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सुप्रीम कोर्ट का वो फैसला जिसके चलते आरक्षण 50% से ज्यादा बढ़ ही नहीं सकता

20 जून 2024 को पटना हाई कोर्ट ने Bihar Government के आरक्षण सीमा को 65 फीसदी तक करने वाले फ़ैसले को रद्द कर दिया. हाई कोर्ट ने आला अदालत के एक ऐतिहासिक फ़ैसले के आधार पर ये फ़ैसला सुनाया: 'Indra Sawhney & Others v. Union of India'. इसी केस में आरक्षण के लिए 50% की कैप वाली बात पुष्ट की गई थी.

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एक केस की वजह से सरकारें अपने चुनावी वादे नहीं पूरे कर पा रही. (फ़ोटो - PTI)

अक्टूबर, 2023 में बिहार सरकार ने जातिगत सर्वे करवाया था. सर्वे के बाद नीतीश सरकार ने आरक्षण सीमा को 50 फ़ीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी करने का फ़ैसला किया था. शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में SC-ST, EBC और अन्य पिछड़े वर्गों को 65 फीसदी आरक्षण दे दिया गया था. मगर बीते रोज़, 20 जून को पटना हाई कोर्ट ने बिहार सरकार के फ़ैसले को रद्द कर दिया. अदालत ने तर्क दिया कि मेरिट को पूरी तरह से मिटाया नहीं जा सकता और न ही मुआवज़े के एवज में उसकी बलि चढ़ाई जानी चाहिए.

हाई कोर्ट ने आला अदालत के एक ऐतिहासिक फ़ैसले के आधार पर ये फ़ैसला सुनाया: 'इंदिरा साहनी केस' (Indra Sawhney & Others v. Union of India). इसी केस में आरक्षण के लिए 50% की कैप वाली बात पुष्ट की गई थी. इसीलिए आज समझेंगे:

  • मेरिट बनाम आरक्षण का डीबेट क्या था?
  • क्या पहले कोर्ट ने इससे संबंधित कोई फ़ैसला सुनाया था?
  • इंदिरा साहनी केस क्या है, जिसके बिनाह पर 50% का कैप पार नहीं किया जाता है?
मेरिट बनाम आरक्षण

संविधान बनाने वाले भारतीय समाज में फैली ग़ैर-बराबरी से भलि-भांति परिचित थे. वो जानते थे कि धर्म, संस्कृति, भाषा जैसी भिन्नता के अलावा जाति और जातिगत भेदभाव हमारे समाज की हक़ीक़त है. जाति की वजह से बहुत सारे समुदाय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े थे. कमज़ोर और पिछड़े वर्गों की हालत सुधरे और उन्हें समाज के बाक़ी वर्गों की तरह ही बराबर मौक़े मिलें, इसके लिए सकारात्मक कार्रवाई (affirmative action) का सिस्टम बनाया गया. जैसे, जातिगत आरक्षण. समाज में सामाजिक-आर्थिक बराबरी के लिए किया गया एक गंभीर प्रयास.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 के खंड (4) और (4ए) के तहत, सरकारी नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान को डिफ़ाइन करती है.

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पहले ये आरक्षण बस अनुसूचित जातियों और जनजातियों (SC-ST) के लिए थी. फिर 1980 में मंडल अयोग ने अपनी रिपोर्ट जमा की. इसमें पता चला कि देश में 52% अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) की आबादी है. शुरू में आयोग ने तर्क दिया कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. हालांकि, ये सुप्रीम कोर्ट के एक 1963 के मामले के ख़िलाफ़ जा रहा था. 'एम आर बालाजी बनाम मैसूर राज्य केस', जिसमें अदालत ने 50% की सीमा तय की थी. अब चूंकि, SC-ST के लिए पहले से ही 22.5% आरक्षण था, इसलिए OBC के लिए आरक्षण का आंकड़ा 27% पर सीमित कर दिया गया.

साल 1962 का एम. आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य केस

राज्य सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए 75% सीटें आरक्षित करने का आदेश जारी किया. एम. आर. बालाजी ने इसे चुनौती दी. तर्क दिया कि केवल जाति के आधार पर पिछड़ापन निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए और 75% आरक्षण करना अनुचित है, सकारात्मक कार्रवाई की भावना के विरुद्ध है.

आला अदालत ने राज्य सरकार के आदेश को ख़ारिज करते हुए बालाजी के पक्ष में फ़ैसला सुनाया. अदालत का भी यही ऑब्ज़र्वेशन था कि केवल जाति ही पिछड़ेपन का पैमाना नहीं हो सकती. सरकार को अन्य सामाजिक और आर्थिक संकेतकों पर विचार करना होगा. और, सीटों का इतना बड़ा हिस्सा (75%) आरक्षित करना भी ‘अत्यधिक’ माना गया.

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बहरहाल, बहुत बहस-मुबाहिसों के बाद मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को 1990 में लागू कर दिया गया. देश भर में प्रदर्शन हुए. हिंसक प्रदर्शन भी हुए. अगड़ी जातियों के छात्रों की दलील थी कि इससे उनके पास बहुत कम सीटें रह जाएंगी, और मेरिट का महत्व ख़त्म हो जाएगा. इसी कड़ी में मंडल आयोग के ख़िलाफ़ कई याचिकाएं लगाई गईं. अलग-अलग अदालतों में. सितंबर, 1990 में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने मंडल रिपोर्ट को चुनौती देने वाली सभी रिट याचिकाओं को अपने पास ट्रांसफ़र कर लिया और फिस शुरू हुआ संघर्ष. न्यायिक व्यावहारिकता और राजनीतिक अवसरवाद के बीच. सुप्रीम कोर्ट इन्हीं दोनों के संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था.

इंद्रा साहनी केस

इंदिरा साहनी दिल्ली की पत्रकार थीं. वकील भी थीं. 1 अक्टूबर, 1990 को इंदिरा साहनी मंडल कमीशन की सिफ़ारिश की वैधता को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं. अब तक वीपी सिंह सत्ता से जा चुके थे. चंद्रशेखर नए प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार ज़्यादा दिन तक चली नहीं. 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. प्रधानमंत्री बने पीवी नरसिम्हा राव. मंडल कमीशन ने पिछड़ा वर्ग के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान किया था. 25 सितंबर, 1991 को नरसिम्हा राव ने सवर्णों के गुस्से को शांत करने के लिए आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण का प्रावधान साथ में जोड़ दिया.

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आला अदालत के सामने संविधान की व्याख्या, सरकार का अधिकार क्षेत्र समेत कई पेचिदा मसले थे, मगर लब्बोलुवाब यही था कि मंडल आयोग रिपोर्ट वैध थी या नहीं.

कोर्ट को मुख्यतः तीन चीज़ों पर फ़ैसला करना था:

  • क्या पिछड़े को परिभाषित करने के लिए केवल जाति का आधार लिया जा सकता है? 
  • क्या संविधान का अनुच्छेद 16-(4) - जो पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की अनुमति देता है - वो अनुच्छेद 16-(1) ख़िलाफ़ है? अनुच्छेद 16-(1) समान अवसर की गारंटी देता है.
  • क्या सरकार आरक्षण प्रणाली के भीतर पिछड़े वर्गों को और वर्गीकृत कर सकती है? जैसे 'पिछड़ा' और 'अति पिछड़ा'.
मंडल रिपोर्ट के ख़िलाफ़ दी गईं दलीलें:

- आरक्षण प्रणाली जाति व्यवस्था को बढ़ावा दे रही है और समाज को दो हिस्सों में बांट रही है - अगड़े और पिछड़े. इससे आपसी द्वेष पैदा हो रहा है.

- अगर आरक्षण दिया जाना ही था, तो हालिया जनगणना के आधार पर दिया जाए. न कि 1931 की पुरानी जनगणना के आधार पर.

- केवल जाति आरक्षण देने का मुख्य आधार नहीं हो सकती, न होनी चाहिए. जाति की तुलना में शिक्षा, सामाजिक और आर्थिक कारकों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

- चूंकि आरक्षित उम्मीदवारों को हर चरण में आरक्षण का लाभ मिलेगा, इससे जनरल कैटगरी के उम्मीदवार हताश हो जाएंगे, क्योंकि उनकी योग्यता और प्रदर्शन का कोई मूल्य नहीं होगा.

- सार्वजनिक प्रशासन प्रणाली की दक्षता ख़तरे में पड़ जाएगी.

मंडल रिपोर्ट के पक्ष में दी गई दलीलें:

- मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए बहुत ज़रूरी है. इससे वो हर तरह के सामाजिक अन्याय और शोषण से बचेंगे.

- पुरानी जनगणना के आंकड़ों का तर्क निराधार है. 1931 की जनगणना रिपोर्ट से केवल समुदाय-वार जनसंख्या के आंकड़े लिए गए थे. अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान 1961 की जनगणना रिपोर्ट के आधार पर ही की गई है.

- समाज में अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए उचित सावधानी बरती गई है और अलग-अलग तरह के मानकों का इस्तेमाल किया गया है.

- पिछड़ेपन के निर्धारण करने के लिए जाति एक प्रासंगिक आधार है.

- आरक्षण किसी वर्ग या समूह के पक्ष में दिया जाएगा, किसी एक व्यक्ति विशेष के आधार पर नहीं. क्योंकि अनुच्छेद 16(4) में कहा गया है कि आरक्षण पिछड़े नागरिकों को नहीं, बल्कि पिछड़े वर्गों के नागरिकों को प्रदान किया जाना है.

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सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

16 नवंबर, 1992 को नौ जजों की बेंच ने 6-3 के बहुमत से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBC) के लिए 27% कोटा बरक़रार रखा.

इस फ़ैसले ने तीन ज़रूरी चीज़ें स्थापित कीं: 

पहला, आरक्षण के लिए अर्हता पाने का मानदंड सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन (SEBC) है; दूसरा, पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति नहीं दी जाएगी; और तीसरा, 50% की सीमा बरक़रार रही, जैसा अदालत के पिछले फ़ैसलों में तय हुई थी. 

हालांकि, 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस सीमा के अपवाद को स्वीकार किया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर सरकार आरक्षण की जरूरत के पक्ष में कोई ठोस वैज्ञानिक डाटा उपलब्ध करवाती है तो इस सीमा को लांघा जा सकता है.

चूंकि संविधान का आर्टिकल 340 पिछड़ापन निर्धारित करने में सामाजिक आधार को प्राथमिकता देता है, इसीलिए कोर्ट ने माना कि पिछड़ेपन का पहला पैमाना जाति ही है. कोर्ट ने पहले संविधान संशोधन के दौरान संसद में डॉ. आम्बेडकर के लोकसभा में दिए गए भाषण का हवाला दिया. डॉ. आम्बेडकर ने जाति और पिछड़ा वर्ग की आउटलाइन खींचते हुए कहा था, "पिछड़ा वर्ग कुछ और नहीं, बल्कि पिछड़ी जातियों का समूह है."

‘क्रीमी लेयर’ तय किया गया और निर्देश दिया गया कि पिछड़े वर्गों की पहचान करते समय ऐसी क्रीमी लेयर को बाहर रखा जाए. अदालत का कहना था कि अगर कोई आर्थिक तौर पर संबल है तो उसके सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ा होने की संभावना बहुत कम है.

तब से अब तक 'इंदिरा साहनी केस' में दिए गए फ़ैसले का कई मामलों में हवाला दिया गया है. फिर भी बिहार और अन्य राज्यों में 50% की सीमा को तोड़ा गया, और ऐसे क़दमों को काफ़ी समर्थन भी मिला. यहां तक कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने जाति जनगणना और आरक्षण को 50% से आगे बढ़ाने का वादा भी किया था. 

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