देश के कई राज्यों में चुनाव हैं. उत्तर प्रदेश में भी हैं. मायावती कह रही हैं कि मुसलमानों को भाजपा से बचाना होगा. सपा मुखिया मुलायम कह रहे हैं कि मुसलमान उनके साथ हैं. अखिलेश के ही राज में मुजफ्फरनगर दंगे हुए थे. तब पूरा परिवार सैफई महोत्सव मना रहा था. अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि मुसलमानों के बारे में हर बात में इस्लाम का ही जिक्र होता है. हर चीज धर्म के नजरिये से ही देखी जाती है.
30 नवंबर 2006 को 403 पेज की एक रिपोर्ट आई थी. सच्चर कमिटी की. पार्लियामेंट में रखी गई. मुसलमानों के सोशल, इकॉनमिक और एजुकेशनल कंडीशन पर. कमिटी के चीफ थे दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस राजिंदर सच्चर. दो साल में रिपोर्ट तैयार हुई. रिपोर्ट में पता चला कि मुसलमानों की स्थिति शेड्यूल्ड कास्ट और शेड्यूल्ड ट्राइब से नीचे है. किसी कम्युनिटी की स्थिति नापने का एक और तरीका भी है. IAS और IPS कितने आते हैं समुदाय से. इससे एक जनरल इम्पावरमेंट का पता चलता है.

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सच्चर कमिटी के मुताबिक IAS और IPS में 3 और 4 परसेंट मुस्लिम थे. 1 जनवरी 2016 के होम मिनिस्ट्री डेटा के मुताबिक अब ये 3.32 और 3.19 है. ये भी पता चला है कि IPS में कमी हुई है क्योंकि मुस्लिम प्रमोटी ऑफिसर बहुत कम आये हैं. सच्चर रिपोर्ट में ये 7.1 परसेंट थे, अब 3.82 परसेंट हैं. आलम ये है कि हर 100 IAS और IPS में मात्र 3 मुस्लिम ऑफिसर हैं.
अगर सरकारी डेटा का विश्लेषण किया जाये, तो पता चलेगा कि अभी भी स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं आया है. कुछ चीजों में तो स्थिति पहले से भी खराब हो गई है. जैसे कि 2005 में भारतीय पुलिस में मुसलमानों का परसेंटेज 7.63 था जो 2013 में घटकर 6.27 हो गया. 2013 के बाद धर्म के आधार पर का डेटा सरकार ने बनाना बंद कर दिया है. कई बार पुलिस पर ये भी आरोप लगा है कि दंगों के वक्त इनकी धार्मिक भावना जाग जाती है. मुसलमानों की कम संख्या होने की वजह से पुलिस सेक्युलर नहीं रह जाती.

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अगर एवरेज मंथली पर कैपिटा इनकम देखें तो 2006 से लेकर अब तक मुसलमानों का ही सबसे कम रहा है. किसी भी समुदाय से कम. तो जब सरकारी आंकड़ा ही कह रहा है तो ऐसे में नेताओं की बातें बिल्कुल नहीं सुहाती.
अगर लोग किसी तरह के सुधार की बात कह रहे हैं तो वो धर्म पर ही जा रहा है. जब लोग समाज पर अटैक कर रहे हैं तो वो भी धर्म को लेकर ही हो रहा है. मतलब मुसलमानों को जब भी देखना है तो धर्म के ही चश्मे से. लोग एक आम इंसान के तौर पर उनको देख ही नहीं पा रहे. ये नहीं देख पा रहे कि वो भी हाड़-मांस से बने हैं. उनको भी खाना, रोजगार, पढ़ाई की जरूरत है. ऐसा तो नहीं है कि हर मुसलमान बिना रोजगार के सिर्फ हज जाने के बारे में सोच रहा है. फिर भी जबर्दस्ती एक माहौल तैयार किया जाता है. इतनी नकारात्मकता फैलाई जाती है कि मुसलमान खुद ही धर्म के बारे में बोलने को मजबूर हो जाता है. तो फिर कहते हैं कि देखो बोल रहा है.
हमेशा मदरसों पर अटैक किया जाता है कि ये लोग धर्मांधता फैला रहे हैं. पर ये नहीं पता चलता कि अगर गरीब तबका वहां भी ना जाये तो कहां जाये. ये समाज की विफलता है. कि जो पहले से फंसा हुआ है, उसी पर उंगली उठाई जाये. ताकि वो अपने खोल में छुप जाये. बेहतर तो यही होगा कि सरकारें खुद से सच बोलना शुरू करें. जनता कुछ बोले ये बड़ा मुश्किल लगता है. क्योंकि पिछड़ा समाज इतना डिबेट कर ही नहीं सकता. नेताओं का दीदा तो इतना है कि कहने लगते हैं कि अगर केंद्र में कोई गांधी होता तो बाबरी नहीं गिरी होती. क्या देश एक खानदान के भरोसे चलता है. या एक व्यक्ति के. यूपीए सरकार सच्चर रिपोर्ट आने के बाद आठ साल तक सत्ता में बनी रही. पर क्या किया? हमें पता नहीं. जब इसका हिसाब उनको लगा होगा तो फिर वादे करना शुरू कर दिये. भाजपा की सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि माइनॉरिटी के खिलाफ काम कर रहे हैं. पर इसमें भी जो मुद्दे उठा रहे हैं, वो धर्म को लेकर ही हैं. ये ताज्जुब होता है. 2016 में भी आकर इस्लाम को महमूद गजनवी के चश्मे से ही देखा जा रहा है. तैमूर की आंखों से. जो कि इतिहास का एक हिस्सा भर थे. जब थे, तब थे. जहां थे, वहां थे.
(Indian Express की रिपोर्ट से इनपुट)