सुनीता विलियम्स. भारतीय मूल की अमेरिकी एस्ट्रोनॉट अभी भी इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (ISS) में हैं. वो अपने साथी एस्ट्रोनॉट बुच विलमोर (Butch Wilmore And Sunita Williams) के साथ 6 जून को वहां पहुंची थीं. उन्हें 8 दिन बाद धरती पर लौटना था. लेकिन, स्पेसक्राफ्ट में ख़राबी की वजह से उनकी वापसी टाल दी गई. फिर वो इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर ही रुक गईं.
सुनीता विलियम्स को अंतरिक्ष में हुआ Neuro-Ocular Syndrome धरती पर किसे, कैसे हो सकता है?
न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम में एस्ट्रोनॉट्स की आंखों की रोशनी पर असर पड़ता है. उन्हें दिखाई देना कम हो जाता है.
जून से नवंबर आ गया है. इतने लंबे वक्त तक धरती से बाहर रहना आसान नहीं. स्पेस में ग्रैविटी न होने की वजह से एस्ट्रोनॉट्स को बहुत सारी दिक्कतें होती हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, ऐसी ही एक दिक्कत से सुनीता विलियम्स जूझ रही हैं. इस दिक्कत का नाम है, न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम. इसमें एस्ट्रोनॉट्स की आंखों की रोशनी पर असर पड़ता है. उन्हें दिखाई देना कम हो जाता है. अब भले ही ये बीमारी ज़्यादातर एस्ट्रोनॉट्स को ही होती है. लेकिन इसके बारे में जानना ज़रूरी है. ऐसे में, डॉक्टर से जानिए कि न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम क्या है. ये क्यों होता है. इसके लक्षण क्या हैं. और, न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम से बचाव और इलाज कैसे किया जाए.
न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम क्या होता है?
ये हमें बताया डॉ. प्रवीण गुप्ता ने.
करीब 50% एस्ट्रोनॉट्स, जो लंबे समय के लिए अंतरिक्ष में जाते हैं, और करीब 25 प्रतिशत एस्ट्रोनॉट्स जो थोड़े समय के लिए अंतरिक्ष में जाते हैं, उनकी आंखों में कुछ बदलाव होते हैं. इस कंडीशन को न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम कहा जाता है. इस सिंड्रोम की वजह से मरीज़ की आईबॉल (आंख के ग्लोब) में कई बदलाव होते हैं. इसके चलते उन्हें ऑप्टिक डिस्क एडेमा हो जाता है. आंखों में सूजन आ जाती है. आईबॉल चपटा हो जाता है. आंख की नसों के अंदर भरे पानी की मात्रा बढ़ जाती है. रेटिना में भी बदलाव होने लगता है.
न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम के कारण
ये बदलाव एस्ट्रोनॉट्स के लगातार लेटी हुई पोज़ीशन में रहने के कारण होते हैं. ग्रैविटी की कमी के चलते दिमाग के चारों ओर मौजूद पानी सही तरीके से इधर-उधर नहीं फैल पाता. इस वजह से, दिमाग के पास और आंखों के अंदर पानी का दबाव (प्रेशर) बढ़ जाता है.
दरअसल, हमारे दिमाग के आसपास एक फ्लूड होता है जिसे CSF कहते हैं. CSF यानी सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूड. ये हमारे दिमाग को कुशन करता है और उसे सुरक्षित रखता है. मगर अंतरिक्ष में ग्रैविटी न होने के कारण CSF का बहाव सही तरीके से नहीं हो पाता. इससे आंखों के अंदर CSF का दबाव बढ़ जाता है.
इसके चलते ऑप्टिक नर्व यानी नज़र की नस में सूजन आ जाती है. ऑप्टिक डिस्क सूज जाती है. रेटिना में बदलाव होते हैं. आईबॉल भी चपटा हो जाता है.
न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम के लक्षण
मरीज़ों को चीज़ें साफ़ देखने में दिक्कत हो सकती है. उनकी नज़र में लंबे समय तक बदलाव आ सकते हैं. पोज़ीशन बदलने पर (खड़े से बैठने या बैठने से लेटने में) उन्हें देखने में परेशानी हो सकती है. सिरदर्द हो सकता हैं. ये लक्षण लगातार बने रह सकते हैं और समय के साथ बढ़ भी सकते हैं.
रिसर्च के मुताबिक, जब एस्ट्रोनॉट्स की आंखों की जांच की जाती है, तो उनकी आईबॉल की पोज़ीशन, आकार और आंखों के पर्दे (रेटिना) में कई बदलाव देखे जाते हैं. ये बदलाव उनकी नज़र यानी देखने की क्षमता पर असर डाल सकते हैं. इन बदलावों के आधार पर, डॉक्टर इसे न्यूरो-ऑक्यूलर सिंड्रोम कहते हैं.
ऐसे बदलाव कभी-कभी धरती पर रहने वाले लोगों में भी देखे जा सकते हैं. जब उनके दिमाग के अंदर दबाव बढ़ जाता है, तो इसे इडियोपैथिक इंट्राक्रानियल हाइपरटेंशन (IIH) कहते हैं. न्यूरो-ऑक्यूलर सिंड्रोम और IIH दोनों स्थितियां काफी मिलती-जुलती होती हैं. IIH की वजह से मिडल एज महिलाओं में सिरदर्द और आंखों की रोशनी में कमी आ सकती है.
न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम से बचाव और इलाज
न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम के इलाज के लिए कई तरीके उपलब्ध हैं. एक तरीका सिस्टेमिक निगेटिव प्रेशर है, जो दिमाग और आंखों में से फ्लूड को बाहर निकालने में मदद करता है. इससे दिमाग और आंखों का दबाव कम किया जा सकता है.
इसके अलावा, आर्टिफिशियल ग्रैविटी पैदा की जा सकती है. जो फ्लूड के बहाव को बेहतर बनाने में मदद करती है. थाई प्रेशर कप्स का उपयोग किया जा सकता है, जो ब्लड प्रेशर कंट्रोल करने में मदद करते हैं. एस्ट्रोनॉट्स की पोज़ीशन बदलने से भी फ्लूड के प्रेशर के बदलाव को कम किया जा सकता है.
साथ ही, डाइट में बदलाव, जैसे कम पानी और नमक खाना फायदेमंद हो सकता है. कुछ दवाइयां भी CSF प्रेशर को कंट्रोल करने में मदद करती हैं. अगर CSF प्रेशर को कंट्रोल कर लिया जाए, तो आंखों की सूजन कम हो सकती है. जिससे ये बदलाव कुछ हद तक रिवर्स हो सकते हैं. फिर मरीज़ों के सिरदर्द, देखने की क्षमता, और नज़र में सुधार हो सकता है.
देखिए, न्यूरो-ऑकुलर सिंड्रोम होना बहुत आम नहीं है. वैसे भी ये ज़्यादातर एस्ट्रोनॉट्स में ही होता है. इसलिए, धरतीवासी! बिल्कुल चिंता न करें. हां, लेकिन अपनी आंखों का आप भी पूरा ख़्याल रखें. आंख बहुत ही नाज़ुक होती हैं. उनमें किसी भी तरह की दिक्कत हो तो खुद डॉक्टर न बनें. बल्कि सही डॉक्टर से मिलें.
(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से जरूर पूछें. ‘दी लल्लनटॉप' आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
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