पिछले 30 सालों में पश्चिम बंगाल में देसी बमों से ‘565 बच्चे’ प्रभावित हुए हैं. इनमें से लगभग 100 बच्चों की मौत हो गई है, जबकि बाकी विस्फोटक का दंश झेल रहे हैं. इसके पीछे सूबे में तीन दशकों से चली आ रही सियासत भी केंद्र में है.
पश्चिम बंगाल में बन रहे इतने देसी बम, हर 18 दिन में कोई बच्चा हो जाता है शिकार: रिपोर्ट
पिछले 30 सालों में हताहत हुए 565 बच्चों में से 94 बच्चों की मौत हो गई जबकि 471 बच्चे घायल हुए हैं. यानी औसतन हर 18 दिन में एक बच्चा देसी बम का शिकार हुआ. राजनीतिक दल चुनावों के वक्त अपने विरोधियों को डराने के लिए इन बमों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं.
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस टीम ने ‘चिल्ड्रन ऑफ बॉम्ब’ नाम की एक डॉक्युमेंट्री 17 दिसंबर को रिलीज की है. इसके जरिये पश्चिम बंगाल की राजनीति में कच्चे बमों के विनाशकारी प्रभाव को सामने लाया गया है. बंगाल में देसी बमों को लोकल लेवल पर 'पेटो' कहा जाता है. इन्हें जूट की सुतली से बांधकर उसमें कीलें और शीशे के टुकड़े भर दिए जाते हैं.
रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 1996 के बाद से 560 से अधिक बच्चे या तो मारे गए या घायल हुए हैं, जो अक्सर बम को खिलौना समझ लेते हैं. बीबीसी ने देसी बमों से हताहत हुए बच्चों की खोज करने के लिए पश्चिम बंगाल के दो अखबारों ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ और ‘बर्तमान पत्रिका’ को खंगाला. साल 1996 से लेकर साल 2024 तक इन अखबारों के हर संस्करण को खंगाला गया.
रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 30 सालों में हताहत हुए 565 बच्चों में से 94 बच्चों की मौत हो गई जबकि 471 बच्चे घायल हुए हैं. यानी औसतन हर 18 दिन में एक बच्चा देसी बम का शिकार हुआ. लेकिन देसी बमों से प्रभावित ऐसे बच्चे भी हैं जिनको लेकर अखबारों के पन्नों में कोई खोजखबर नहीं है. इसका मतलब यह संख्या 565 से अधिक भी हो सकती है.
हताहत का दर्दबीबीसी की पड़ताल में यह मालूम पड़ा कि 60 पर्सेंट से ज्यादा हादसे उस वक्त हुए जब बच्चे घरों या स्कूलों के बाहर खेल रहे थे. हादसों में प्रभावित अधिकांश पीड़ित खेतिहर या कामगार मजदूरों के बच्चे थे. इन घायलों में से एक 37 साल के पुचु सरदार भी हैं. वह 1996 की गर्मियों को याद करते हुए बताते हैं कि कैसे वे अपने चार दोस्तों के साथ एक पार्क में क्रिकेट खेल रहे थे और उस दौरान उनकी नज़र झोले में पड़ी कुछ ‘गेंदों’ पर गई.
पुचु और उनके दोस्तों ने उन्हें क्रिकेट की ‘गेंदें’ समझ लिया. वे उन्हें लेकर क्रिकेट खेलने चले गए. इनमें से एक गेंद को एक बच्चे ने पुचु सरदार को फेंकी और उन्होंने उस पर जोरदार शॉट मारा. इसके बाद गली में एक तगड़ा धमाका सुनाई दिया. मालूम पड़ा ये ‘गेंद’ की शक्ल में एक बम था.
आसपास के लोग धमाके की आवाज सुनते ही तुरंत मौके पर पहुंचे. जहां पुचु सरदार और उनके पांच दोस्त सड़क पर जख्मी मिले. इस धमाके में पुचु सरदार के दो दोस्तों की मौत हो गई. पुचु सरदार बुरी तरह जल गए थे. उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया. महीनों बाद जब वो अस्पताल से घर लौटे तब भी उनके शरीर में कई छर्रे मौजूद थे. पुचु का कहना है कि उन छर्रों को घरवालों ने ही औजारों से निकाला, क्योंकि आगे के इलाज के लिए परिवार के पास पैसे नहीं बचे थे.
उस हादसे के बाद पुचु कई सालों तक अपने घर से बाहर नहीं निकल सके. बम विस्फोट के कारण उनका बचपन छिन गया. फिलहाल वे कंस्ट्रक्शन से जुड़े कामों को करके अपना गुजारा कर रहे हैं.
लेकिन यह कहानी अकेले पुचु सरदार की नहीं है. पौलमी हलदार और सबीना खातून जैसे सैकड़ों बच्चे हैं जो बम विस्फोट की दर्दनाक पीड़ा झेल रहे हैं, शायद आजीवन उन्हें झेलनी पड़े.
बमों का इतिहास और राजनीतिबीबीसी के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास दशकों पुराना है. बम विस्फोट की घटना आजादी से पहले भी दर्ज की गई है. जब खुदीराम बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बमों का इस्तेमाल किया था. लेकिन आजाद भारत में भी बमों के इस्तेमाल की खबरें सामने आती रही हैं. चाहे वो 1967 में शुरू हुए नक्सलवादी आंदोलन के दौरान हो या हाल के वर्षों में, खासकर चुनावों के समय होने वाली राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हों.
रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि राजनीतिक दल चुनावों के वक्त अपने ‘विरोधियों को डराने के लिए बमों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे’ हैं. पश्चिम बंगाल पुलिस के पूर्व महानिरीक्षक पंकज दत्ता के हवाले से बीबीसी ने छापा है कि बमों का इस्तेमाल ‘हिसाब बराबर करने के लिए’ किया जाता रहा है. कार्यकर्ता अपने विरोधियों को डराने और अपना दबदबा बनाने के लिए बमों का इस्तेमाल करते हैं.
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