साल 2002. पर्दे पर एक फिल्म उतरी. नाम तुलुवडो इल्लमई. हीरो नया था. डायरेक्टर उसका ही बाप था. पहली बार कैमरे के सामने उतरा था. अगले दिन अखबार में रिव्यू छपा. बड़ा-बड़ा लिखा हुआ था - "हमें नहीं समझ आया कि क्या सोचकर ये कैमरे के सामने आकर खड़ा हो गया." उसने वो पढ़ा और फूट-फूट कर रोने लगा. उसके रोने के पीछे वो खराब रिव्यू वजह नहीं थी. उसे मालूम था कि उसने कोई बहुत अच्छा काम नहीं किया है. उसे अंदेशा था कि ऐसा ही कुछ अखबार में लिखा जायेगा. उसे दुःख तो बस इस बात का था कि अब उसे उसके चचेरे भाई-बहन चिढ़ायेंगे.
रजनीकांत का जमाई होने के लिए धनुष होना पड़ता है
धनुष. यानी वो लड़का जो लुंगी उठाकर बीच सड़क में नाचने लगता है. जिसने छोटे शहर के इश्क़ के साथ सबसे ज़्यादा इंसाफ किया. आज बड्डे है.

एक ब्लैंक स्क्रीन. सफ़ेद अक्षरों में लिखा हुआ - नौ साल बाद.
साल 2011. 27 साल का एक लड़का तालियों के शोर के बीच स्टेज पर चढ़ रहा था. नाम वेंकटेश प्रभु. फ़िल्म का नाम अडुकलम. सबसे कम उम्र में बेस्ट ऐक्टर का नेशनल अवॉर्ड जीत रहा था. वही लड़का जिसे कभी लगता था कि उसे उसके चचेरे भाई-बहन चिढ़ायेंगे. जिसके कैमरे के सामने खड़े होने पर ही सवाल खड़े कर दिए गए थे. वही लड़का. सबसे कम उम्र में ऐक्टिंग के लिए नेशनल अवॉर्ड जीतने वाला बन चुका था. उसका डर उससे कोसों दूर था. चाल में कड़कपन था और ऐक्टिंग के तो क्या कहने.
नाम - वेंकटेश प्रभु फ़िल्मी नाम - धनुष काम - ऐक्टिंग
पापा कस्तूरी राजा फ़िल्ममेकर थे. एक समय था जब एक मिल में काम करते थे. मगर शौक था लिखने का. लिखते रहते थे. जब भी समय मिलता. जो लिखा, कहानी-स्क्रिप्ट, सब बेच दी. 50-50 रुपयों में. लोगों ने अपने नाम से उनकी लिखी स्क्रिप्ट्स पर फिल्में बना डालीं. घर से निकलते तो 11 किलोमीटर पैदल चलते, बस के किराये का 1 रुपया बचाते, जिससे धनुष स्कूल जा पाते. किसी को स्क्रिप्ट भेजते-भेजते उसके थ्रू तमिल फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए. उस वक़्त उम्र चालीस को बस छूने ही वाली थी. करीब पंद्रह साल की अथक मेहनत के बाद पहली फ़िल्म डायरेक्ट की.
धनुष 16 का हुआ. मरीन इंजीनियर बनना चाहता था. कभी-कभी शेफ़ भी बनने का ख्याल आता था. पापा ने कहा ऐक्टिंग करो. मना कर दिया. खूब रोया, लड़ाई की. खाना खाना बंद कर दिया. लेकिन पापा नहीं माने. उन्हें लड़के में ऐक्टर दिखता था. लड़के को खुद में ऐक्टिंग ढूंढ़े भी नहीं मिलती थी. जो लड़का भूखा रहने के बाद भी खाना न खाए और भूख न लगने की ऐक्टिंग करे, उसे ऐक्टिंग नहीं आएगी भला? आज दुनिया कस्तूरी राजा को थैंक यू कहना चाहती है. उनकी बनाई हुई फिल्मों के बारे में ही नहीं, धनुष को ऐक्टिंग में धकेलने के लिए. वेंकटेश प्रभु को धनुष में तब्दील करने के लिए.
धनुष शीशे में खुद को देखता नहीं था. दरअसल उससे खुद को शीशे में देखा ही नहीं जाता था. वो 'रूपवान' नहीं था. फिल्म इंडस्ट्री में 'रूपवान' होने की एक तय परिभाषा है. जिसमें चमड़ी के रंग को सबसे ज़्यादा तरजीह दी जाती है. धनुष उल्टा था. लेकिन यहां बाप के डायरेक्टर होने का अपर हैण्ड था. उसे मालूम था कि स्क्रिप्ट जैसा भी कुछ होता है. कहानी जैसी भी एक चिड़िया होती है. उसे ये भी मालूम था कि कहानी किसी फिल्म की रीढ़ होती है. पन्नों में जो लिखा होता है, एक इंसान को स्टार बना देता है. धनुष भी इंसान ही था. पन्नों के सहारे स्टार बनना था. चमड़ी के रंग, बाजू की मोटाई और हेयरस्टाइल से नहीं.
साल 2012. एक दिन केरल में रहने वाली एक दोस्त ने यूट्यूब वीडियो का लिंक भेजा. एक गाना था. रैंडम गाना. और वो रैंडम गाना प्लेलिस्ट का साथ आज भी न छोड़ पाया है. देश का पहला वायरल वीडियो. लखनऊ शहर के रेडियो पर बजने वाला पहला तमिल गाना. सूप सॉन्ग. फ्लॉप सॉन्ग. कोलावेरी डी.
पूरा जीवन इलाहबाद में बिताए घूम रहा लड़का भी बात-बात पर 'सुपर मामा रेडी?' कहता सुनाई दे रहा था. इंजीनियरिंग के हॉस्टलों में भावी इंजीनियर 'आइज़ फुल्ला टियर' लेकर हैण्ड-ला ग्लास, ग्लास-ला स्कॉच लिए मिलते थे.
और आवाज़ थी उसी लड़के की जो कभी शेफ़ बनना चाहता था. 'येम्पटी लाइफ़' में गर्ल के 'कम' करते ही लाइफ रिवर्स गियर हो जाती है. इस बात को अगर किसी ने पूरी ईमानदारी के साथ बताया तो वो था धनुष. इस अंग्रेजीनुमा तमिल गाने के पीछे धनुष की आवाज़ तो थी मगर धनुष की आंखों ने कभी कॉलेज को अन्दर से नहीं देखा. उसे अंग्रेजी नहीं आती. लेकिन हां, तमिल में अंग्रेजी का छौंका लगा के 1 अरब बार ऑनलाइन वीडियो ज़रूर चलवा सकता है.
https://www.youtube.com/watch?v=YR12Z8f1Dh8धनुष स्टेज पर डरता है. उसे लोगों के बीच में डर लगता है. उसे समझ नहीं आता कि लोगों से क्या बोले. इसलिए कुछ भी बोल देता है. और फिर बीच में ही अपनी परफॉरमेंस शुरू कर देता है. कहता है कि मुझे एक चेक भी लिखनी नहीं आती. क्यूंकि वो उसे नर्वस कर देती है. लेकिन कैमरा आते ही उसे मज़ा आने लगता है. कॉन्फिडेंस से भर जाता है.
27 साल की उमर में नेशनल अवॉर्ड जीतने वाला धनुष, उस वक़्त 25 फ़िल्में कर चुका था. 14 साल के काम को एक्सपीरियंस वाले कॉलम में लिखने लगा था. सीनियर कहलाये जाने वाले ऐक्टर्स के बीच वो अकेला नया ऐक्टर होता है जिसने उनके बराबर फिल्में की हुई हैं. और उतना ही एक्सपीरियंस. उतना ही मेच्योर. 37 साल की उमर में उसने अपनी उमर से ज़्यादा का काम किया हुआ है.
कुंदन. जिसने अपनी जिंदगी में गर कोई काम ईमानदारी से किया तो वो था इश्क़. जो मरते वक़्त भी ये याद दिलाता है कि उसकी कहानी दिल्ली के किसी अस्पताल से नहीं बल्कि बनारस से शुरू हुई थी. जिसने सोच लिया था कि वो हाथ में दूध का गिलास लिए नहीं खड़ा रहेगा. जिसे अपने हाथ की नसों की भी फ़िक्र नहीं थी. जो अपनी महबूबा का नाम जानने के लिए हर रोज़ उससे थप्पड़ खाने आता था. जिसकी सारी अर्ज़ी बस 'उस' तक थी. उसके बाद 'उसी' की मर्ज़ी. बस.
तब, जब साउथ इंडिया का मतलब इडली और नारियल के तेल से इतर कुछ नहीं था, 'साउथ इंडिया से इम्पोर्टेड' कुंदन लखनऊ, कानपुर, इलाहबाद में ठेठ आशिक़ी का ठेठ पर्याय बन गया.
यूं ही नहीं कोई रजनीकांत का जमाई बन जाता है.
वीडियो देखें: एक्टर धनुष ने फिल्मों में 17 साल पूरे करने की ख़ुशी में लिखा इमोशनल लेटर