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अतुल सुभाष जो जरूरी सवाल उठाकर चले गए, उन पर कानून क्या कहता है?

Atul subhash 24 पन्नों का एक लेटर और लगभग डेढ़ घंटे का एक वीडियो छोड़ गए. जिसमें कई सवाल हैं. सबसे बड़ा सवाल न्यायपालिका से है.

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वकील इस बात को मानते हैं कि फैमिली कोर्ट्स में व्यवस्थागत सुधार की आवश्यकता है. (फोटो- X)

"JUSTICE IS DUE", यानी न्याय मिलना अभी बाकी है. इस बात से शायद हमारे-आपके जैसे लाखों लोग रिलेट कर रहे होंगे. लेकिन 34 साल के इंजीनियर अतुल सुभाष के लिए ये कितना जरूरी था, ये हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते (Atul subhash suicide). उन्होंने अपनी पत्नी और उनके परिवार पर तो आरोप लगाए ही हैं, साथ ही सिस्टम और न्याय प्रणाली पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं. इंजीनियर अतुल सुभाष ने 9 दिसंबर को खुद को खत्म कर लिया. 24 पन्नों का एक लेटर और लगभग डेढ़ घंटे का एक वीडियो छोड़ गए. जिसमें ये सभी सवाल मौजूद हैं. सुभाष ने क्या-क्या सवाल उठाए, उन पर बात करेंगे. साथ ही ये भी बताएंगे कि कानून इन सवालों पर क्या कहता है?

जान लेने के लिए उकसाना

सुभाष ने लेटर में अपनी पत्नी, उसके परिवार और यहां तक कि अदालत की व्यवस्था पर गंभीर आरोप लगाए हैं. उनका कहना था कि इन लोगों ने उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया. आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कई फैसले हैं. ऐसे मामलों में जहां ससुराल वालों की क्रूरता के कारण महिलाएं आत्महत्या कर लेती हैं, कोर्ट का ये मानना होता है कि उकसाने के "तत्वों" पर विचार किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं आत्महत्या से पहले दिए गए बयान या सुसाइड नोट को एक अहम सबूत के रूप में देखा जाता है. पर कोर्ट ये भी मानती है कि ‘आत्महत्या के लिए उकसाने’ का अपराध सिद्ध करने के लिए ये बयान या सुसाइड नोट भी पर्याप्त नहीं है.

इसे समझने के लिए साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक फैसले का जिक्र जरूरी है. इंडिया टुडे में छपी अनीषा माथुर की रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब गोस्वामी पर ‘आत्महत्या के लिए उकसाने’ के आरोपों को खारिज कर दिया था. कोर्ट ने कहा था,

"आत्महत्या के लिए उकसाने का क्राइम सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद होने चाहिए. ऐसे अपराध को सुविधाजनक बनाने के लिए उकसाने में आरोपी की सक्रिय भूमिका होनी चाहिए. साथ ही घटना के साथ समय का भी मेल होना चाहिए.”

अब बात आत्महत्या के लिए उकसाए जाने वाले क्राइम की हो रही रही है तो ये भी जानना जरूरी है कि नए कानून में इसकी क्या परिभाषा है. नया कानून, यानी भारतीय न्याय संहिता (BNS). ये कानून ‘आत्महत्या के लिए उकसाने’ वाले क्राइम को परिभाषित करने के लिए IPC की भाषा का ही उपयोग करता है. BNS की धारा 108. जिसमें लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो उसे उकसाने वाले आरोपी को दस साल तक जेल की सजा हो सकती है. इसके अलावा इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है.

BNS की धारा 45 के तहत "उकसाने" शब्द को परिभाषित भी किया गया है. कोई व्यक्ति किसी को उकसाने में तब शामिल माना जा सकता है जब वो किसी व्यक्ति को ऐसा काम करने के लिए उकसाता है. या उस कार्य को करने के लिए किसी साजिश में एक या अधिक व्यक्तियों के साथ शामिल होता है. जानबूझकर ऐसा काम या अवैध चूक द्वारा उस कार्य को करने में सहायता करता है तो उसे उकसाने में परिभाषित किया जाएगा.

# सुभाष को उकसाया गया?

अब सुभाष की बात कर लेते हैं. सुभाष ने अपने सुसाइड नोट में पत्नी की हरकतों के कारण हुई हताशा के बारे में बताया है. इतना ही नहीं उन्होंने दो ऐसे उदाहरण भी दिए हैं जब उनके साथ ऐसा किया गया. जब उनकी पत्नी और सास ने उन्हें आत्महत्या करने के लिए ताना मारा. ये उदाहरण इस साल मार्च और अप्रैल के हैं. इसलिए यहां एक बड़ा सवाल खड़ा होता है, कि क्या इन दोनों उदाहरणों को आत्महत्या करने के लिए उकसाने का कारण माना जा सकता है?

# गुजारा भत्ता, यानी एलिमनी पर कानून

पहले ये समझना होगा कि एलिमनी/गुजारा भत्ता कानून में क्यों जोड़ा गया. तलाक होने के केस में परिवार का गुजारा सही से चल सके, इसलिए एलिमनी का प्रावधान कानून में होता है. इसके लिए CrPC की धारा 125 के अलावा भी एलिमनी से संबंधित कुछ नियम हैं. ये नियम ये सुनिश्चित करने के लिए तैयार किए गए हैं कि विवाह विफल होने की स्थिति में महिलाओं और बच्चों को बेसहारा न छोड़ा जाए.

यहीं पर जिक्र होता है साल 2020 के ‘रजनेश बनाम नेहा’ के केस का. सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में फैसला देते हुए भरण-पोषण और गुजारा भत्ता देने में एकरूपता और स्थिरता के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए थे. रिपोर्ट के मुताबिक मामले की सुनवाई करते हुए बेंच ने कहा था कि इसके लिए वो कोई फॉर्मूला नहीं तैयार कर सकते. पर कोर्ट ने कुछ जरूरी पॉइंट्स सामने रखे, जिन पर विचार किया जाना चाहिए. इसमें सबसे अहम था पति-पत्नी की इनकम. विवाह की अवधि. बच्चे की जरूरतें. साथ ही कोर्ट ने दोनों पक्षों के स्टेटस को भी एक जरूरी पैमाना माना था. अदालत ने ये भी कहा था कि गुजारा भत्ते की राशि तय करते समय पति और किसी भी आश्रित और देनदारियों के उचित खर्चों पर भी विचार करना चाहिए. माने पति पर जो भी लोग निर्भर हैं. वो उसके माता-पिता हो सकते हैं. या भाई-बहन, और कोई अन्य व्यक्ति.

# पति भी एलिमनी ले सकता है

यहां एक अहम बात. हिंदू मैरिज एक्ट के तहत एक पति भी एलिमनी का दावा कर सकता है. एक्ट की धारा 24 में इसके बारे में बताया गया है. इसमें कहा गया है कि "डिजर्विंग हसबैंड" भी अपनी पत्नी से भरण-पोषण का दावा कर सकता है. इसके लिए पति को ये दिखाना होगा कि उसकी कमाई उसके जीवन-यापन के लिए पर्याप्त नहीं है. धारा 25 के तहत तलाक होने की स्थिति में पति एकमुश्त गुजारा भत्ता भी मांग सकता है.

# एलिमनी को घटाया-बढ़ाया जा सकता है

क्या परिस्थिति बदलने पर एलिमनी की राशि में बदलाव हो सकता है? इसका जवाब 'हां' है. CrPC, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों में ऐसी व्यवस्था भी है. ये कानून किसी भी पक्ष की परिस्थितियों में बदलाव होने की स्थिति में दिए जाने वाले भरण-पोषण/मुआवजे की राशि में बदलाव की अनुमति देते हैं. इनमें वित्तीय परिस्थितियों में बदलाव शामिल है. इतना ही नहीं नौकरी छूटना/बदलना, या अगर पत्नी को पति से ज्यादा वेतन मिलने लगे, तो ऐसी स्थिति में एलिमनी की राशि में बदलाव किया जा सकता है. किसी भी पक्ष का दोबारा विवाह होना भी इसके तहत शामिल है.

# बच्चे की कस्टडी

अतुल सुभाष ने अपने वीडियो और सुसाइड नोट में बच्चे से न मिलने देने की बात भी हाईलाइट की थी. भारत में कस्टडी का कानून बच्चे के सर्वोत्तम हित पर आधारित है. इसके लिए माता-पिता की बच्चे की देखभाल करने की क्षमता, बच्चे की मानसिक और शारीरिक जरूरतों पर कोर्ट खासा फोकस करती है.

सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में ये माना है कि भरण-पोषण भत्ता देते वक्त बच्चे के खर्च को भी ध्यान में रखा जाएगा. इसमें बच्चे के रहने का खर्च, भोजन, कपड़े, मेडिकल एक्सपेंस और बच्चों की पढ़ाई का खर्च शामिल होता है. इतना ही अगर बच्चा अलग से कोई कोचिंग करता है, या किसी कोर्स में एनरोल करता है, तो ये भी उसी खर्च में जोड़ा जाता है. हालांकि, कोर्ट का ये मानना है कि कोचिंग क्लास या किसी भी ऐसी चीज के लिए उचित राशि ही दी जानी चाहिए, न कि अत्यधिक फिजूलखर्ची वाली राशि, जिसका दावा किया जा सकता है.

इंडिया टुडे की रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि बच्चों की शिक्षा का खर्च आमतौर पर पिता को ही उठाना चाहिए. लेकिन अगर पत्नी कामकाजी है और पर्याप्त कमाई कर रही है, तो खर्च दोनों पक्षों के बीच बराबर रूप से साझा किया जा सकता है.

# Parental alienation syndrome

यहां पर एक और अहम पहलू आता है. जिस पेरेंट की कस्टडी में बच्चा रहता है उन पर आरोप लगते हैं कि वो बच्चे को दूसरे पेरेंट से अलग करने के लिए उनके बारे में नकारात्मक बातें कहते हैं. इसे "parental alienation syndrome" के रूप में परिभाषित किया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इसको कई बार माना है और कहा है कि जिस माता-पिता के पास बच्चे की कस्टडी नहीं है, उन्हें नियमित रूप से बच्चे से मिलने की अनुमति दी जाए. हालांकि, समय-समय पर वकीलों की तरफ से ये बात सामने आती रही है कि सुप्रीम कोर्ट के इस ऑर्डर का सही ढंग से पालन नहीं होता है.

सीनियर एडवोकेट गीता लूथरा ने इंडिया टुडे टीवी को बताया,"

“कई मामलों में, जिस माता-पिता के पास बच्चे की कस्टडी होती है, वो बच्चे को मिलने के लिए लाने से ही मना कर देते हैं. ऐसे भी मामले हैं जहां पिता बच्चे से मिलने के लिए एप्लीकेशन देते हैं और फिर बच्चे से मिलने ही नहीं आते हैं."

# ज्यूडिशियल सिस्टम का फेल्योर!

ज्यूडिशियल सिस्टम की जब भी बात होती है तो पेंडिंग मामलों की बात सबसे पहले आती है. अदालतों में जजों की संख्या कम होने का हवाला दिया जाता है. पारिवारिक विवादों को हैंडल करने वाली वकील मालविका राजकोटिया अतुल सुभाष के मामले को "systemic failure" बताती हैं. इंडिया टुडे से बात करते हुए मालविका ने बताया,

“मैं इस मुद्दे पर टिप्पणी नहीं कर सकती, क्योंकि मेरे पास इसकी डिटेल्स नहीं हैं. सिस्टम में काफी खामियां हैं, जिसे ठीक करने की आवश्यकता है. क्योंकि ऐसे मामले काफी भावनात्मक और क्रूर हो जाते हैं.”

वकील ने कहा कि तलाक के मामले लोगों के क्रूर भावनात्मक पक्ष को सामने लाते हैं. उन्होंने कहा,

"जिस चीज पर ध्यान देने की जरूरत है, वो है दोनों पक्षों के बीच नफरत और सिस्टम की खामियां. फैमिली कोर्ट्स में मामलों की भरमार है, और जजों की कमी के कारण अत्यधिक बोझ है. पक्षकार थक चुके हैं और जज हर दिन 100-120 मामलों की सुनवाई कर रहे हैं."

मालविका ने आगे बताया कि आत्महत्या के लिए उकसाए जाने का सवाल काफी कठिन है. इसका जवाब भी उतना ही पेचीदा है. उन्होंने बताया कि वो कई ऐसी महिलाओं को जानती हैं जो अपनी जान लेने के लिए तैयार हैं और कई पुरुष भी जो अपनी जान लेने को तैयार हैं. वो कहती हैं,

“कानूनी तौर पर इस संबंध को मौत से जोड़ना संभव नहीं है. लेकिन हमें बच्चे की कस्टडी पर बहुत गंभीरता से विचार करना होगा."

वकील इस बात को मानते हैं कि फैमिली कोर्ट्स में व्यवस्थागत सुधार की आवश्यकता है. विशेष रूप से जब बात बच्चे की कस्टडी, माता-पिता से अलगाव और लंबे समय से लटके मामलों की हो.

# जजों का पक्षपात, वकीलों की मनमानी

सेव इंडिया फैमिली फाउंडेशन के अतुल कुमार ने कहा कि ऐसे मामलों में पक्षपात भी होता है. वो कहते हैं,

"उम्र में बड़े जज आत्महत्या और उत्पीड़न जैसी चीजों के प्रति कम संवेदनशील होते हैं. पुरुष आत्महत्या, अवसाद और बच्चे से अलगाव को लेकर वो अक्सर उतने सीरियस नहीं होते.”

इतना ही नहीं अतुल बताते हैं कि ऐसे मामलों में वकील अक्सर अपने क्लाइंट को अन्य आरोप लगाने और कई आवेदन दाखिल करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. अतुल कहते हैं कि एलिमनी को लेकर कानून में कोई ऊपरी सीमा निर्धारित नहीं है. इसलिए वकील अक्सर इस राशि को बढ़ाने की मांग करते हैं और इसमें से अपना हिस्सा भी लेते हैं.

वीडियो: इंजीनियर Atul Subhash ने पत्नी और जज पर क्या आरोप लगाए थे?