दिल्ली से पंजाब की तरफ रेल या सड़क किसी से भी बढ़िए तो लगभग दो चौंकाऊ बातें दिखती हैं. दोनों तरफ दूर-दूर तक लहराते धान के खेत और उनकी खुशबू यह भ्रम पैदा कर सकती है कि कहीं धान उगाने, भात खानेवाले प्रदेश में तो नहीं पहुँच गए हैं. गेहूँ और रबी के इलाके का यह दृश्य चौंकाता है. जगह-जगह पम्प से पानी पटाते, खाद छींटते, धान रोपते-काटते लोगों पर भी गौर करिएगा तो वे भी पंजाब-हरियाणा के लम्बे-तगड़े लोग नहीं लगेंगे. धान के खेत तो दिल्ली से निकलते ही शुरू हो जाते हैं पर असली 'धनहर’ इलाका पानीपत-करनाल-अम्बाला से शुरू होता है और लगभग पूरे ही पंजाब में यह दृश्य दिखता है.
चौंकानेवाली दूसरी चीज है मुर्गी के दड़बे. जी.टी. रोड के किनारे, शहर से दूर-दूर बने ये दड़बे बदबू के एक झोंके के साथ तो ध्यान खींचते ही हैं, अपनी संख्या और आकार से भी चौंकाते हैं. अक्सर दो लम्बी पंक्तियों में बने इन दड़बों में ठूँस-ठूँसकर मुर्गियाँ भरी होती हैं. दड़बे के समूह में इतने से भी जगह पूरी नहीं पड़ती तो दो-तीन मंजिला निर्माण कराए गए हैं. ऊपर एक खंड से दूसरे में जाने के लिए 'फ्लाइओवर’ बने हैं.विशेष अध्ययनवाले गाँवों के मजदूरों को उनके स्वर्ग लुधियाना में ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब यह लेखक उनके 'क्वार्टरों’ पर पहुँचा तो लगा कि मुर्गी दड़बों को देखने-अनुभव करने का क्रम अभी नहीं रुका है. सात या आठ फुट लम्बे और इतने ही चौड़े कमरों की ठीक दड़बों जैसी पाँते इन जैसे मजदूरों के लिए भी बनवा रखी गई हैं. ये 'क्वार्टर’ भी ऐसे ही दो पंक्तियोंवाले हैं. बीच में थोड़ी आँगननुमा लम्बी खाली जगह है. दो दर्जन कमरों के पीछे एक हैंडपम्प, एक शौचालय है. ज्यादा हैं तो उसी अनुपात में इन 'सुविधाओं’ की संख्या भी ज्यादा है. अगर जगह कम पड़ रही हो तो कमरों को दो-तीन मंजिल तक उठा दिया गया है. लुधियाना के बाबा दीप सिंह कॉलोनी में, जिसे स्थानीय लोग भैया कॉलोनी कहते हैं, ऐसे 108 कमरों के तिमंजिले बाड़े का सर्वेक्षण इस लेखक ने भी किया, पर बी.एम.एस. के स्थानीय मजदूर नेता रामकृष्ण आजाद ने बताया कि कंगनवाल रोड पर 422 कमरों का बाड़ा पूरे शहर में सबसे बड़ा है. भाई दीप सिंह कॉलोनी, कंगनवाल रोड, गिल रोड, इंडस्ट्रियल एरिया, ट्रांसपोर्ट नगर, सिमराला चौक, फोकल प्वाइंट, हीरा नगर, मोती नगर, भगत सिंह कॉलोनी, शेरपुर, मुस्लिम कॉलोनी वगैरह में ऐसे ही बाड़े बने हैं. गैसपुरी से शिमलापुरी तक बसनेवाली नई बस्तियों में भी पुराने प्रवासी मजदूरों ने 35 वर्ग गज, 50 वर्ग गज जमीन लेकर कमरे डाले हैं. झुग्गियाँ डालकर रहने का क्रम अब शुरू हो रहा है और बढ़ता जा रहा है. पर अभी तक कम है. बाड़ा या बाड़ शब्द हिन्दी में एकदम अलग मतलब बताता है. पंजाबी में मजदूरों वाली इस तरह की रिहाइश को बाड़ा या बाड़ कहते हैं. यह शब्द आज पहली बार नहीं आया है. जब खुद पंजाब के लोगों ने पिछली सदी के अन्त और इस सदी के शुरू में दक्षिण-पश्चिम में बननेवाली नहरों से जुड़ी कॉलोनियों में रहना शुरू किया तो वे खुद भी उसे बाड़ा ही कहा करते थे. भैया मजदूर इन्हें क्वार्टर कहते हैं. और जब वे क्वार्टर, ड्यूटी, ओवर टाइम, लंच, ऑफ जैसे शब्द कहते हैं तो इनका सिर्फ एक सामान्य-सा अर्थ नहीं रहता. उस अर्थ में तो इन छह-सात लोगोंवाले एक कमरे को क्वार्टर नहीं कहा जा सकता. इन शब्दों के जरिए ये लोग एक सांस्कृतिक फासले को भरने की कोशिश भी करते हैं. यह फासला शहर-गाँव, बिहार-पंजाब, अमीर-गरीबवाला तो है ही, अपने गाँव के बड़े लोगों और अपने बीच के अन्तर का भी है. इन शब्दों को अगर वे उनके सही अर्थ में समझते तो उनको पाने की कोशिश भी करते. न्यूनतम मजदूरी, महँगाई भत्ता, प्राविडेंट फंड, ईएसआई, ग्रेच्यूटी, बोनस, छुट्टियाँ जैसी बुनियादी बातों की परवाह भी उन्हें नहीं होती. लुधियाना जैसे शहर में, जिसे पंजाब का मैनचेस्टर कहा जाता है, संगठित क्षेत्र में वर्षों से काम करने के बावजूद यह स्थिति थी. इन्हीं मजदूरों पर टिका है पंजाब का उत्पादन गाँव में मजदूरों से मिलने के बाद लुधियाना का उनका पता और पहुँचने का निर्देश लेने के बावजूद उन्हें ढूँढ़ लेना आसान नहीं था. कभी लोधियों के दो सामंतों द्वारा सतलुज के पास बसाई गई लोधियान बस्ती आज पंजाब ही नहीं, पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत में दिल्ली के बाद सबसे बड़ा शहर बन गई है और 14 लाख प्रवासी मजदूरों के चलते पंजाब में उत्पादन का सबसे बड़ा ठिकाना. और इसमें बड़े-बड़े को जब अपनी पहचान बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है तो फिर अनपढ़, पिछड़े, कमजोर, अकेले प्रवासी मजदूर को कौन पूछता है! अधिकांश पते किसी किराना दुकानदार या गली के डॉक्टर के मार्फत के होते हैं जिनकी सेवाएँ वे मजदूर लेते हैं. ये दुकानदार-डॉक्टर भी नाम और चेहरे, दोनों को एकसाथ देखे बगैर मजदूर को नहीं पहचान सकते. अपनी फैक्टरियों का पता ये लोग देते नहीं. सो दुकानदार-डॉक्टर को भी जब तक मजदूर के मूल जिले, उसके गाँव, उसके समूह, उसके काम के बारे में न बताया जाए, वे भी कोई मदद करने की स्थिति में नहीं रहते. जब इतने सारे विवरण और पृष्ठभूमि बताने पर उसको सही पते का अन्दाजा होता है तो वह आपको किसी बाड़े में भेज देगा या भिजवा देगा. उस बाड़े में अपने वांछित मजदूर का कमरा पता करने के लिए आपको फिर से यह सारी मशक्कत करनी पड़ती है.
और आप अगर भाग्यशाली हैं आप जिसे ढूँढ़ रहे हैं वह मजदूर ड्यूटी पर, ओवरटाइम पर नहीं है (जो बहुत आम है) तब ज्यादा सम्भावना है कि वह सोता हुआ ही मिलेगा. औसत 12-14 घंटे शारीरिक श्रम के बाद नई ऊर्जा पाने के लिए सोने से बेहतर उपाय उसके पास नहीं होता. हफ्ते में जिस दिन छुट्टी होती है उस दिन भी वह ओवरटाइम या फिर अपने परिचितों-मजदूरों भाई-बन्दों के यहाँ गया होता है.उसके कमरे में पहुँचते ही कई धारणाएँ एकसाथ ध्वस्त हो जाती हैं. ठीक-ठाक कमाई करता प्रवासी मजदूर हर माह अपने गाँव में जितनी औसत रकम (8000 से 12000 रुपए) भेजता है, उससे इस लेखक को ही नहीं, किसी को भी यह लगेगा कि वह कम-से-कम इसकी दूनी रकम कमाता ही होगा. परदेस में रहना, खाना, पहनना, ओढ़ना, आना-जाना, लखुत-पानी (बीड़ी-खैनी), देन-लेन सब लगा ही रहता है और आदमी लाख कम खर्च करे, आठ-दस हजार से कम मे क्या रहेगा. अपनी कमाई और रहने के बारे में ये लोग गाँव में कुछ ऐसा ही बताते भी हैं. पर पहुँचते ही लगा कि अपनी कमाई के बारे में डींग हाँकने का हक सिर्फ शहरी और पढ़े-लिखे लोगों को ही नहीं है. गाँव में कमाई और काम के बारे में शेखी दिखाने के पीछे भी कहीं न कहीं गाँव के बड़े लोगों से फासले को कम करके दिखाने की प्रवृत्ति भी काम करती है (और इसी एहसास के साथ पंजाब में प्रवासी मजदूरों से जुड़े पहलुओं पर हुए शोध कार्यों की उस गड़बड़ी का पता भी चला जिसमें आम तौर पर मजदूर को ज्यादा मजबूत आर्थिक पृष्ठभूमि से आया बता दिया गया है. गाँव का आदमी कमाई से भी ज्यादा जमीन से अपनी प्रतिष्ठा को जोड़कर देखता है.)

सुबह ही पेट भर लेना है
मुर्गे के बाँग देने के साथ ही उठ जाना है. रोटी बना लेनी है. जितने आदमी, उतने चूल्हे. नहा-धोकर भरपेट खा लेना है. चार-छह रोटी साथ ले लेनी है. 'लंच’ के समय छोले, सब्जी कुछ लेकर रोटी खा लेते हैं. दूध कोई नहीं लेता-महीने में एकाध बार मांस-मछली हो गई तो बहुत है. देर रात को घर लौटने पर भात या खिचड़ी बनती है. जितना खाया गया, खा लिया बाकी नाली या कुत्ते को समर्पित किया. बारह-चौदह घंटे काम की थकान सब भुला देती है. छुट्टी का दिन हो तो ताश हुआ, कीर्तन गाया. अब हर बाड़े में दो-एक परिवार भी दिखने लगे हैं. क्रम बदलता रहता है. पर अब कुछेक परिवार नियमित भी रहने लगे हैं. अपने गाँवों के मजदूरोंवाले गिल रोड के बाड़े में भी एक परिवार स्थायी रूप से रहता था, पर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है और परिवार का मुखिया फल का ठेला लगाता है. पूरे लुधियाना शहर के सारे प्रवासी मजदूर इसी तरह नहीं रहते. कुछ छोटे प्लाट लेकर मकान बनाकर भी रहने लगे हैं. कुछ ने झुग्गियाँ डालनी शुरू कर दी हैं. कुछ मालिकों की फैक्टरियों-दुकानों में भी रह लेते हैं. पर अधिकांश बाड़ों में ही रहते हैं. अनुपात और संख्या के हिसाब से देखें तो जमीन लेकर बसनेवालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश मैदानी दक्षिणी बिहारवाले ज्यादा निकलेंगे. झुग्गियों में राजस्थानी मजदूर होंगे जो आमतौर पर परिवार के साथ ही घर से निकलते हैं. बाड़ा या क्वार्टर वाली व्यवस्था में ज्यादातर बिहारी हैं. और ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि जिस दिन इन बाड़ों में ज्यादा परिवार और उनके साथ बकरी-सूअर जैसे जानवर भी आएँगे उसी दिन ये महामारियों का डेरा बन जाएँगे. अभी तो सफाई-नाली, फ्लश-शौचालय, स्नानघर वगैरह की व्यवस्था न होने पर भी सिर्फ अकेले मर्दों के रहने से थोड़ी-बहुत राहत रहती है. दिन भर घर खाली हो, बाड़ा खाली हो तो हवा-सूरज ही बहुत सफाई कर देते हैं. बाबा दीप सिंह कॉलोनी के जिस 108 कमरोंवाले वार्ड की चर्चा पहले की गई है उसमें करीब सवा चार सौ लोग थे. चारों ओर से घिरे इस बाड़े की छत पर दस शौचालय और दस हैंडपम्प थे. खुला होने से मजदूर शौच वगैरह के लिए बाहर भी जा सकते थे. इंडस्ट्रियल एरिया में स्थित 300 कमरों से अधिक का बाड़ा जवाहर बिल्डिंग, जो मुश्किल से पाँच सौ वर्ग गज के प्लाट पर बना होगा, मजदूरों के सुबह काम पर निकलते-निकलते कीचड़ से पूरा सन जाता है जिसमें मल-मूत्र, कचरा तो होता ही है, रात में बचे खाने का भी अपना हिस्सा रहता है. इसमें चार पैसे का डीडीटी कौन डालेगा, कोई नहीं जानता. सो ऐसे बाड़े को सूरज न साफ रखे तो क्या होगा? आप चाहे जिस बाड़े में जाइए, जिस बस्ती में जाइए, इन कमरों के मालिक नहीं मिलेंगे. ये अक्सर बड़े लोग हैं जिन्होंने बाड़ों का चार्ज आमतौर पर किरानावालों-राशनवालों को सौंप दिया है और वे हर महीने उन्हीं से पूरी रकम वसूल लेते हैं. किरानावालों का स्वार्थ है कि जो बाड़ा उनके नियंत्रण में रहता है उसके सभी किराएदारों को उनकी दुकान से ही राशन और अन्य सामान लेना अनिवार्य होता है. इसमें गड़बड़ का मतलब है, अगले ही दिन कमरा छोड़ना. अनिवार्यता में मुनाफाखोरी की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है. जिस 108 कमरेवाले बाड़े का जिक्र पहले किया गया है वहाँ कुल 413 लोग रहते मिले और सिर्फ इन सबकी खरीदारी से ही कितना मुनाफा एक जगह से होता होगा, यह समझा जा सकता है. बीस साल पहले यहाँ वही चावल नौ रुपए किलो था जो वैसे साढ़े सात-आठ रुपए में मिल रहा था. आज बाजार में चावल 28-30 रुपए है तो यहाँ 35 से कम नहीं है. खुले बाजार में जब मिट्टी का तेल 8 रुपए लीटर था तो यहाँ दस रुपए लीटर. आज यह भी 65 रुपए लीटर है जो एक सप्ताह चल जाता है. शायद ही किसी मजदूर का राशन कार्ड बना होगा, सो राशन की दुकान से नियंत्रित मूल्य पर सामान लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता.यह लुधियाना का हाल है. 40 लाख आबादीवाले इस काफी हद तक शहरी बन गए जिले में प्रवासी मजदूरों की संख्या अनुमानत: 14 से 15 लाख तक की है. कोई भी सरकारी सर्वेक्षण रिकॉर्ड नहीं है. किन्हीं दो-चार लोगों या एक शोधार्थी के वश की बात नहीं है. प्रवासी मजदूरों से जुड़े जो अध्ययन छोटे नमूनों के आधार पर भी हुए हैं, वे गाँवों के ही हैं. प्रवासी औद्योगिक मजदूरोंवाला कोई अध्ययन हुआ ही नहीं है.लुधियाना में बिहारी प्रवासी मजदूर हर काम में नहीं हैं. जैसे यहाँ के साइकिल उद्योग में उनका अनुपात उतना नहीं है जितना हौजरी में या लोहे के पुर्जे वगैरह बनाने में. रिक्शा चलानेवालों में भारी बहुमत में हैं, तो ठेला-रेहड़ी, छोटी दुकान लगाने के मामले में एकदम कम हैं. दिल्ली की तरह यहीं की दुकानों पर सहायक के तौर पर प्रवासी मजदूरों को रखने का चलन अभी ज्यादा नहीं हुआ है.
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