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वो शायर, जो औरतों के आंचल को परचम बनाना चाहता था

किस्से मजाज़ लखनवी के, जिनकी नज़्में गर्ल्स हॉस्टल के तकियों में दबी मिलती थीं. आज बड्डे है.

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ये मजाज़ जैसे शायर ही थे, जो नामुक़म्मल चीज़ों के साथ दिलनवाज़ी की चिप्पी चिपका गए और हमें अधूरेपन से भी इश्क़ हो गया. मजाज़ लखनवी 19 अक्टूबर, 1911 को जन्मे और 5 दिसंबर 1955 के दिन दुनिया से रुखसत हुए. आज उनकी बर्थ एनिवर्सरी है, तो आज उनकी बातें करते हैं. आम दिनों में तो कम ही होती हैं. मजाज़ लखनवी के लिए लड़कियों की दीवानगी के किस्से आम हैं. बताने वाले बताते हैं कि उनकी नज़्में गर्ल्स हॉस्टल के तकियों में दबी मिलती थीं. बावजूद इसके वो ताउम्र प्यार के तलबबगार रहे. इसलिए लिखा भी,
ख़ूब पहचान लो असरार हूं मैं जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूं मैं
इसमें शक नहीं है कि जब तरक्कीपसंद अदब की बात आती है तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का क़द बहुत बड़ा होता है. लेकिन इस धारा में असरार उल हक 'मजाज़' की शुमारी भी कमतर नहीं है. मशहूर अदाकारा नर्गिस जब लखनऊ आईं तो मजाज़ का ऑटोग्राफ लेने पहुंचीं. नर्गिस के सिर पर उस वक़्त सफेद दुपट्टा था. नर्गिस की डायरी पर दस्तख़त करते हुए मजाज़ ने ये मशहूर शेर लिखा था,
तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
मजाज़ के तरक्कीपसंद तेवरों की इस बिनाह पर अनदेखी न की जाए कि दिल्ली में उन्होंने अपना दिल खो दिया और शराबो-शायरी में अपना ग़म गारत करने लगे.
  ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने दिल का हाल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं रास्ते में रुक के दम लूं, ये मेरी आदत नहीं लौट कर वापस चला जाऊं मेरी फ़ितरत नहीं और कोई हमनवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं तलत महमूद की आवाज़ में ये पसमंज़र में लगा लीजिए. फिर आपको इस हाज़िरजवाब शायर के कुछ किस्से बतलाते हैं.

1.

20 मजाज़ 19 अक्टूबर, 1911 को फ़ैज़ाबाद के रुदौली कस्बे में पैदा हुए. मजाज़ के वालिद चौधरी सिराज उल हक, वकालत की डिग्री लेने वाले अपने इलाके के पहले आदमी थे. सरकारी मुलाज़िम थे, चाहते थे कि बेटा इंजीनियर बने. उन्होंने असरार को आगरा के सेंट जोंस कॉलेज पढ़ने भेज दिया. लेकिन वहां असरार को जज़्बी, फानी और मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली और वे ग़ज़लों में रुचि लेने लगे. तख़ल्लुस रखा 'शहीद.' ये भी कहते हैं कि उस वक़्त उन्होंने अपनी ग़ज़लों का इस्लाह फानी से करवाया, लेकिन उनके स्टाइल की छाप ख़ुद पर नहीं पड़ने दी.

2.

19 1931 में बीए करने वह अलीगढ़ चले आए और इसी शहर में उनका राब्ता मंटो, चुगताई, अली सरदार ज़ाफ़री और जां निसार अख़्तर जैसों से हुआ. तब उन्होंने अपनी ग़ज़ल को नई वुसअत बख़्शी और तख़ल्लुस 'मजाज़' का अपनाया और फिर बड़ा सितारा बनकर उभरे. 1930-40 का दशक दुनिया में बड़ी तब्दीलियों का दौर था. इसका असर मजाज़ की कलम पर भी पड़ा. इश्किया ग़ज़लों से इतर उन्होंने इंक़लाबी कलाम लिखे. अलीगढ़ शहर से उनकी ख़ूब पटी. यूनिवर्सिटी का तराना भी उनका ही लिखा हुआ है.

3.

18 1935 में वो 'ऑल इंडिया रेडियो' में असिस्टेंट एडिटर होकर दिल्ली आ गए और इसी शहर ने उन्हें नाकाम इश्क का दर्द दिया, जिसने उन्हें बर्बाद करके ही दम लिया. ज़ोहरा उनकी न हो सकती, जिसके बाद उन्हें शराब की ऐसी लत लगी कि लोग कहने लगे, मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है. दिल्ली से विदा लेते हुए उन्होंने कहा,
रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं

4.

17 कुछ लोग मजाज़ के शायरी के हुनर के मुरीद थे, लेकिन उसमें तरक्कीपसंद आग्रह उन्हें खटकता था. लखनऊ के एक नामी शायर और उर्दू आलोचक जाफर अली खां ने उनके बारे में कहा, 'उर्दू में एक ही नफ़ीस पैदा हुआ था, मगर उसे तरक्कीपसंद भेड़िये उठा ले गए.' ये मजाज़ की तारीफ़ थी और इस दौर में आप किसी शायर की इस तरह तारीफ़ करें तो वो इस पर फूलकर कुप्पा हो न हो, लेकिन एक चुप्पी तो ओढ़ ही लेगा. लेकिन मजाज़ को अपनी ये तारीफ़ पसंद नहीं आई. वो उन शायरों में नहीं थे कि कोई उनकी तारीफ करे और तरक्कीपसंद धारा को ख़ारिज़ करे. मजाज़ ने उन्हें जवाब देते हुए कहा, 'एक वो एटम बम था जो हिरोशिमा में गिरा. एक जाफर अली खां नाम का बम है जो हुमा शुमा (हम ही लोगों पर) गिरता है.' और फिर उन्होंने ये शेर कहा,
                         ज़माने की रफ़्तार से बेख़बर हैं
                         ये नवाब जाफ़र अली ख़ान असर हैं
5. 16 एक दफा अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में इस्मत चुगताई ने मजाज़ से कहा कि लड़कियां आपसे मुहब्बत करती हैं. इस पर मजाज़ फौरन बोले, 'और शादी पैसे वालों से कर लेती हैं.'

6.

15 एक बार चुगताई ने ही पूछा कि तुम्हारी ज़िंदगी को ज्यादा लड़की ने बर्बाद किया या शराब ने. इस पर मजाज़ का जवाब था, मैंने दोनों को बराबर का हक दिया है.

7.

14 एक बार फिराक गोरखपुरी की पोती ने उन्हें अपशब्द कह दिया. फिराक ने मजाज़ से कहा, 'देखिए ये बच्ची मुझे अपशब्द कह रही है.' मजाज़ ने तुरंत कहा, 'मर्दुमशनास (आदमी को पहचानने वाली) मालूम होती है.'

8.

13 कुछ शायर मजाज़ की शराब की लत को लेकर फिक्रमंद रहते थे. जोश मलीहाबादी ने एक बार उन्हें सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो जवाब मिला, 'आप घड़ी रख के पीते हैं, मैं घड़ा रख के पीता हूं.'

9.

12 दिसंबर 1955 में जब वो शराब लगभग छोड़ चुके थे, उनके कुछ दोस्त उन्हें एक जाम पकड़ाकर नशे की हालत में लखनऊ के एक शराबखाने की छत पर छोड़कर चले आए. सुबह हुई और अस्पताल पहुंचने तक वे जा चुके थे.

10.

11 लखनऊ में मजाज़ की क़ब्र है, जिस पर लिखा है, 'अब इसके बाद सुबह है और सुबह-ए-नौ मजाज़, हम पर है ख़्तम शामे ग़रीबाने लखनऊ' उनके मुरीद और मजाज़गोई करने वाले हिमांशु बाजपेयी एक दिन उनकी क़ब्र पर जा बैठे और लौटकर आए तो ये लिखा,
दो दिन पहले मजाज़ के पहलू में जाकर बैठ गया था.पहली बात जो उसने कही वो थी कि कब्र पर लगा ये कत्बा हटवा दो.(अब इसके बाद सुबह है और सुबहे नौ मजाज़/ हम पर है ख़त्म शाम ए ग़रीबान ए-लखनऊ) लखनऊ की 'शामे-गरीबां' मेरे बाद भी खत्म नहीं हुई है. रहगुज़ारे कब्रस्तान की भी ये शिकायत है कि उसे मेरे नाम से मंसूब कर दिया गया है इसलिए गुमनामी का आज़ार तय है. इस सिलसिले में भी कुछ किया जा सकता हो तो कहो. और एक आखिरी ख्वाहिश- मेरी ये आरामगाह जो कि बेशतर लोगों को एक मुर्दा जिस्म का मकाम लगती होगी, इसे किसी ऐसे दयार की तरह मकबूल करो जो निशान-ए-मुहब्बत हो. दुनिया भर के अहले मुहब्बत यहां आएं और अपनी तकदीर के पचोखम को संवारें....

- हिमांशु बाजपेयी से फोन पर हुई बातचीत पर आधारित (मजाज़ के मुरीद हिमांशु लखनऊ में रहते हैं. लखनऊ के किस्से लिखने और सुनाने के लिए जाने जाते हैं. उनकी मजाज़ वाली दास्तानगोई मशहूर है.)
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