
वो जिसने मंत्री को किडनैप किया फिर उसकी गाड़ी के पुर्जे पुर्जे खोल दिए
मनोज बाजपेई. फ़िल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा नाम. कभी एक बड़े स्ट्रगलर हुआ करते थे. बहुत कुछ खोया और फिर बहुत कुछ पाया. आज जन्मदिन है.

पुराने मॉडल की नीली रंग की जीप एक पेट्रोल पम्प पे आ के रूकती है. 3 लोग उतरते हैं. एक गाड़ी में तेल भरवाने के लिए खड़ा रहता है, बाकी के दो जहां पैसे जमा होते हैं, उधर की ओर बढ़ते हैं. उनमें से एक शख्स अपने छिले हुए सर को काली शाल से ढके रहता है. वो सर उसने बचपन में छिलवाया था. सारे बाल गायब. और कसम खायी थी कि जब तक अपने बाप के कातिल को बर्बाद नहीं कर देगा, सर पे बाल नहीं रखेगा. पैसे जमा करने वाले के पास जाते वक़्त उसकी आंखों में खून उतरता दिखाई देता है. चेहरे का ज़्यादातर हिस्सा उस काली शाल से ढका है. बस कंपा देने वाली ठण्ड में लाल हुई नाक और आंखें दिख रही थीं. आंखों में सुरमा भी नज़र आ रहा था. जो उन्हें और भी भयानक बना दे रहा था. गुलाबी शर्ट में अपनी ओर ऐसे किसी भी इंसान को आते देख कोई भी घबरा उठे. पेट्रोल पम्प लूटने के बाद अपनी शाल में पैसों को बांध के जीप की ओर भागते हुए उसकी चप्पल छूट जाती है. वो अपने पैरों में पत्थर लगने से परेशान हो जाता है. चिल्लाता है "अरे चप्पल छूट गया." वापस जाने को होता है. पहुंच कर चप्पल हाथ में उठाता है और फिर जीप की ओर भागता है. पत्थर अब भी चुभ रहे हैं. फिर चिल्लाता है - "अरे पत्थर लग रहा है..." कट. तेरी कह के लूंगा गाना शुरू हो जाता है. वो दूर खड़े अपने बाप को कातिल को घूर रहा होता है. चुप-चाप. असली मौके की तलाश में. अभी वो उसी के लिए काम कर रहा है. कल उसका गला रेतने की ख्वाहिश रखता है.
ये था सरदार खान. जो कभी भीखू म्हात्रे हुआ करता था. जो एक ऊंचे टीले पर चढ़कर समंदर को मुंह चिढ़ाते हुए चिल्लाता था - "मुंबई का किंग कौन? भीखू म्हात्रे!" जिसे भाऊ ठाकुरदास झावले गोली मार देता है. भाऊ ने धोखे से भीखू को मार दिया. क्यूंकि भीखू, भाऊ की गुलामी को तैयार नहीं था. उसमें गुलाम बनने की ताकत नहीं थी. गुलाम बनने के लिए पहले खुद को मारना पड़ता है. भीखू उन लोगों में नहीं था जो किसी के तलवे चाटते फिरें. भीखू म्हात्रे ही मुंबई का किंग था.

भीखू म्हात्रे आगे चलकर सीबीआई में अधिकारी बन जाता है. वसीम खान. ईमानदार और कड़क. बिजली सा दिमाग. काम भी करे और करंट भी मारे. फर्जी सीबीआई अफ़सर बने गुंडों के लिए काल. उन्हें पकड़ने से पहले ही फ़िल्म खतम हो गयी. सीबीआई में आने से पहले वसीम खान मोतिहारी बिहार में इन्स्पेक्टर बन के पहुंचा था. इतना अक्खड़ और जिद्दी कि स्टेशन पर कुली से झगड़ लिया. वो दो सूटकेस उठाने के लिए तीस रुपिया मांग रहा था. पास खड़े पुलिसवाले ने उसी कुली का साथ दिया तो उसके ड्यूटी ज्वाइन करते ही सबसे पहले उस पुलिसवाले के खिलाफ़ केस दर्ज किया. उसकी बेटी गाना गाती है - "अइय्या मेरे पापा को गुस्सा जब आता है, डर के मारे टीवी और कपाट हिल जाता है. पापा का गुस्सा ऐसा, हो दारा सिंह जैसा, देखो...देखो..."
ये गुस्से वाला इन्स्पेक्टर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में मराठी का प्रोफ़ेसर बन जाता है. वो गे है. उसे गे होने की वजह से यूनिवर्सिटी से निकाल दिया जाता है. एक न्यूज़ चैनल एक स्टिंग ऑपरेशन चलाता है जिसमें उसे एक रिक्शे वाले के साथ सेक्स करते हुए देखा जाता है.
मनोज बाजपेई उस वक़्त एक बड़ा नाम बने हैं जिस वक़्त बड़े बनने के लिए आपके हाथों में एक ख़ास तरह का ब्रेसलेट, किसी डायरेक्टर से नजदीकियां, एक बड़ा बैनर, आस पास घूमती लड़कियां काफ़ी ज़रूरी होती हैं. मनोज को आज के मनोज बनाने में गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का बहुत बड़ा हाथ है. ऐसा नहीं है कि उसके पहले मनोज कहीं थे नहीं. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के पहले मनोज ने कई बेहतरीन परफॉरमेंस दी हैं. लेकिन मेनस्ट्रीम में उनकी वो धमक नहीं थी. हालांकि जितना वो डिज़र्व करते हैं, वहां से आज भी वो कोसों दूर हैं. खैर. बात 1998 की है. मनोज बाजपेई अपने प्रदेश बिहार में थे. पटना. फिल्म का प्रमोशन था. फिल्म थी तमन्ना. साथ में ही पूजा भट्ट और महेश भट्ट थे. वहां किसी पत्रकार ने उनके और पूजा भट्ट के बीच रिश्ते को लेके सवाल पूछ दिया. कुछ देर तक कोई जवाब नहीं. कोई आवाज नहीं. सब एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे. मनोज से जवाब की उम्मीद थी और उन्होंने दिया. वो उठे और एक तमाचा रसीद कर दिया. पत्रकार के मुंह पे. माहौल गरम हो गया. महेश भट्ट ने ठण्डा किया. मनोज उस भीड़ में कुछ चंद लोगों जैसे हैं जिन्होंने अपनी जड़ों को अभी तक बचा के रक्खा हुआ है. साथ ही हिंदी को भी. फ़िल्मी दुनिया में हिंदी लुप्तप्राय होती जा रही है. आईडिया आने से लेकर फ़िल्म की प्रमोशन तक सब कुछ अंग्रेजी में चलने लगा है. फिल्मों में इस विलुप्त होती भाषा को बचाने को कोई संस्था भी नहीं है. मगर मनोज हैं. किसी भी डायरेक्टर के साथ काम कर रहे हों, वो अपनी स्क्रिप्ट को हिंदी में मंगवाते हैं. अंग्रेजी में नहीं. रोमन में नहीं. और इसका आग्रह भी उतनी ही विनम्रता से करते हैं. एक बड़े ऐक्टर को आपने आखिरी बार कब किसी शॉर्ट फिल्म में काम करते हुए देखा था? मैंने मनोज को देखा था. कुछ वक़्त पहले. ताण्डव में. नाच रहा था. जैस तीसरी आंख खुलने ही वाली हो. उसके बाद आउच में. एक बड़े ऐक्टर को यूट्यूब पर कविता पढ़ते आपने कब देखा था? मैंने मनोज को देखा. दुष्यंत कुमार को पढ़ते हुए. "हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए..." अपने अभिनय की शुरुआत कविताओं से हुई बताते हैं. मनोज बाजपेई चमकती हुई अजीबोगरीब दुनिया का हिस्सा होते हुए भी उससे काफी अलग हैं. हर फिल्म से मनोज जैसा कुछ भी न मिलने की उम्मीद उन्हें लगातार बेहतर करने को उकसाती जा रही है. तब जबकि टाइपकास्ट होना बहुत ही आसान है, मनोज मीलों दूर खड़े तमाशा देख रहे हैं और मुस्कुरा रहे हैं. जो प्रतिबद्ध है उससे अक्सर सवाल पूछे जाते हैं. लिहाज़ा मनोज से भी पूछे जाते हैं. ऐक्टिंग में राज करने की नीति को भली तरह से समझने के बाद वो हर बार यही कहते हैं - "क़रारा जवाब मिलेगा."

मनोज बाजपेई बेलवा, चंपारण से आते हैं. रामजस कॉलेज दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ के निकलने के बाद नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में 3 असफ़ल प्रयास. जिसके बाद 2-2 नेशनल अवार्ड. सत्या और पिंजर के लिए.
मनोज बाजपेई उस वक़्त एक बड़ा नाम बने हैं जिस वक़्त बड़े बनने के लिए आपके हाथों में एक ख़ास तरह का ब्रेसलेट, किसी डायरेक्टर से नजदीकियां, एक बड़ा बैनर, आस पास घूमती लड़कियां काफ़ी ज़रूरी होती हैं. मनोज को आज के मनोज बनाने में गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का बहुत बड़ा हाथ है. ऐसा नहीं है कि उसके पहले मनोज कहीं थे नहीं. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के पहले मनोज ने कई बेहतरीन परफॉरमेंस दी हैं. लेकिन मेनस्ट्रीम में उनकी वो धमक नहीं थी. हालांकि जितना वो डिज़र्व करते हैं, वहां से आज भी वो कोसों दूर हैं. खैर. बात 1998 की है. मनोज बाजपेई अपने प्रदेश बिहार में थे. पटना. फिल्म का प्रमोशन था. फिल्म थी तमन्ना. साथ में ही पूजा भट्ट और महेश भट्ट थे. वहां किसी पत्रकार ने उनके और पूजा भट्ट के बीच रिश्ते को लेके सवाल पूछ दिया. कुछ देर तक कोई जवाब नहीं. कोई आवाज नहीं. सब एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे. मनोज से जवाब की उम्मीद थी और उन्होंने दिया. वो उठे और एक तमाचा रसीद कर दिया. पत्रकार के मुंह पे. माहौल गरम हो गया. महेश भट्ट ने ठण्डा किया. मनोज उस भीड़ में कुछ चंद लोगों जैसे हैं जिन्होंने अपनी जड़ों को अभी तक बचा के रक्खा हुआ है. साथ ही हिंदी को भी. फ़िल्मी दुनिया में हिंदी लुप्तप्राय होती जा रही है. आईडिया आने से लेकर फ़िल्म की प्रमोशन तक सब कुछ अंग्रेजी में चलने लगा है. फिल्मों में इस विलुप्त होती भाषा को बचाने को कोई संस्था भी नहीं है. मगर मनोज हैं. किसी भी डायरेक्टर के साथ काम कर रहे हों, वो अपनी स्क्रिप्ट को हिंदी में मंगवाते हैं. अंग्रेजी में नहीं. रोमन में नहीं. और इसका आग्रह भी उतनी ही विनम्रता से करते हैं. एक बड़े ऐक्टर को आपने आखिरी बार कब किसी शॉर्ट फिल्म में काम करते हुए देखा था? मैंने मनोज को देखा था. कुछ वक़्त पहले. ताण्डव में. नाच रहा था. जैस तीसरी आंख खुलने ही वाली हो. उसके बाद आउच में. एक बड़े ऐक्टर को यूट्यूब पर कविता पढ़ते आपने कब देखा था? मैंने मनोज को देखा. दुष्यंत कुमार को पढ़ते हुए. "हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए..." अपने अभिनय की शुरुआत कविताओं से हुई बताते हैं. मनोज बाजपेई चमकती हुई अजीबोगरीब दुनिया का हिस्सा होते हुए भी उससे काफी अलग हैं. हर फिल्म से मनोज जैसा कुछ भी न मिलने की उम्मीद उन्हें लगातार बेहतर करने को उकसाती जा रही है. तब जबकि टाइपकास्ट होना बहुत ही आसान है, मनोज मीलों दूर खड़े तमाशा देख रहे हैं और मुस्कुरा रहे हैं. जो प्रतिबद्ध है उससे अक्सर सवाल पूछे जाते हैं. लिहाज़ा मनोज से भी पूछे जाते हैं. ऐक्टिंग में राज करने की नीति को भली तरह से समझने के बाद वो हर बार यही कहते हैं - "क़रारा जवाब मिलेगा."
जन्मदिन मुबारक मनोज बाजपेई.
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