साल 1971, दिसंबर महीने की बात है. भारत पाकिस्तान युद्ध की शुरुआत हुए महज 3 दिन हुए थे. जंग के मैदान में पाकिस्तान पिट रहा था लेकिन कुछ पाकिस्तानी फौजी जनरल पार्टी में मशगूल थे. इस्लामाबाद स्थित घर के जिस कमरे में ये पार्टी हो रही थी, उसे गुब्बारों से सजाया गया था. पार्टी पूरे शबाब पर थी लेकिन एक कमी थी. मुख्य अतिथि का आना बाकी था. रुतबे के हिसाब से पर्याप्त लेट लतीफी दिखाने के बाद वो मेहमान कमरे में दाखिल हुआ. उसके होंठों पर सिगार थी. कमरे में घुसते ही उसने सिगार हाथ में ली और कमरे में लगे गुब्बारों को सिगार से फोड़ने में जुट गया. पहला गुब्बारा फूटा और उसके मुंह से निकला, "ये गया जगजीवन राम". जगजीवन राम तब भारत के रक्षा मंत्री हुआ करते थे. अगले गुब्बारे पर वो बोला, "ये लो मानेकशॉ ख़त्म". तीसरे गुब्बारे तक भुट्टो का नामोनिशान मिट चुका था. और चौथे गुब्बारे में उसने अपने सबसे बड़े दुश्मन मुजीब को बर्बाद कर दिया था. गुब्बारों पर अपना गुबार निकालने वाला ये शख्स और कोई नहीं, पाकिस्तान के राष्ट्रपति याहया खान थे.
इस पाक राष्ट्रपति को दिखाई देने लगा था इंदिरा गांधी और मानेकशॉ का भूत!
1971 में सरेंडर के वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति क्या कर रहे थे?
10 अगस्त की तारीख. 1980 में इसी रोज पाकिस्तान के तीसरे राष्ट्रपति याहया खान की मृत्यु हुई थी. याहया पाकिस्तान के सबसे बदनाम राष्ट्रपति हैं. देश के दो टुकड़े उनके निज़ाम में हुए. साथ ही लाखों बंगालियों के नरसंहार के चलते पाकिस्तान को बदनामी झेलनी पड़ी सो अलग.
लेखक दीवान बरींद्रनाथ अपनी किताब, "प्राइवेट लाइफ ऑफ याहया खान" में याहया की पुरानी ज़िंदगी के बारे में लिखते हैं,
“याहया की पैदाइश क़िज़िलबाश पठानों के परिवार में हुई थी. उनके पिता का नाम सादत अली खान था. जो बंटवारे से पहले पंजाब पुलिस में हवलदार की नौकरी करते थे.”
दीवान बरींद्रनाथ अपनी किताब में याहया के पिता के बारे में एक दिलचस्प बात बताते हैं. साल 1931. मार्च 23 की तारीख़. इस तारीख़ से आपको समझ आ गया होगा की हम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फ़ांसी की बात कर रहे हैं. ब्रिटिश सरकार ने तीनों को नियत तारीख़ से एक दिन पहले ही फ़ांसी दे दी थी. और उसके बाद उनके शवों के टुकड़े कर जलाने की कोशिश की थी. लाहौर जेल की पिछली दीवार तोड़कर चुपके से भगत सिंह और उनके साथियों के शव नदी किनारे ले जाए गए. बरींद्रनाथ लिखते हैं,
"पाकिस्तान की पत्रिका अखबार-ए-जहां के एडिटर रह चुके महमूद शाम ने सरकारी दस्तावेज़ों को खंगाल कर एक बात पता लगाई थी. पंजाब पुलिस के जिन सिपाहियों ने भगत सिंह और उनके साथियों को जलाने की कोशिश की थी, उनमें याहया के पिता, सादत अली भी शामिल थे. बाक़ायदा सरकार उनके काम से इतनी खुश थी कि इस काम के लिए सादत को खान साहब की पदवी दी गई, और नौकरी में प्रमोशन भी मिल गया."
बाद में याहया खान खुद भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हुए. और दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा लिया. 1942 में इटली में नाज़ी सैनिकों ने उन्हें बंधक बनाया और वो कई दिन तक युद्दबंदी कैम्प में रहे. याहया ने इस कैम्प से भागने की तीन बार कोशिश की. और तीसरी बार में सफल भी हो गए. याहया के सितारे बुलंद होना तब शुरू हुए जब वो पाकिस्तान के दूसरे राष्ट्रपति अयूब खान के कांटैक्ट में आए और जल्द ही उनके चहेते बन गए.
1967 से पहले पाकिस्तान की राजधानी कराची हुआ करती था. लेकिन अयूब चाहते थे, देश के लिए एक नई राजधानी बने. अयूब ने ये ज़िम्मेदारी याहया को सौंपी. दीवान बरींद्रनाथ की किताब के अनुसार अयूब खान जब भी भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मुंह से चंडीगढ़ का नाम सुनते, आगबबूला हो ज़ाया करते थे. नेहरू बनावट के मामले में चंडीगढ़ की मिसाल दिया करते थे. इसलिए अयूब ने एक रोज़ ग़ुस्से में कहा, दो साल के अंदर नई राजधानी बनाके दिखाऊंगा और वो भी चंडीगढ़ से ज़्यादा बेहतर. ये काम उन्होंने सौंपा अपने चहेते याहया खान को.
पाकिस्तान के रिटायर्ड ब्रिगेडियर AR सिद्दीक़ी की किताब, 'याहया खान: द राइज़ एंड फाल' के अनुसार याहया ने इस काम में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था. हर सुबह 6 बजे से शाम काम ख़त्म होने तक वो एड़ियों के बल खड़े रहते थे. यानी मुस्तैद रहते थे. इत्तेफ़ाक की बात देखिए कि जिस बांग्लादेश के अलग होने के कारण याहया की कुर्सी गई, उसी को लूटकर इस्लामाबाद बनाया जा रहा था. लेकिन याहया ने इस काम में कोई कसर नहीं छोड़ी. और ये काम पूरा करके दिखाया.
इंदिरा और मानेकशॉ का भूतजैसी कि पाकिस्तान में परंपरा है, अयूब ने याहया को आर्मी चीफ़ बनाया. और याहया ने उन्हें हटाकर राष्ट्रपति की कुर्सी अपने लिए छीन ली. 1971 युद्ध के दौरान याहया अपनी रंगरेलियों के लिए खूब बदनाम हुए. हालांकि AR सिद्दीक़ी की किताब के अनुसार याहया हमेशा से ऐसे ना थे. बल्कि एक अमेरिकी निरीक्षक ने ऑफ़िसर मेस में उनका बर्ताव देखते हुए लिखा था. "याहया एकदम नियम क़ायदों से चलने वाले आदर्श सैनिक हैं. वो रमज़ान के दौरान बिना नागा रोजा रखते हैं. और शराब से परहेज़ करते हैं".
1963 में इस्लामाबाद में एक पब्लिक फ़ंक्शन में बोलते हुए अयूब खान ने याहया के लिए कहा था,
“मुझे याहया की जैसी नैतिकता रखने वाले आधे दर्जन अफ़सर मिल जाएं, तो मैं पाकिस्तान को कहां से कहां पहुंचा दूं". पाकिस्तान पहुंचा तो कहीं नहीं. बाक़ायदा याहया के चक्कर में देश जितना था, उसका भी आधा हो गया.
साल 1971 में 26 नवंबर की तारीख़ के रोज़ याहया ने विदेशी पत्रकारों को बुलाकर कहा, भारत के साथ युद्ध अब लगभग निश्चित है. अगले ही दिन पूरे पाकिस्तान में क्रश इंडिया के पोस्टर चस्पा कर दिए गए. एक विशेष डॉक्युमेंटरी फ़िल्म पूरे देश के सिनेमाघरों में दिखाई गई. जिसमें दिखाया जा रहा था कि कैसे 1965 युद्ध में याहया ने भारतीय फ़ौज को नाकों चने चबा दिए. युद्ध ख़त्म होने के बाद जंग नाम की एक उर्दू पत्रिका ने खुलासा किया कि जिसे डॉक्युमेंटरी बताया जा रहा था, वो 1965 युद्ध के 6 साल बाद शूट की गई थी. जिस याहया की वीरता का बखान किया जा रहा था, उनकी असलियत क्या थी?
1971 युद्ध के दौरान ईरानी पत्रकार अमीर ताहिरी राष्ट्रपति याहया के पर्सनल गेस्ट के तौर पर इस्लामाबाद में रह रहे थे. ताहिरी ने बाद में इन दिनों का ब्यौरा दर्ज करते हुए लिखा,
"जिन दिनों युद्ध चल रहा था, याहया हर रोज़ ढाई बोतल शराब पी जाते थे. और अक्सर रात को उठकर चिल्लाने लगते. सोने के लिए उन्हें नींद के इंजेक्शन लेने पड़ते थे. युद्ध के अंतिम दिनों में याहया को बुरे सपने आते थे. जिनमें उन्हें भुट्टो, मुजीब और इंदिरा का भूत दिखाई देता था".
दीवान बरींद्रनाथ की किताब के अनुसार, 15 और 16 तारीख़ को जब ढाका में पाक सेना आत्म समर्पण की तैयारी कर रही थी. याहया दिन भर अपने कमरे में बंद रहे और अपने चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ से मिलने के लिए भी बाहर नहीं आए. सरेंडर के बाद उन्हें टीवी और रेडियो पर घोषणा करनी थी. लेकिन जनरल गुल हसन जब उन्हें ले जाने के लिए कमरे में गए तो याहया पूरी तरह धुत्त थे. उन्हें लगभग घसीटते हुए कमरे से बाहर लाना पड़ा. याहया ने इतनी पी रखी थी अंत में उनका भाषण कैंसिल करना पड़ा.
युद्ध के बाद क्या हुआ? याहया के काले कारनामों का चिट्ठा एक एक कर खुला. 1 जनवरी, 1972 की तारीख़. यद्ध को ख़त्म हुए 11 दिन बीत चुके थे. और सत्ता की कमान अब भुट्टो के हाथ में थी. उस रोज़ पाकिस्तनी स्टेट टेलिविज़न पर एक अजीब नजारा दिखाई दिया. सरकारी न्यूज़ ने चार लड़कियों की फ़ोटो प्रसारित की. बताया गया कि याहया के इन लड़कियों से सम्बंध थे. लोग पहले से हार से सदमे में थे. ऐसे में राष्ट्रपति की असलियत खुलने से उन्हें और बड़ा झटका लगा. दीवान बरींद्रनाथ अपनी किताब में कुछ पाकिस्तानी अख़बारों के हवाले से बताते हैं, "जिन लड़कियों की तस्वीरें टेलिविज़न पर दिखाई गई, वो छोटी मछलियां थी. याहया के कई ताकतवर महिलाओं से सम्बंध थे. जिन्हें याहया का हरम कैबिनेट कहा जाता था. बाक़ायदा इनमें से एक का काम तो फ़िल्में और टीवी देखकर याहया के लिए तथाकथित दोस्त चुनना था. कराची, लाहौर और रावलपिंडी में ये बात इस कदर फैल गई थी कि लोगों ने अपनी घर की लड़कियों को TV रेडियो में भेजना ही बंद कर दिया.
अय्याशी के चलते बाल-बाल बचेयाहया की महिला दोस्तों में शामिल थे, अकलीम अख़्तर, जिन्हें सब जनरल रानी कहा करते थे. पाकिस्तान की फ़ेमस गायिका नूर जहां तो फ़ोन पर याहया को गाना गाकर सुनाया करती थीं. इसके अलावा बंटवारे के बाद बम्बई से पाकिस्तान चली गई फ़िल्म अदाकारा, तराना का नाम भी याहया के करीबी लोगों में शामिल था. नूर जहां को याहया से नज़दीकी की ये सजा भुगतनी पड़ी की सालों तक रेडियो और टीवी पर उनके गीत संगीत के प्रसारण पर बैन लग गया. जनरल रानी को नज़रबंद होना पड़ा और फ़िल्म अभिनेत्री तराना के लिए लोग तंज़ मारते हुए कहते थे, पहले आप तराना थीं, अब क़ौमी तराना हैं.
महिलाओं के साथ रिश्तों को लेकर बरींद्रनाथ किताब में एक बड़े ही दिलचस्प क़िस्से का ज़िक्र करते हैं. 1971 की ही बात है. हुआ यूं कि एक पार्टी में याहया एक रेडियो अनाउसंर को दिल दे बैठे. ये महिला पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिमी पाकिस्तान में शिफ़्ट हुई थीं. और उनकी पहचान पूर्वी पाकिस्तान के कई ऐसे लड़कों से थी, जो पश्चिमी पाकिस्तान में कमांडो ऑपरेशन करना चाहते थे. इनमें से एक का नाम ज़फ़र इक़बाल था. ज़फ़र इक़बाल को पता था कि याहया रेडियो अनाउंसर पर लट्टू हैं. ज़फ़र ने उससे कहा कि वो राष्ट्रपति को अपने घर बुलाए. महिला ने ऐसा ही किया और याहया तैयार भी हो गए. लेकिन इस शर्त पर कि वो देर रात चोरी छुपे आएंगे. याहया रात के साढ़े 11 बजे आने वाले थे. इसलिए ज़फ़र और उसके दो दोस्तों ने रेडियो अनाउंसर के घर के नज़दीक पोजिशन ले ली.
ठीक साढ़े ग्यारह बजे, एक इम्पोर्टेड कार घर के आगे आकर रुकी. और उसमें से एक शख़्स नीचे उतरा. तीनों ने उस पर धावा बोला. और बंदूक़ की गोलियां उसके सीने में उतार दी. ज़फ़र और उसके दोस्तों को लग रहा था, उनके हाथ जैक पॉट लग गया है. लेकिन असलियत कुछ और थी. याहया की ख़ुशक़िस्मती से उस रोज़ ऐन मौक़े पर उन्होंने जाने का इरादा टाल दिया. रेडियो अनाउंसर के घर के आगे उतरा व्यक्ति याहया नहीं कोई और था.
याहया की क़िस्मत ने हालांकि ज़्यादा दिन उनका साथ ना दिया. 1971 युद्ध में हार के बाद उन्हें सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया. और फिर वो कभी दोबारा पब्लिक में दिखाई नहीं दिए. सत्ता में आने के बाद जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उन्हें एक गेस्टहाउस में बंद कर दिया था. जिसमें सांप मच्छर का बोल बाला था. याहया को किसी से बात करने या मिलने की भी इजाज़त नहीं थी. 1978 में जब जिया उल हक़ सत्ता में आए. तब जाकर याहया को नज़रबंदी से राहत मिली. इसके दो साल बाद, 10 अगस्त, 1980 को जनरल याहया ख़ान का निधन हो गया.
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