाई जाने वाली इन ख़बरों का सिलसिला कभी रुकता नहीं था. 1994 में तालिबान की स्थापना करने वाला मुल्ला उमर मुजाहिद किसी पहेली की तरह था, जिसे 50 से अधिक देश मिलकर भी नहीं सुलझा पाए थे.

वो मुल्ला उमर,
जिसकी गिनती की तस्वीरें इंटरनेट पर उपलब्ध है.
जिसने अलक़ायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को अपने घर में पनाह दी.
जिसने परदे के पीछे रहकर दुनिया की सबसे ताक़तवर सेनाओं को भरमाए रखा.
वही मुल्ला उमर, जिसकी क़ब्र के बारे में उसकी मौत के नौ बरस बाद पता चला है.

तो, आज हम जानेंगे,
- मुल्ला उमर की पूरी कहानी क्या है?
- और, तालिबान ने उसकी क़ब्र को इतने सालों तक छिपाकर क्यों रखा था?

शुरुआत एक दंतकथा से.

साल 1960. अफ़ग़ानिस्तान के एक सुदूर इलाके में रहनेवाला एक परिवार की नियति बंज़ारों सी थी. वे मौसम के हिसाब से अपना ठिकाना बदलते रहते थे. उस साल सर्दियों में उनके पास खाने की किल्लत हो गई. उन्होंने कंधार की तरफ़ जाने का प्लान बनाया. संपत्ति के नाम पर दंपति के पास कुछ खच्चर और खाली बर्तन भर थे. पत्नी गर्भवती थी. पति ने एक खच्चर पर सामान लादा, दूसरे पर अपनी पत्नी को बिठाया. उनके साथ गांव के कुछ और लोग भी चले. अफ़ग़ानिस्तान में सर्दियां टूटकर पड़ती हैं. इस मौसम में सफ़र करना बेहद दुसाध्य होता है. फिर भी उन्हें लगा, भूखों मरने से बेहतर है, संघर्ष का रास्ता.

वे चलने लगे. बीच रास्ते में ही पत्नी के पेट में दर्द शुरू हुआ. वो नीचे उतरी. खुले आसमान के नीचे बच्चे को जन्म दिया. और, फिर उसे लेकर वापस सफ़र करने लगी. उनके पास रुकने का विकल्प नहीं था. बच्चा बहुत बीमार था. उसके बचने की उम्मीद किसी को नहीं थी. महिला के दो नवजात बच्चे पहले भी मर चुके थे. लेकिन वो बच्चा बच गया. घरवालों ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा, उमर. ये बच्चा आगे चलकर अफ़ग़ानिस्तान का सबसे लोकप्रिय नेता और पश्चिमी देशों का मोस्ट वॉन्टेड आतंकी बना. मुल्ला उमर मुजाहिद. उसके जन्म की दंतकथा सुनाने वाले लोग अक्सर कहा करते थे, ‘उसे अल्लाह ने भेजा था. उसका जन्म किसी चमत्कार से कम नहीं था.

मुल्ला उमर के पिता मौलवी ग़ुलाम अली बच्चों को कुरान पढ़ाते थे. जब उमर तीन बरस का था, तभी उसके पिता की मौत हो गई. उसके एक चाचा थे, मौलवी मुज़फ्फ़र. उन्होंने उमर की मां से शादी कर ली. उमर की परवरिश भी उन्होंने ही की. मौलवी मुज़फ्फर मदरसा चलाते थे. उमर की शुरूआती पढ़ाई उन्हीं के मदरसे से हुई.

इसके बाद उमर को धार्मिक शिक्षा के लिए अफ़ग़ानी हुजरा भेजा गया. हुजरा लोकल मस्जिदों से जुड़े छोटे धार्मिक स्कूल होते हैं. 18 की उम्र में उसकी इस्लाम की शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई. उसके मदरसे को लेकर अलग-अलग रिपोर्ट्स में अलग-अलग दावे किए जाते हैं. कुछ रपटों का दावा है कि उसने कराची में उलूम-अल-इस्लामिया मदरसे से पढ़ाई की. कुछ का मानना है कि वो दारुल उलूम हक़्क़ानिया से पढ़ा है. ये वही मदरसा है, जहां से तालिबान के कई और नेता निकले हैं.

मुल्ला उमर (फोटो-AFP)

कट टू 1979.

अफ़ग़ानिस्तान का राजनैतिक माहौल तेज़ी से बदल रहा था. एक बरस के अंतराल में तीन राष्ट्रपतियों की हत्या हो चुकी थी. मोहम्मद दाऊद, नूर मोहम्मद तराक़ी और हफ़ीज़ुल्लाह अमीन. अमीन की हत्या के पहले से ही सोवियत सैनिक अफ़ग़ानिस्तान के अंदर दाखिल होने लगे थे. सोवियत संघ ने बाबराक कमाल को सत्ता सौंपी. बतौर कठपुतली सरकार. सारे आदेश मॉस्को से आते थे. सोवियत आर्मी तुरंत वापस लौटने के मूड में नहीं थी. उनका इरादा था, काबुल से बाहर सुदूर गांवों तक में कम्युनिस्ट सरकार को स्थापित करना. लेकिन ये काम इतना आसान नहीं था.

क्योंकि वहां मुजाहिदीन तैयार बैठे थे. कम्युनिस्ट नास्तिक थे. वे धर्म को नहीं मानते थे. इसलिए, मुजाहिदीन को इस्लाम पर खतरा नज़र आया. मुजाहिदीन को अमेरिका, पाकिस्तान और सऊदी अरब से भरपूर सपोर्ट मिला. मुजाहिदीनों ने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ ‘जिहाद’ (पवित्र युद्ध) छेड़ दिया. इनमें से अधिकतर वे लोग थे, जो अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा ले रहे थे. मदरसा छोड़कर युद्ध में शामिल होने वाले लोगों में मुल्ला उमर भी था. 1982 में उसने हरकत-ए-इंक़लाब-ए-इस्लामी ना का संगठन जॉइन कर लिया. उस वक़्त इस संगठन का मुखिया फैजुल्ला अखुंदजादा था. यहीं उमर की मुलाकात अब्दुल गनी बरादर से हुई. आगे चलकर बारादर मुल्ला उमर का सबसे करीबी शख़्स बना. फिलहाल, वो मौजूदा तालिबान सरकार में उप-प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहा है. उन दिनों में उमर रॉकेट से गोले दागने की ट्रेनिंग ले रहा था. कुछ समय बाद हरकत-ए-इंकलाब में फूट पड़ गई. संगठन दो टुकड़ों में बंट गया. उमर को इस झगड़े में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने किसी धड़े में शामिल होने से इनकार कर दिया.

लेकिन सोवियत के ख़िलाफ़ लड़ाई अभी भी जारी थी. 1987 में सोवियत संघ से लड़ते हुए उसकी दाहिनी आंख में छर्रा लग गया. वो इलाज के लिए पाकिस्तान के क़्वेटा गया. लेकिन आंख की रौशनी वापस नहीं लौट पाई.

उधर, सोवियत संघ का डब्बा गोल हो चुका था. उन्होंने अपनी नियति स्वीकार कर ली थी. 1989 में उन्हें सिर झुकाकर वापस जाना पड़ा. उस समय अफ़ग़ानिस्तान पर मोहम्मद नजीबुल्लाह का शासन चल रहा था. मुल्ला उमर ने हिज़्ब-ए इस्लामी खालिस नाम का संगठन जॉइन कर लिया.जब तक नजीबुल्लाह सरकार गिर नहीं गई, तब तक वो उनके ख़िलाफ़ लड़ता रहा.

अभी तक मुल्ला उमर एक साधारण मुजाहिदीन की तरह लड़ रहा था. उसके बारे में बहुत कम लोग जानते थे. लोगों से बात तक नहीं करता था. उसको कैमरे के सामने आने में भी डर लगता था. जवानी के अलावा उसकी एक और फ़ोटो 1990 के दशक की मिलती है. इसमें उसकी एक आंख बंद दिखती है. सिर पर धारीदार पगड़ी बंधी है. उसके चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं है. ये फ़ोटो खींचने वाले ख़ालिद हादी ने 2003 में वैनिटी फ़ेयर मैगज़ीन को इसके पीछे की कहानी बताई थी.

“उन दिनों काबुल में हाजी हबीबुल्लाह अखुंद एक एनजीओ चलाते थे. ये सोवियत-अफ़ग़ान वॉर और उसके बाद शुरू हुए सिविल वॉर के घायल लड़ाकों को मदद दिया करते थे. मदद लेने से पहले सबूत दिखाना ज़रूरी था. उन दिनों अखुंद के दफ़्तर के बाहर किसी ना किसी अंग से मरहूम सैकड़ों लोग कतार लगाकर खड़े होते थे. एक दिन मुल्ला उमर भी आया. अपनी एक आंख के बिना. वो भी मदद के पैसे लेने आया था.”

1992 में मोहम्मद नजीबुल्लाह की सरकार गिर गई. जिसके बाद उमर ने अपने साथियों के साथ गेशानो गांव में हाजी इब्राहिम मस्जिद के पास अपना मदरसा खोला. वहां उमर ने वापस अपनी पढ़ाई शुरू की, जो युद्ध की वजह से रुक गई थी. ये शांति कुछ दिनों की मेहमान थी, जल्दी ही उससे हाथ जोड़ लिया गया. नजीबुल्लाह के जाने के बाद मुजाहिदीनों के बीच सत्ता संघर्ष शुरू हुआ. मुजाहिदीनों के कई गुट बन चुके थे. वे दावा करने लगे कि हम ही असली वारिस हैं. सत्ता हमारे पास होनी चाहिए.

मुल्ला उमर (फोटो-AFP)

मुल्क़ हिंसा के चंगुल से निकलकर अराजकता के जाल में फंस चुका था. ये सब मुल्ला उमर के मन में भरता गया. 1994 में एक रोज़ उसको एक ख़्वाब आया. उसके सपने में एक अफ़ग़ान औरत आई थी. उसने उमर से कहा, 

"हमें आपकी मदद की ज़रूरत है, आपको उठना होगा. आपको अराजकता को समाप्त करना होगा. अल्लाह आपकी मदद करेगा."

दावा किया जाता है कि इसी घटना के बाद मुल्ला उमर का चाल-चरित्र अचानक से बदल गया. उसने अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने का बीड़ा उठाने का फ़ैसला किया. और, तब उसने मदरसे के 50 से भी कम छात्रों के साथ तालिबान की नींव रखी. तालिब धार्मिक छात्रों को कहा जाता है. तालिबान इन धार्मिक छात्रों का संगठन था.

जल्दी ही तालिबान का प्रभाव बढ़ने लगा था. उन दिनों का एक वाकया बेहद मशहूर है. एक बार एक सरदार ने 2 बच्चियों का अपहरण कर लिया. जब उमर को इसकी ख़बर मिली तो उसने अपने 30 लोगों के साथ मिलकर उस कबीले पर हमला कर दिया. भीषण लड़ाई के बाद बच्चियों का आज़ाद करा लिया गया. इस वाकये के बाद उमर की किंवदंती चलने लगी. तालिबान से जुड़ने वालों का सिलसिला बढ़ने लगा. अफ़ग़ानिस्तान के अलावा पाकिस्तान से भी लोग आ रहे थे. रपटें बतातीं है कि तालिबान को मज़बूत बनाने के पीछे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ था. आईएसआई के मुखिया रहे हामिद गुल जब तक जीवित रहे, तब तक उन्होंने इस बात का ज़ोर-शोर से प्रचार भी किया.

उधर, तालिबान तेज़ी से अपने पैर पसार रहा था. उसे स्थानीय लोगों का भी समर्थन मिल रहा था. तालिबान ने नवंबर 1994 के अंत तक कंधार पर कब्ज़ा कर लिया. 1995 के अंत तालिबान के 31 में से 12 प्रांतों पर तालिबान का शासन चल रहा था.

फिर आया साल 1996. अप्रैल महीने की चार तारीख़. जगह, कंधार का किरका शरीफ़. वहां की मज़ार के एक कमरे में गुप्त बक़्सा रखा हुआ था. दावे के अनुसार, इस बक्से में बंद था पैगम्बर मोहम्मद का लबादा. या चोला.इसे दशकों पहले एक राजा ने हिफाज़त के साथ वहां रखवाया था. इसे निकलवाने की इजाज़त केवल इमरजेंसी में थी, वो भी सिर्फ शासक को. उमर ने उस चोले को वहां से निकलवाया, और पुरानी मस्ज़िद के छत पर चढ़ गया. सामने लोगों का हुजूम था. चोले को देखकर भीड़ में मानों करंट प्रवाहित हो गया. लोग उत्साहित होकर नारे लगाने लगे. अमीरुल मोमिनीन, अमीरुल मोमिनीन. भीड़ ने ये नज़ारा देखकर अपना सिर झुका लिया. उन्होंने उसी वक्त उमर को अपना नेता मान लिया था.

सितंबर 1996 में तालिबान काबुल में दाखिल हो गया. उन्होंने यूएन हेडकड्वार्टर में घुसकर नजीबुल्लाह की हत्या कर दी. तत्कालीन अफ़ग़ान सरकार उनके आगे बेबस थी. उन्होंने काबुल छोड़ने का फ़ैसला किया. इस तरह अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान ने अपनी सरकार बिठा दी. मुल्ला उमर इस सरकार का आध्यात्मिक गुरू बन गया. 1997 में उसने मुल्क का नाम दिया, इस्लामिक अमीरात ऑफ़ अफगानिस्तान. सत्ता में आते ही मुल्ला उमर का असली रंग दिखना शुरू हो गया. तालिबान सरकार ने औरतों की पढ़ाई-लिखाई और उनके कामकाज करने पर बैन लगा दिया. अकेले निकलने वाली औरतों को सरेआम पीटा जाता था. बर्बर कानून लादे गए. मुल्ला उमर ने एक फरमान जारी किया कि अफगानिस्तान के आस-पास जितनी भी मूर्तियां हैं, उन्हें तोड़ दिया जाए, इसी कड़ी में उसने बामियान बुद्ध की मूर्तियों को नष्ट करवा दिया, दुनिया को पहली बार मुल्ला उमर के कट्टरपंथ की एक झलक दिखी. उसने मूर्तिपूजा को इस्लाम के ख़िलाफ़ बताया और इस कदम को जस्टिफ़ाई किया.

फिर अमेरिका पर 9/11 का हमला हो गया. हमले का मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान में छिपा था. मुल्ला उमर उसके संपर्क में था. अमेरिका ने ओसामा को सौंपने का अल्टीमेटम जारी किया. लेकिन उमर ने मना कर दिया. इससे अमेरिका नाराज़ हुआ. अक्टूबर 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया. एक हवाई हमला उमर के कंधार वाले घर पर भी किया गया, लेकिन इस हमले से ठीक पहले ही वो बाइक पर बैठकर भाग निकला था. कहा जाता है कि उस हमले में उसका 10 साल का बेटा घायल हो गया था. कुछ समय उमर गायब रहा. फिर नवंबर 2001 में रेडियो में उसकी आवाज़ सुनाई दी. उसने तालिबानी लड़ाकों को काबुल छोड़ पहाड़ी इलाकों में जाने को कहा. उमर की राष्ट्रपति बुश से दुश्मनी बढ़ गई थी. वो इन हवाई हमलों में मारे गए अफगानियों को ज़िम्मेदार राष्ट्रपति बुश को बताता था.

अमेरिका के हमले ने तालिबान की मुश्किलें बढ़ा दी. 5 दिसंबर 2001 को उसने एक इमरजेंसी मीटिंग बुलाई. अपने मंत्रिमंडल से आगे का प्लान पूछा. वहां तालिबानी लड़ाके भी मौजूद थे. आधे लोगों ने लड़ाई जारी रखने की बात कही. बाकी ने कहा, सरेंडर करना सही होगा. मुल्ला उमर ने उसी वक्त तालिबान का नेतृत्व रक्षा मंत्री मुल्ला उबैदुल्लाह को सौंप दिया. उसके बाद वो जाबुल प्रांत में छिप गया.

स्कॉट स्वानसन एक अमेरिकी सैनिक थे जो संदिग्ध काफिले पर नज़र रख रहे थे, स्कॉट ड्रोन हमलों का काम देखते थे. 2015 में दिए गए एक इंटरव्यू में स्कॉट ने बताया था,

“जब हमने पहली बार अफगानिस्तान में हमला किया तो उस रात एक परिसर में मुल्ला उमर के होने की जानकारी मिली, लेकिन हम हमला नहीं कर सकते थे, क्योंकि उस परिसर के अंदर एक मस्ज़िद थी और आस-पास आम लोग रह रहे थे. उस दिन हम निश्चित रूप से बहुत निराश थे, हमारे पास एक क्लियर टारगेट था लेकिन हम हमला नहीं कर पाए.”

स्कॉट की निराशा निश्चित रूप से आगे जाकर और बढ़ी होगी, क्योंकि जिस मुल्ला उमर की जान उस रात बच गई थी, उसने आगे के 12 सालों में अमेरिका की नाक में दम किया. उसके बनाए संगठन ने अमेरिका को अफगानिस्तान से खदेड़ दिया.

इस हमले में बचने के बाद मुल्ला उमर ने कई ठिकाने बदले. कहा जाता है कि उस दौरान वो पाकिस्तान भी गया था. 2003 में उसका एक ऑडियो टेप सामने आया जिसमें उसने मुल्ला ओबैदुल्लाह को तालिबान का नेता बताया था.

वो ख़ुद तो सामने नहीं आता था, बशर्ते उसके ऑडियो टेप्स ज़रूर जारी होते थे. इन्हीं टेप्स के ज़रिए वो अपने लोगों को दिशा-निर्देश दिया करता था. मगर 2007 में एक गड़बड़ हो गई. उसका टेप लाने-ले जाने वाला पकड़ा गया.

इससे पहले अप्रैल 2004 में, पाकिस्तानी पत्रकार मोहम्मद शहजाद ने उमर का फोन पर एक इंटरव्यू  किया था. इसमें उमर ने दावा किया कि ओसामा बिन लादेन जीवित और स्वस्थ है. उमर ने इस इंटरव्यू में ये भी कहा कि तालिबान सूअरों की तरह अमेरिकियों का शिकार कर रहे हैं. नवंबर 2009 में, द वाशिंगटन टाइम्स ने दावा किया कि पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) की सहायता से उमर अक्टूबर में कराची चला गया था. 2011 में उसे दिल का दौरा हुआ. इलाज के बाद उसे बचा लिया गया. 2011 में ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा को कथित तौर पर एक पत्र मिला था. जो उमर का बताया गया. उमर ने इसमें अमेरिका के साथ शांति समझौता करने की बात कही थी. हालांकि, इस चिट्ठी की सत्यता की पुष्टि कभी नहीं हो सकी. तालिबान के प्रवक्ता ने कहा था कि इस तरह की चिट्ठी का कोई आधार नहीं है.

इसके बाद कई मौकों पर मुल्ला उमर की मौत की ख़बरें मीडिया की सुर्खियों में रहीं. कभी कहा जाता कि सफ़र करते समय उसकी कार में धमाका हुआ. कभी ख़बर आती कि उसके घर पर बमबारी हुई. कभी कहा जाता कि उसे उसके अपने ही लोगों ने मार दिया.

फिर 29 जुलाई 2015 को आधिकारिक तौर पर उसकी मौत की पुष्टि कर दी गई. अफगानिस्तान सरकार ने कहा कि मुल्ला उमर की मौत अप्रैल 2013 में कराची के एक अस्पताल में हो गई थी. तालिबान ने इसका खंडन नहीं किया. उन्होंने इसके बाद अपना शीर्ष नेतृत्व बदल दिया था.

आज हम मुल्ला उमर की कहानी क्यों सुना रहे हैं.?

दरअसल, मुल्ला उमर की मौत के बाद उसकी क़ब्र का ठिकाना छिपा लिया गया था. बहुत कम लोग इस बारे में जानते थे. लेकिन 06 नवंबर को तालिबान ने इस राज़ से पर्दा हटा दिया है.

तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने बताया कि मुल्ला उमर को जाबुल प्रांत में दफ़नाया गया था. जिस समय उसका अंतिम-संस्कार हुआ था, उस समय अफ़ग़ानिस्तान विदेशी हुकूमत के नियंत्रण में था. इसी वजह से मुल्ला उमर की कब्र को गुप्त रखा गया. अब कहा गया है कि कोई भी इस क़ब्र के दर्शन कर सकता है. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार की वापसी हो चुकी है. उनके लिए मुल्ला उमर की क़ब्र किसी पवित्र मज़ार की तरह है. तालिबान इसके ज़रिए लोगों का माइंडवॉश करेगा. मुल्ला उमर की जो विरासत रही है, उसके अनुसार, अफ़ग़ानिस्तान और बाकी दुनिया की अमनपसंद जनता के लिए ये घटना किसी सदमे से कम नहीं होगी.

इमरान खान ने पाकिस्तान के टुकड़े होने की चेतावनी क्यों दी?