आपने अक्सर सुना होगा कि फलां-फलां इंसान बहुत ऑप्टिमिस्टिक है. यानी उसकी बहुत ही पॉजि़टिव सोच है. आशावादी सोच है. वहीं कुछ लोगों को पेसिमिस्टिक कहा जाता है. यानी निराशावादी सोच वाला. वो इंसान जो हर सिचुएशन में बुरा ही सोचता है. निगेटिव ही सोचता है. पर क्या आपने कभी ऐसा सोचा है कि कुछ लोग निराशावादी होते क्यों हैं? उनके मन में हमेशा निगेटिव खयाल क्यों आते हैं? ये सवाल हमने पूछा डॉक्टर मीनाक्षी जैन से. ये भी जाना कि बुरे विचारों से कैसे बचा जाए.
कोई शख्स निराशावादी क्यों होता है? निगेटिव थॉट्स से वो कैसे बच सकता है?
निगेटिव थॉट्स आने की कई वजहें हो सकती हैं. जब हम किसी चीज़ के बारे में ज़रूरत से ज़्यादा सोचने लगते हैं. किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाते. तब हम बुरे खयालों से घिर जाते हैं.


डॉक्टर मीनाक्षी ने बताया कि निगेटिव थॉट्स आने की कई वजहें हो सकती हैं. जब हम किसी चीज़ के बारे में ज़रूरत से ज़्यादा सोचने लगते हैं. किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाते. तब हम बुरे खयालों से घिर जाते हैं.
इसी तरह, जब हम अपनी पुरानी गलतियों, पुराने अनुभवों से आगे नहीं बढ़ पाते. बार-बार उन्हीं के बारे में सोचते रहते हैं. तो हम निगेटिव खयालों के लूप में फंसकर रह जाते हैं. ऐसे में या तो हम एकदम निराश हो जाते हैं या हमारे निगेटिव थॉट्स चिढ़न में बदल जाते हैं.
ये निगेटिव थॉट्स आने की एक वजह डिस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म भी है. आलोचना दो तरह की होती है- कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म और डिस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म. कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म यानी जब आपको सुधार के लिए प्रेरित किया जाए. वहीं डिस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म में आलोचना अपमान में बदल जाती है. तब हम खुद को कमतर आंकने लगते हैं. आशंकाओं से घिर जाते हैं. इसके चलते हम कोई भी काम करने से पहले ही नतीज़ों पर पहुंच जाते हैं. ये मानने लगते हैं कि ‘मेरे काम में कुछ कमी होगी ही'. हमारा सेल्फ कॉन्फिडेंस चकनाचूर हो जाता है और ऐसे जन्म होता है निगेटिव थॉट्स का.
अगर निगेटिव थॉट्स लंबे वक्त तक बने रहें तो एंग्जायटी की दिक्कत हो सकती है. डिप्रेशन हो सकता है. हमारी याद्दाश्त और नई चीज़ें सीखने की क्षमता प्रभावित होती है. OCD यानी ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर और एंग्ज़ायटी डिसऑर्डर्स होने का चांस बढ़ जाता है.
अब बात आती है कि निगेटिव खयालों को कंट्रोल कैसे किया जाए?
डॉक्टर मीनाक्षी कहती हैं कि निगेटिव खयाल एक दिन में गायब नहीं होते. इसमें समय और मेहनत दोनों लगते हैं. आप छोटी चीज़ों से शुरुआत करें. छोटी चीज़ों में खुशी ढूंढें. अपने ऊपर भरोसा रखें. ये मानकर चलें कि ऐसा कुछ नहीं, जो आप नहीं करते सकते. साथ ही, हर चीज़ को परफेक्ट तरीके से करने या परफेक्ट होने का दवाब अपने ऊपर न लें. आप इंसान हैं. मशीन नहीं. गलतियां होंगी. खुद को माफ़ करना सीखना होगा.
साथ ही, अपने दोस्तों, अपने परिवारवालों से मिलते-जुलते रहें. उनसे इन बुरे विचारों को शेयर करें. उन्हें बताएं कि आप क्या सोचते हैं. हो सकता है, बात करने से आपकी चिंता कम हो. आपको चीज़ें देखने और समझने का एक नया नज़रिया मिले.
साथ ही, जर्नलिंग करें. यानी एक डायरी बनाएं और आपके मन में जो भी निगेटिव खयाल आते हैं, उन्हें इस डायरी में लिखें. फिर सोचें कि जिन चीज़ों से आप डर रहे हैं, घबरा रहे हैं, क्या उनके बारे में सोचकर कुछ बदला जा सकता है? क्या ये आपके कंट्रोल में हैं? अगर बदला जा सकता है, तो उस पर काम करना शुरू करें. लेकिन, अगर नहीं बदला जा सकता, तो सोचकर फायदा ही क्या है. इसलिए, इन पर फोकस करना बेकार है. कोई नई हॉबी ट्राई करिए. खुद को वक़्त दीजिए. वो चीज़ें करिए, जिन्हें करने में आपको मज़ा आता है. अगर फिर भी निगेटिव खयाल नहीं जाते, तो प्रोफेशनल मदद ज़रूर लीजिए.
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