जापान के सेल(कोशिका) बायोलॉजिस्ट योशिनोरी ओह्सुमी को 2016 का नोबेल प्राइज मिला है. मेडिसिन के लिए. योशिनोरी 1992 से 'ऑटोफेजी' पर रिसर्च कर रहे थे. 'ऑटोफेजी' मतलब सेल्फ-ईटिंग. मतलब खुद को खुद ही खा जायें. सुन के तो डर ही लग रहा है. कौन खाता है खुद को?
नोबेल प्राइज का हमेशा यही हाल रहता है. अचानक से पता चलता है कि एक बूढ़े इंसान को मिला है. वो साठ साल से रिसर्च कर रहा है एक ऐसी चीज में जो उसे छोड़ किसी और को समझ नहीं आती. हम लोग याद कर लेते हैं नाम. वैज्ञानिक का. जीके के लिए. पर ये वाली खोज बहुत धांसू है.
इस रिसर्च की मदद से इंसान को ये पता चल सकता है कि हमेशा जवान कैसे रहा जाये. जिन्दा रहते हुए. मतलब कभी ना मरें! पर खुद को खा के कैसे होगा? तब तो नाखून चबाने वाले थोड़ा ज्यादा जिन्दा रहते होंगे?
स्कूल में सबने पढ़ा था कि शरीर कोशिका से बना होता है. कोशिका धीरे-धीरे बूढ़ी हो जाती है और इंसान भी बूढ़ा हो जाता है. पर इसके पहले कोशिका टूट-फूट का खुद ही इलाज कर लेती है. बैक्टीरिया और वायरस से लड़ने के लिए टूट जाती है और प्रोटीन, एनर्जी सब निकाल के हथियार बना लेती है. यहां तक कि जब भूख लगी हो और खाना नहीं मिलता उस समय भी कोशिका खुद ही टूट के एनर्जी पैदा कर लेती है. थोड़ी देर तक राहत रहती है. जब दिक्कत कोशिका की लिमिट से बाहर हो जाती है तो दवा लेनी पड़ती है.
50-60 के दशक में ही पता चल गया था कि ऐसा होता है. पर ये नहीं पता था कि कैसे होता है. योशिनोरी ने यही पता लगाया है. खमीर पर प्रयोग कर के. खमीर वही जो ब्रेड बनाने के काम में आता है. खमीर पर बहुत प्रयोग होते हैं. मानव-सभ्यता इनका एहसान नहीं भूलेगी. एक दिन खमीर को शांति का नोबेल प्राइज जरूर मिलेगा.
Yoshinori Ohsumi: Reuters
पार्किंसन बीमारी, अल्झाइमर सबमें कोशिका का ये काम बिगड़ जाता है. मतलब वो
टूट-फूट के इलाज नहीं कर पाती. कैंसर में तो कुछ अलग ही होता है. बहुत ख़राब बीमारी है. इसमें कैंसर कोशिका खुद ही टूट-फूट के किसी इलाज से खुद को बचा लेती है और कैंसर बढ़ते रहता है.
लेकिन अब कोशिका के काम को समझ तो लिया ही गया है. अगर थोड़ी मदद कर दी जाये तो ये इन बीमारियों का सामना भी कर लेगी. भूख-प्यास का भी सामना कर लेगी. भूख-प्यास पर विजय पा ली जाये तो फिर क्या कहना! बस खंडाला चलेंगे. मजे करेंगे. वैसे खंडाला में कुछ है नहीं. कुछ लम्बा सोचना पड़ेगा.
Baby Yoshinori
योशिनोरी का जन्म हुआ था 1945 में. उसी साल जापान पर एटम बम गिराया गया था. तबाही के लिए. और आज 71 साल बाद लोगों को ताउम्र जिन्दा रखने की कवायद में योशिनोरी को नोबेल प्राइज मिल रहा है. खमीर की मदद से. ये एकदम किस्से-कहानी वाली बात है.
योशिनोरी ने पढ़ाई की शुरुआत केमिस्ट्री से की थी. पर मन उब गया. लगा कि इसमें ज्यादा स्कोप नहीं है. तो मॉलिक्यूलर बायोलॉजी पढ़ने लगे.
इसमें योशिनोरी ने पीएचडी कर ली. पर इनकी थीसिस को बहुत अच्छा नहीं माना गया था. इसलिए नौकरी नहीं मिली. बहुत फ्रस्ट्रेट हो गए थे. फिर एक जगह यीस्ट(खमीर) पर रिसर्च करने लगे. बहुत बड़ा प्रोजेक्ट नहीं था. ऐसे ही था. पर इसी काम की बदौलत वो टोक्यो यूनिवर्सिटी पहुंच गए जूनियर प्रोफेसर बनकर. और को एक बार उन्होंने माइक्रोस्कोप उठाया वो आज उनको नोबेल तक ले के आया है. साथ वाले कहते हैं कि इनके बिना ये फील्ड ही एक्जिस्ट नहीं करता.
10 दिसम्बर 2016 को योशिनोरी को लगभग 60 करोड़ रुपये मिलेंगे बतौर प्राइज. सुनकर योशिनोरी मुस्कुराने लगे थे. चौंक भी गए. बोले: मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि सम्मानित महसूस कर रहा हूं.
जब योशिनोरी को नोबेल मिला है तो कुछ लोगों को पछाड़कर ही मिला है. इसके सबसे मजबूत दावेदार थे कैंसर के खिलाफ खोज करनेवाले. ये लोग कैंसर की कोशिकाओं पर अटैक करने की तरकीब पर रिसर्च कर रहे थे. इनके ऊपर योशिनोरी को नोबेल दिया जाना बेसिक्स की कीमत करना है.
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