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संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द हटाने की मांग, SC ने क्लास लगा दी

याचिकाओं में कहा गया था कि इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ना संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है. ये याचिकाएं बीजेपी नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, वकील अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने दायर की थीं.

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संविधान की प्रस्तावना बदलने की याचिका पर कोर्ट की सख्ती. (तस्वीर - इंडिया टुडे)

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) और ‘समाजवादी’ (Socialist) शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है. कोर्ट में इस मांग को लेकर कम से कम तीन याचिकाएं दाखिल की गईं थीं. ये याचिकाएं बीजेपी नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, वकील अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने दायर की थीं. याचिकाओं में कहा गया था कि इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ना संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है.

1976 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए संविधान में 42वां संशोधन कर ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ा गया था. तब देश में आपातकाल लागू था.

इंडिया टुडे से जुड़ीं सृष्टि ओझा की रिपोर्ट के मुताबिक, 25 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस पीवी संजय कुमार की बेंच ने ये साफ किया कि संविधान (Indian Constitution) में संशोधन का अधिकार संसद के पास है. कोर्ट ने कहा,

“संविधान के अनुच्छेद-368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन का पूरा अधिकार है. और यह अधिकार प्रस्तावना पर भी उसी तरीके से लागू होता है.”  

कोर्ट ने आगे कहा कि इन याचिकाओं का कोई ठोस आधार नहीं है. याचिकाओं के समय पर सवाल करते हुए कोर्ट ने कहा कि इन शब्दों को संविधान में 44 साल पहले जोड़ा गया था और अब उनको व्यापक स्वीकृति मिल चुकी है. इसके अलावा, कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि इन शब्दों के कारण चुनी हुई सरकारें अपनी नीतियां बनाने में बाधित नहीं हुईं हैं.  

'सेक्युलर' और 'सोशलिस्ट' पर कोर्ट ने क्या कहा?

CJI खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि भारतीय संदर्भ में सेक्युलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) का मतलब है कि राज्य धर्म से अलग रहेगा. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी धर्मों का सम्मान हो और किसी विशेष धर्म को बढ़ावा न दिया जाए. यह समानता के अधिकार को बढ़ावा देने का एक तरीका है.

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वहीं कोर्ट ने ‘सोशलिस्ट’ शब्द को लेकर कहा कि भारतीय समाजवाद का मतलब किसी खास आर्थिक मॉडल को लागू करना नहीं है. यह शब्द सभी नागरिकों के लिए समान अवसर और सामाजिक-आर्थिक विकास सुनिश्चित करता है.

कोर्ट की टिप्पणी 

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान एक "जीवंत दस्तावेज" है और इसे समय के साथ बदला जा सकता है, लेकिन हर बदलाव के लिए सही प्रक्रिया का पालन होना चाहिए. याचिकाओं पर सख्त टिप्पणी करते हुए बेंच ने कहा,

“सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द अब भारतीय संविधान का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं. इन्हें हटाने की मांग करना न केवल अनुचित है, बल्कि इससे संवैधानिक ढांचे को भी चुनौती मिलती है.” 

संविधान के 42वें संशोधन में प्रस्तावना में बदलाव के अलावा 10 मौलिक कर्तव्य भी जोड़े गए थे. साथ ही लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल को 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर दिया गया था. हालांकि इसे 1978 में जनता पार्टी सरकार ने 44वें संशोधन से फिर 5 साल कर दिया.

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