ऑल इंडिया रेडियो लाहौर के दिनों में मीडिया के बाकी लोगों के साथ ओम प्रकाश (दाएं, बैठे हुए).
यही वो वक्त था जब एक रॉयल फैमिली की सिख लड़की से मेरा रोमांस शुरू हो गया था.
हर रोज़ अपना प्रोग्राम खत्म करने के बाद मैं उससे एक पान की दुकान पर मिलता था और फिर हम दोनों वॉक पर जाते थे. हम दोनों प्यार करने लगे थे और मैं उससे शादी करना चाहता था. मेरे बड़े भाई ने शादी करने से मना कर दिया था तो मां ने मुझसे कहा कि तुम ही कर लो. गुजरने से पहले वो अपने किसी एक बेटे को तो शादीशुदा देखना चाहती थी. तब मुझमें हिम्मत नहीं थी कि अपने रोमांस के बारे में उनको बताता. लेकिन मैं ये भी जानता था कि अगर उनको इसका पता चलता तो वो इस लड़की से मेरी शादी पर आपत्ति नहीं करतीं जिसको मैं प्यार करता था. उस लड़की के घरवाले मेरे बड़े खिलाफ थे क्योंकि मैं हिंदू था.
एक दिन मैं पान की दुकान पर खड़ा था कि एक महिला मेरे पास आईं. वे बोलीं कि विधवा हैं और उनके चार बेटियां हैं जिनमें सबसे बड़ी 16 साल की है. वो मुझे दामाद बनाना चाहती थीं और ये भी कहा कि एक बार उनकी पहली बेटी की शादी हो जाए तो बाकियों की भी कर सकेंगी. उन्होंने इस बारे में मेरी मां से भी बात कर ली थी और मां कह चुकी थीं कि कोई दिक्कत की बात नहीं. उन्होंने मेरे आगे अपना पल्लू फैलाया और विनती की कि मैं मान जाऊं.
मैं भावुक हो गया था और उनके कहे मुताबिक तुरंत हां कर दी. अगले दिन मैं उस लड़की से मिला और उसे बताया कि क्या हुआ. मैंने उससे कहा कि अब यही ठीक होगा क्योंकि वैसे भी उसका परिवार मेरे बिलकुल खिलाफ था. जैसे ही उसने ये सुना वो दोनों हाथों से सिर पकड़कर फुटपाथ पर बैठ गई. कुछ देर बाद वो अपने घर चली गई. लेकिन वो मेरी शादी में भी आई. आज वो दादी बन चुकी है और अपनी शादीशुदा जिंदगी में खुश है.
मेरी धर्मपत्नी अमृतसर में रहती थी और मैं लाहौर में था. एक दिन मैंने अपने भाई से कहा कि वो जाए और अपनी भाभी को ले आए. वहां उसने मेरी पत्नी की बहन को देखा और उसके प्रेम में पड़ गया. मैंने अपने पिताजी को ये बताया और जल्द ही उन दोनों की शादी कर दी गई.
उधर रेडियो स्टेशन पर मैं डायलॉग बोलने के अपने उस्ताद सैय्यद इम्तियाज अली से मिला. वो शानदार लेखक थे. उन्होंने ही नाटक 'अनारकली' (1922) लिखा था. फिर मैंने ऑल इंडिया रेडियो से इस्तीफा दे दिया क्योंकि वो मुझे सिर्फ 40 रुपये की तनख़्वाह दे रहे थे जबकि उस टाइम में चपरासियों को इससे ज्यादा मिल रहा था. लेकिन फिर भी मैं प्रेम-भाइचारे के साथ उनसे अलग हुआ.
फिल्मों में मेरी एंट्री भी संयोग भरी थी. जैसे मैंने कहा कि मैं जहां भी जाता हूं बहुत मस्ती-मजाक और हंगामा करता रहता हूं. मैं अपने दोस्त की शादी की पार्टी में था. नाच रहा था, हंस रहा था, मजे कर रहा था कि लाहौर के एक बड़े प्रोड्यूसर दलसुख पांचोली ने मुझे देखा. शादी के बाद मैं अपने अंकल के घर जम्मू चला गया था जहां पर मुझे एक टेलीग्राम मिला. इसमें लिखा था: "तुरंत आओ - पांचोली." मुझे पक्का यकीन था कि मेरे दोस्त मेरे साथ मज़ाक कर रहे हैं. लेकिन मेरे चाचा लोग और भाइयों ने मुझे जाने के लिए समझाया.
तो मैं लाहौर पहुंचा. रेलवे स्टेशन से मैंने पांचोली को फोन किया. लेकिन उन्होंने कहा कि वो किसी ओम प्रकाश को नहीं जानते.
मैंने फिर तय किया कि जम्मू लौट जाऊंगा. उसी रात की मैंने टिकट भी करा ली. खाली वक्त गुजारने के लिए मैं अपने कुछ दोस्तों से मिला और अपनी पसंदीदा पान की दुकान पर गया. वहां मैं प्राण से मिला जो तब एक्टर नहीं बने थे. उन्होंने बताया कि पांचोली ने ही मुझे टेलीग्राम भेजा था, बस बात इतनी सी थी कि वो मुझे ओम प्रकाश नाम से नहीं पहचानते थे. वो मुझे फतेह दीन के रूप में जानते थे.
उसके बाद मेरा परिचय उनके चीफ प्रोडक्शन मैनेजर राम नारायण दवे से करवाया गया. उन्होंने उनकी फिल्म दासी (1944) में एक्टिंग करने के लिए मुझे 80 रुपये महीना की तनख़्वाह पर रख लिया. मेरा रोल एक कॉमिक विलेन का था. वो फिल्म जाकर सुपरहिट हुई. लेकिन फिर जल्दी ही मुझे टेलीग्राम मिला कि मेरी सेवाओं की अब और जरूरत नहीं है. मैं भौचक्का रहा गया. मुझे लगा था कि पांचोली स्टूडियोज़ के साथ मैं कम से कम एक साल तक रखा जाने वाला हूं. ख़ैर, मैंने उस टेलीग्राम पर "शुक्रिया" लिखा और भेज दिया. कुछ महीनों के बाद मैं (लाहौर के प्लाजा सिनेमा में बने) बार में अपने दोस्तों के साथ बैठा था कि दवे वहां आए. उन्हें मुझे वहां देखकर बड़ी हैरानी हुई. बोले कि "तुम गायब क्यों हो गए थे?" मैं चौंककर बोला, गायब हो गया था? आपके जनरल मैनेजर ने मुझे निकाल दिया था!
फिर वो बोले, "भाड़ में जाए जनरल मैनेजर. कल सुबह ऑफिस आ जाओ." वे चाहते थे कि मैं उनको फिर से जॉइन करूं. इस बार सैय्यद इम्तियाज अली ने उनके लिए स्क्रिप्ट लिखी थी. फिल्म का नाम था 'धमकी' और मैं मेन विलेन का रोल कर रहा था. पहले जितनी ही तनख़्वाह पर. पांचोली जी को हर दिन की शूटिंग के रशेज़ देखने की आदत थी और एक बार देखकर बोले, "मुझे ओम प्रकाश पसंद है, वो अच्छा एक्टर है."
मुझे फिर और लोगों ने कहा कि पैसे बढ़ाने के लिए उनसे कहना चाहिए. क्योंकि फिल्म में जो लोग थे वो 2000 रुपये या इससे भी ज्यादा पा रहे थे. मैं उनके ऑफिस गया और उन्होंने फिर से मेरे काम की तारीफ की. मैंने उनसे बोला, "सर, मैं यहां हीन भावना से काम कर रहा हूं क्योंकि मुझे सिर्फ 80 रुपये मिल रहे हैं." पांचोली जी ने दवे को बुलाया और पूछा कि उनके निर्देश के मुताबिक मुझे 500 रुपये की शुरुआती सैलरी क्यों नहीं दी जा रही है? गुस्से में उन्होंने चैक लिखा और मेरे हाथ में थमा दिया. मुझे लगा कि 250 रुपये के करीब होगा लेकिन खोलकर देखा तो करीब-करीब बेहोश हो गया. ये 1000 रुपये का चैक था!
मैं जम्मू गया और ये चैक अपने पिताजी के चरणों में रख दिया. वो बहुत खुश थे कि मैं फिल्मों में इतना अच्छा कर रहा था. फिल्म 'धमकी' भी बहुत बड़ी हिट हो गई. सन, 1946 में दंगे शुरू हो गए और घोषणा हो गई कि लाहौर पाकिस्तान में रहेगा. बहुत ख़ून-ख़राबा हो रहा था. हर तरफ आग लगी हुई थी. मैं अपने परिवार, बड़े भाई के बीवी-बच्चों और छोटे भाई के परिवार के साथ फंस गया था. लाहौर रेलवे स्टेशन तक पहुंचने के लिए हमें मुसलमानों की आबादी वाले इलाकों से गुजरना था. तो एक मुसलमानों का परिवार था जिसने हमें बचाया और रेलवे स्टेशन तक पहुंचाया.
लाहौर में ओम प्रकाश जी का घर. फोटो: लाहौरनामा.
स्टेशन भीड़ से खचाखच भरा हुआ था. लोग टिकटों के लिए आसमान छूती कीमत देने के तैयार थे. मेरे बड़े भाई पीछे ही रुक गए. अब इतनी सारी महिलाओं और बच्चों के साथ मैं अकेला ही था. लाहौर छोड़ने के दो ही रास्ते थे. पहला, हम जम्मू जा सकते थे और दूसरा हम अमृतसर जा सकते थे. हमने दूसरा रास्ता चुना. स्टेशन पर मैं मशहूर हॉकी खिलाड़ी नूर मोहम्मद से मिला. मैं उनको लाहौर से जानता था. वो हमें पटरियों के जरिए लेकर गए और हम वहां खड़ी रेल पर चढ़े. एक घंटे के बाद रेलगाड़ी ने चलना शुरू किया और अमृतसर पहुंची तो हमने राहत की बड़ी सांस ली. फिर हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए. वहां से वृंदावन जाकर रहने लगे.
एक बार मसूरी में मैं अपने दोस्त के पास रुका हुआ था तो मुझे बी. आर. चोपड़ा का टेलीग्राम मिला. मैंने लाहौर में उनके साथ एक फिल्म साइन की थी. उन्होंने कहा कि वे बंबई में वो फिल्म बनाना चाहते हैं. मेरे पास खुद के रहने की कोई जगह नहीं थी. कभी एक तो कभी दूसरे दोस्त के पास रुक रहा था. इसी बीच बी. आर. चोपड़ा पंजाब चले गए, ये वायदा करके कि जल्दी ही आ जाएंगे. तो फिर मैं नकसब से मिला जो एक बहुत ही शानदार गीतकार थे. उन्होंने मेरी बहुत ही मदद की और मुझे शशधर मुखर्जी के पास लेकर गए.
अब तक मेरे पास जो भी पैसे थे पूरी तरह खत्म हो चुके थे और बी. आर. चोपड़ा के आने का अभी तक कोई आसार न था. मैं भूखों मर रहा था और मैंने चोपड़ा को ख़त लिखा कि पहले तो खुद मुझे बंबई बुलाया और फिर भूखा मरने के लिए छोड़ दिया. क्या लौटने का कोई इरादा भी है? बी. आर. चोपड़ा का जवाब ऐसा था कि मैं अंदर तक हिल गया. उसने लिखा था, "अगर तुम भूखे मर रहे हो तो ये मेरी गलती नहीं है. तुम कुत्ते की तरह एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो भटक रहे हो. इतने में तो तुम्हे व्यस्त हो जाना चाहिए था." अगर वो मेरे सामने होता तो मैं उसे जान से मार देता.
जालंधर रेडियो ने मुझे काम का ऑफर दिया लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि बंबई में ही रहूंगा और कुछ बड़ा करके दिखाऊंगा. फिर मैं खुशीराम से मिला जिन्होंने मुझे रुकने के लिए एक छोटा सा कमरा दिया. मैं अपनी पत्नी को रोज़ लिखता था कि मैं बहुत खुश हूं. लेकिन चीजें आगे नहीं बढ़ रहीं और मैं बेरोज़गार हूं.
मैं हनुमान जी का बहुत बड़ा भक्त हूं और एक दिन बहुत निराश होकर मैंने भगवान को गाली दी. मैंने धमकी दी कि अगर मुझे करने को कुछ काम न मिला तो मैं अगले दिन उनकी मूर्ति खिड़की से बाहर फेंक दूंगा.
और उसके अगले ही मिनट मेरे दरवाजे पर दस्तक हुई. एक आदमी था. उसने कहा कि वो बॉम्बे लैब से आया है और उसके पास महात्मा गांधी की दो रील हैं जिनकी तब हत्या कर दी गई थी. वो एक पंजाबी कमेंटेटर चाहते थे और कृष्ण चंदर ने मेरा नाम उन्हें सुझाया था. मैंने रीलें देखीं और तुलना की. कमेंट्री बहुत ही रूखी थी. मैंने कहा कि मैं लिखता हूं अगर उनको पसंद न आए तो मैं पहली वाली में से पढ़ दूंगा. वो मान गए. मैंने उनसे बन-मस्का और सिगरेट का एक पैकेट लाने को कहा जिसके बाद मैं लिखने के लिए बैठा. बस 45 मिनट में वो पीस तैयार था.
मैंने उनसे कहा कि रील एक बार फिर चलाएं. वो पहले मेरी कमेंट्री सुनने वाले थे और उसके बाद उसे रिकॉर्ड करने वाले थे. मैंने जो लिखा था उसे पढ़ा और जब तक मैंने खत्म किया, सन्नाटा छा चुका था. जब तक मैंने बोलना खत्म किया मैं रो रहा था और कमरे में मौजूद हरेक शख्स भी. मैंने उनको कहा कि अब वो रिकॉर्ड कर सकते हैं तो वे बोले कि वे रिकॉर्ड कर भी चुके हैं. उन्होंने मुझे अच्छे पैसे दिए. मैं टैक्सी लेकर अपने कमरे गया और भगवान के आगे दोनों हाथ जोड़कर उनका शुक्रिया कहा.
कुछ दिन बाद मैं फिर कंगाल हो चुका था. तब खुशीराम और कुछ अन्य ने मिलकर एक कमरा खरीदने का फैसला किया. हर कोई 500 रुपये दे रहा था और मेरे पास पैसा नहीं था. हर शाम मैं एल्फिनस्टोन से चर्चगेट तक ट्रेन से जाया करता था.. एक शाम मैं रामदास चंद किशोर से मिला. बचपन से ही हम बहुत करीब थे. मैंने चॉल में एक कमरा खरीदने के लिए उससे पैसे उधार लिए. कम से कम इसमें छत तो थी.
बाद में जब मैं बड़ा आदमी बन गया था, वो बुरे वक्त से गुजर रहा था. मैंने उसे कलकत्ता से बंबई बुलाया और उसके लिए कपड़े की एक बड़ी दुकान स्थापित करवाई. मैं कभी नहीं भूल सकता कि मेरी मुश्किल घड़ी में उसने मेरी मदद की थी.
एक दिन रेल में सफर कर रहा था. दो आदमी मेरी सामने वाली सीट पर बैठे थे. जल्दी ही वो मेरी ओर मुस्कराने लगे. जब मैंने उनसे पूछा क्यों तो वो बोले कि उन्होंने लाहौर में मेरी दोनों फिल्में - 'दासी' और 'धमकी' देखी हैं और मुझे पहचान लिया. उनमें से एक राजेंद्र कृष्ण था और एक ओ. पी. दत्ता. जल्द ही मैं राजेंद्र कृष्ण के बहुत करीब आ गया और हम अकसर मिलने लगे. कभी-कभार हम ड्रिंक के लिए बार जाया करते थे. वहां वो मुझे हमेशा ड्रिंक ऑफर करते थे लेकिन मैं मना कर देता था ये कहते हुए कि मैं सिर्फ विस्की पीता हूं और उन्हें ड्रिंक ऑफर करने की स्थिति में नहीं हूं. जिस दिन मैं उस स्थिति में आया, मैं उनकी ड्रिंक लूंगा.
मैं राजेंद्र कृष्ण को बहुत पसंद करता था लेकिन ओ. पी. दत्ता मुझे नापसंद था. यहां तक कि आज भी है.
जब राजेंद्र घर जाता था तो मैं भी उसके साथ बिल्डिंग तक पैदल जाता था. लेकिन मैं उसके घर में नहीं जाता था. एक दिन वो अपने आप को रोक नहीं पाया और बोला, "मैं जानता हूं कि तुम भूखे हो. मैं अच्छे पैसे कमा रहा हूं. मैं हर हफ्ते तुम्हे 50 रुपये दूंगा. कम से कम कुछ खा लो." मैंने मना कर दिया. लेकिन मैं पूरी जिंदगी उसका ये भाव कभी नहीं भूलुंगा. मुझे पता था कि एक दिन मैं बहुत चमकूंगा और मैंने उससे कहा कि आइंदा कभी ऐसी पेशकश मुझे न करें. हमारी दोस्ती बाद में भी बनी रही.
कुछ हफ्तों के बाद राजेंद्र मेरे पास आया और कहा कि ओ. पी. दत्ता एक फिल्म डायरेक्ट कर रहा है और मुझे उससे मिलना चाहिए. मैंने कहा, "ओ. पी. दत्ता को पता है कि मैं काम की तलाश कर रहा हूं. अगर उसे लगता है कि उसे मेरी जरूरत है तो वो मेरे पास आएगा. मैं उसके पास नहीं जाऊंगा और काम की भीख नहीं मांगूंगा. और इसके अलावा वैसे भी मुझे वो आदमी पसंद नहीं है."
एक बार ऐसा हुआ कि मैंने तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया था. मैं खोदादाद सर्किल पर खड़ा था और मुझे चक्कर से आने लगे. इस डर से कि बेहोश होकर गिर न जाऊं मैं पास ही के एल्फिनस्टोन होटल में चला गया. वहां मैंने बिरयानी, चिकन मसाला और लस्सी ऑर्डर की..
मैं एक केबिन में बैठा था. इन होटलों में ये सिस्टम होता था कि कस्टमर जाने लगे तो उसके बिल की राशि कितनी है उसकी आवाज आती है. जैसे ही मैं जाने लगा तो आवाज आई 16 रुपए. तब के दिनों में ये बहुत बड़ी राशि होती थी. मैं मैनेजर के पास गया और उसकी नेम प्लेट पढ़ी जिस पर मि. मेहरा लिखा था. मैंने उससे कहा, "मैं बेरोज़गार हूं और तीन दिन से कुछ नहीं खाया था. मैं अपने आपको और नहीं रोक पाया तो यहां आया और खाना खा लिया. लेकिन मैं वायदा करता हूं कि जिस दिन बड़ा आदमी बन जाऊंगा, यहां आऊंगा और बिल चुका दूंगा." मेहरा इससे इम्प्रेस नहीं हुआ लेकिन उसने मुझे जाने दिया.
मैंने ईश्वर और नियति में हमेशा यकीन किया है. मैं दादर के श्री साऊंड स्टूडियो में अकसर जाता था और वहां लोगों को हंसाते हुए अच्छा समय बिताता था. एक दिन (मार्च, 1948 में) डायरेक्टर जयंत देसाई ने मुझे बुलाया और कहा कि उनकी फिल्म (लखपति) में मेरे लिए विलेन का रोल है. मैं मान गया, ये सोचते हुए कि वो मुझे 250 रुपए देंगे. लेकिन मैं बहुत खुश हुआ जब उन्होंने मुझे 1000 रुपए का एडवांस दिया और 5000 रुपए महीना पर मुझे साइन कर लिया. उन्होंने सोचा कि मेरे पास बैंक खाता है लेकिन मैंने उनसे कहा कि वे मुझे धारक चैक दे दें. मैंने एल्फिनस्टोन स्थित एक बैंक से इसे भुनाया और पहला काम ये किया कि उस होटल में गया. होटल मालिक ने मुझे पहचाना नहीं लेकिन मैंने याद दिलाया और वो बिल चुकाया.
फिर एक कैब लेकर खुशीराम के पास गया और उसे महंगे लंच पर लेकर गया. मैंने तीन महीने से एक सिगरेट तक नहीं पी थी इसलिए एक सिगरेट की दुकान पर गया और 100 पैकेट सिगरेट के खरीदे! मैं एक तरह से पैसे यहां-वहां फेंक रहा था और एक महीने में ही सब खत्म हो गया. फिल्म तीन महीने के लिए आगे खिसक गई और मैं फिर से वहीं आकर खड़ा हो गया.
कुछ शामों में मैं अपने कमरे के बाहर चटाई बिछा लेता था और अपने दोस्तों के साथ मस्ती-मजाक करता था. एक शाम को मुझे जयमणि दीवान ने बुलाया. मैं उनके स्टूडियो गया. वो एक पंजाबी फिल्म (चमन) बना रहे थे और चाहते थे कि मैं उसमें काम करूं. वो मेरी फीस जानना चाहते थे. मैं अभी तक 5000 रुपये के ख़याल में अटका था तो ये रकम बता दी. वो सब दंग रह गए. प्रोड्यूसर ने तिरस्कार करते हुए कहा, "तुम भूखे मर रहे हो और देखो फिर भी कितनी ऊंची रकम मांग रहे हो. हम तुम्हे 350 रुपए देंगे." मैं गुस्से में आगबबूला हो रहा था. मैंने उसे बुरा भला कहा और बोला, "मैं भूखा मर रहा हूं तो मैंने तुमसे तो कभी नहीं कहा था कि मुझे खाना खिलाओ. मैं मुफ्त का खाने वालों में कभी नहीं रहा हूं. मैंने तुमसे काम नहीं मांगा था. मैंने तो तुम्हारे दफ्तर की चाय तक नहीं पी है." फिर मैं उसके दफ्तर से बाहर निकल गया.
जब तक मैं स्टूडियो के दरवाजे तक पहुंचा, उन्होंने मुझे वापस बुलाने के लिए चपरासी को भेजा. लेकिन मैंने तब तक उस प्रोड्यूसर से बात करने से मना कर दिया जब तक वो मुझसे माफी नहीं मांगता. उसने माफी मांगी और उसके बाद मैंने फिल्म साइन की. ये फिल्म जाकर बहुत बड़ी हिट हुई. उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा.
इसके तुरंत बाद मैंने अपनी पत्नी को बंबई बुला लिया. मेरे भाइयों और उनके बच्चों को भी. मैंने अपने भाइयों के लिए फिल्में बनाईं. उनको प्रोड्यूसर बनाया. खुशीराम की मृत्यु हो गई और उसके बच्चों को मैंने बड़ा किया. उसकी बेटी को मैंने अपनी बहू बनाया.
मैंने इस इंडस्ट्री में 50 साल से ज्यादा तक काम किया. फिर एक्टिंग करनी बंद कर दी जब एकाएक मैंने अपने पूरे परिवार को खो दिया. एक साल में ही मेरे बड़े भाई बख्शीजंग, मेरी पत्नी प्रभा, बहनोई लालाजी और मेरे छोटे भाई पाछी सबकी मौत हो गई. मेरे सभी साथी भी एक-एक करके चले गए. आगा, मुकरी, गोप, मोहनचोटी, कन्हैयालाल, मदनपुरी, केश्टो मुखर्जी सब. तो मेरी जिंदगी में कोई खुशी नहीं बची थी. अब मेरे भाई के बच्चे मेरे साथ रहते हैं और मुझे खुश रखते हैं. लेकिन मैंने महसूस किया है कि खाली बैठे रहने बहुत ही बोरिंग हो जाता है. इसलिए मैंने टीवी सीरियल कुबूल करना शुरू कर दिया है.
मैं इस इंडस्ट्री में बहुत खुश रहा हूं जहां मैंने इतना प्यार और इतनी इज्जत पाई है. मैंने कन्हैया और गेटवे ऑफ इंडिया जैसी फिल्में डायरेक्ट की हैं. ये मैं ही था जिसने फिल्मों में गेस्ट रोल का चलन शुरू किया था. मैं संतुष्ट और खुश हूं."
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चार साल बाद 21 फरवरी 1998 में उनकी लीलावती अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई. आखिरी दिनों में वे बीमार रहने लगे थे और जानते थे कि नहीं बचेंगे लेकिन अपनी जिंदादिली नहीं छोड़ी. वो अपने दोस्तों को बुला लिया करते थे और उनके साथ गप्पें मारते थे या रम्मी खेलते थे. रूप तारा स्टूडियोज़ में उनका ऑफिस था जिसका इस्तेमाल वे इसी के लिए करते थे. बाद में उन्होंने अपना ऑफिस बदल लिया ताकि दोस्तों को सहूलियत रहे. वे स्वस्थ रहे तब तक ऑफिस जाते थे. ज्यादा बीमार रहने लगे तो अपने बंगले तक ही सीमित हो गए. उनका बंगला मुंबई के चेंबूर में यूनियन पार्क स्थित था. अशोक कुमार के बंगले के पास. यहीं 78 की उम्र में उन्हें दिल का दौरा पड़ा. अस्पताल में दूसरा दौरा पड़ा और वो कोमा में चले गए जिससे बाहर नहीं आ पाए.
ओम प्रकाश जी कला का सम्मान और उनके लिए आदर हमेशा रहेगा.
उनका कोई वीडियो इंटरव्यू नहीं मिलता है. तबस्सुम ने एक बार उनसे बात की थी जिसकी एक मिनट की फुटेज यहां देख सकते हैं.
अनुपम. ऐसे लोग अब नहीं होते.