आप एक मिनट में कितनी बार पलकें झपकाते हैं? अब आप कहेंगे, ये क्या सवाल हुआ. कोई गिनता थोड़ी है. जितनी बार सब झपकाते हैं, उतनी ही बार हम भी झपकाते हैं. अगर आपका भी जवाब यही है, तो आप गलत हैं. कुछ लोग पलकें बहुत कम झपकाते हैं तो कुछ लोग बहुत ज़्यादा. और, ये रैंडम नहीं है. इसके पीछे वजह होती है. कई बार ये किसी बीमारी या कंडीशन की ओर इशारा होता है.
पलकों का ज़रूरत से ज़्यादा झपकना कितना खतरनाक?
ज़्यादा पलकें झपकाने के कारणों को तीन कैटेगरी में बांटा जाता है.
ऐसा क्यों होता है, ये हम डॉक्टर से समझेंगे. जानेंगे कि आम इंसान एक मिनट में कितनी बार पलकें झपकाता है. ज़्यादा पलकें झपकाने के पीछे क्या कारण होते हैं, और कम या ज़्यादा पलकें झपकाने का इलाज क्या है.
इंसान एक मिनट में कितनी बार पलकें झपकाता है?
ये हमें बताया डॉक्टर कदम नागपाल ने.
आम इंसान एक मिनट में 12 से 15 बार पलकें झपकाता है. हालांकि कई लोग बहुत पलकें झपकाते हैं. कुछ स्थितियों में पलकें झपकाने की दर कम हो जाती है. इसे रिड्यूस्ड ब्लिंक रेट (Reduced Blink Rate) कहते हैं. पलकें कम झपकना कई बार पार्किंसन बीमारी (Parkinson's disease) का लक्षण होता है. वहीं कुछ सिचुएशन में पलकें झपकाने की दर बढ़ जाती है, यानी वो ज़्यादा पलकें झपकाते हैं.
ज़्यादा पलकें झपकाने के पीछे क्या कारण होते हैं?
ज़्यादा पलकें झपकाने के कारणों को तीन कैटेगरी में बांटा जाता है. पहली कैटेगरी में देखा जाता है कि कहीं पलकें आंखों की किसी समस्या के कारण तो ज़्यादा नहीं झपक रहीं. मेडिकल भाषा में इसे ऑक्युलर कॉज़ेज़ कहते हैं. अगर आंख में कोई इंफेक्शन हो, कोई गंदगी, मिट्टी या कंकड़ चला जाए या आंख में कोई सूजन हो, जिसकी वजह से आंखों का ब्लिंकिंग रेट बढ़ जाए तो इसे प्राइमरी ऑक्युलर कॉज़ेज़ (Primary Ocular Causes) कहते हैं.
वहीं पलकें ज़्यादा झपकने के कुछ कारण मरीज़ के कंट्रोल में होते हैं. लेकिन इसके बावजूद मरीज़ ज़्यादा पलकें झपकाता है. इसे मेडिकल भाषा में हैबिट स्पाज़्म (habit spasm) या टिक्स (tic) कहा जाता है. आमतौर पर ये बच्चों, किशोरों और युवाओं में ज़्यादा देखा जाता है. बिना किसी बीमारी या समस्या के इंसान ज़्यादा पलकें झपकाता है. इससे उन्हें आराम मिलता है. हालांकि मरीज़ चाहे तो इसे कंट्रोल कर सकता है.
लेकिन कई बार पलकें झपकाना व्यक्ति के कंट्रोल में नहीं होता, जिसे ब्लेफरोस्पाज़्म (Blepharospasm) कहते हैं. ब्लेफरोस्पाज़्म एक या दोनों आंखों में हो सकता है. अगर दोनों आंखों में ब्लेफरोस्पाज़्म हो तो आंखें अपनेआप बंद होने लगती हैं. काम करने के दौरान आंखें बंद हो जाती हैं और खुलने में दिक्कत होती है. ऐसे मरीज़ों को ड्राइव या चलते समय बहुत परेशानी होती है. कई मरीज़ों की आंखें अचानक बंद हो जाती हैं और खुलने में बहुत मुश्किल होती है.
इलाज
सबसे पहले पलकें झपकाने की दर चेक की जाती है. ये देखा जाता है कि वो किस कैटेगरी में हैं. अगर आंख से जुड़ी कोई समस्या होती है तो आई स्पेशलिस्ट को दिखाना पड़ता है. जिन्हें टिक्स होते हैं, उन्हें अक्सर साइकोलॉजिकल दिक्कत भी होती है. ऐसे मरीज़ों को बिहेवियरल और साइकोथेरेपी दी जाती है, इससे वो ठीक हो जाते हैं. जो मरीज़ ठीक नहीं हो पाते, उन्हें दवाइयां दी जाती हैं.
टिक्स या स्पाज़्म किसी न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर के कारण भी हो सकते हैं. इसके लिए मरीज़ की अलग से जांच की जाती है. ब्लेफरोस्पाज़्म के कारणों को भी देखा जाता है. मरीज़ की जांच की जाती है और उसे दवाइयां दी जाती हैं. ब्लेफरोस्पाज़्म के मरीज़ों को बोटुलिनम टॉक्सिन (Botox) इंजेक्शन भी दिए जाते हैं.
(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से जरूर पूछें. ‘दी लल्लनटॉप ’आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
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