अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है- ‘पेरेटो प्रिंसिपल’. यह सिद्धांत कहता है कि किसी भी घटना के 80 फीसदी परिणाम को 20 फ़ीसदी कारण ही निर्धारित करते हैं. अगर इसका मोटे तौर पर आसान शब्दों में मतलब बताएं तो किसी भी घटना के होने या न होने की जिम्मेदारी बहुत कम कारण या लोग तय करते हैं. या फिर किसी भी चीज का बड़ा हिस्सा बहुत कम लोगों के नियंत्रण में होता है. इस सिद्धांत के कई उदाहरण हैं जैसे कि भारत देश की पूरी संपत्ति का 60 फीसदी हिस्सा पूरी आबादी के 5 फीसदी लोगों के नियंत्रण में है. अब इसी सिद्धांत से जुड़ा एक और उदाहरण सामने आया है. इंडियन एक्सप्रेस में धीरज मिश्रा की रिपोर्ट बताती है कि भारत की बैंकों के समूचे NPA का बड़ा हिस्सा केवल 100 कंपनियों को दिए क़र्ज़ की वजह से है.
बैंकों का 4 लाख करोड़ रुपये का कर्ज फंसाने के लिए 100 कंपनियां जिम्मेदार, RTI में सब पता चला
इन 100 डिफाल्टर कंपनियों पर बैंक का कुल क़र्ज़ 8.44 लाख करोड़ रुपये है. और इन कर्ज़ों का तकरीबन आधा बैंकों के द्वारा NPA डिक्लेअर कर दिया गया है. इस पूरे क़र्ज़ का 50 फीसदी केवल 15 कंपनियों पर बकाया है. ये 15 कंपनियां तीन सेक्टर्स से आती हैं. मैन्युफैक्चरिंग, एनर्जी और कंस्ट्रक्शंस. 31 मार्च 2019 तक के मिले आकड़ों से ये सब पता लगा है.
31 मार्च 2019 तक के आंकड़े बताते हैं कि भारत के सभी Scheduled commercial banks (SCBs) के कुल NPA (Non Performing Assets) की वैल्यू है 9.33 लाख करोड़ रुपये. जो कि अब तक रिकॉर्ड किए NPA की दूसरी सबसे बड़ी रकम है. भारतीय बैंकिंग सिस्टम में इससे अधिक NPA की रकम केवल एक बार और दर्ज़ की गई है. साल 2018 में.
यहां हम आपको बताते चलें कि Scheduled commercial bank, वो बैंक हैं जिनका रिज़र्व बैंक एक्ट 1934 की दूसरी अनुसूची में जिक्र है. इसमें वो सभी बैंक शामिल हैं जिनको RBI ने भारत में बैंकिंग करने का अधिकार दिया है. इसमें सभी पब्लिक सेक्टर बैंक, प्राइवेट सेक्टर बैंक और रीज़नल रूरल बैंक शामिल हैं. और NPA का मतलब है बैंकों का दिया वह क़र्ज़ जिसका भुगतान एक तय समय तक नहीं आता है. आमतौर पर 90 दिनों तक कर्जदार की तरफ से किसी भी तरह का भुगतान ना होने पर ये कार्रवाई की जाती है, यानी अगर कोई कर्जदार 90 दिनों तक कर्ज की किस्तें नहीं जमा करता है तो बैंक उस कर्ज को NPA में डाल देते हैं.
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इंडियन एक्सप्रेस को RTI से मिली जानकारी में यह खुलासा हुआ है कि 9.33 लाख करोड़ रुपये के कुल NPA का 43 फीसदी हिस्सा यानी 4.02 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ केवल 100 कंपनियों ने लिया हुआ है. और इन 100 में भी केवल 30 कंपनियों पर 2.86 लाख करोड़ रुपये का NPA बकाया है. जो कि कुल NPA का 30 फ़ीसदी है. इन 100 कंपनियों में भारत की कुछ बड़ी कंपनियों के नाम हैं. जैसे कि रिलायंस कम्युनिकेशंस, रिलायंस नेवल एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड, रूचि सोया इंडस्ट्रीज (जो अब पतंजलि फूड्स हो गई है) जे.पी. ग्रुप्स की कंपनी जे.पी. एसोसिएट्स, जे.पी. पॉवर वेंचर लिमिटेड और जे.पी.इंफ्राटेक लिमिटेड, जेट एयरवेज, जिंदल इंडिया थर्मल पॉवर, मेहुल चौकसी की गीतांजली जेम्स इत्यादि.
रिपोर्ट यह भी बताती है कि इन 100 कंपनियों में 82 कंपनी ऐसी हैं जो दिवालिया घोषित होने की कार्रवाई में हैं. और इनमें से केवल एक तिहाई ही ऐसी हैं जो लिक्विडेशन के रास्ते में हैं. लिक्विडेशन से मतलब है कि कंपनी अपनी सभी संपत्ति को बेचकर क़र्ज़ चुकाने की प्रक्रिया में है. इससे ये कहा जा सकता है कि बैंकों को इन कंपनियों से क़र्ज़ में दिए गए पैसों के वापस मिलने की संभावना बेहद कम है.
31 मार्च 2019 तक के आंकड़े बताते हैं कि इन 100 डिफाल्टर कंपनियों पर बैंक का कुल क़र्ज़ 8.44 लाख करोड़ रुपये है. और इन कर्ज़ों का तकरीबन आधा बैंकों के द्वारा NPA डिक्लेअर कर दिया गया है. इस पूरे कर्ज का 50 फीसदी केवल 15 कंपनियों पर बकाया है. ये 15 कंपनियां तीन सेक्टर्स से आती है. मैन्युफैक्चरिंग, एनर्जी और कंस्ट्रक्शंस.
अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो 31 मार्च 2015 को बैंकों का कुल NPA 3.23 लाख करोड़ रुपये था. जो कि 31 मार्च 2018 को बढ़कर अभी तक के अपने सर्वाधिक स्तर पर पहुंच गया. कुल 10.36 लाख करोड़ रुपये. इसके बाद बैंकों के NPA में गिरावट हुई. मार्च 2023 में यह घटकर 5.71 लाख करोड़ रुपये पर पहुंचा. इसके पीछे की एक मुख्य वजह थी कि बैंकों ने अपने इन कर्ज़ों को अपनी बैलेंस शीट से हटा दिया. यानी इस क़र्ज़ को माफ़ कर दिया गया. और इसे अपने नुकसान के खाते में डाल दिया.
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