एक आम इंसान 30 से 90 सेकंड तक अपनी सांस रोककर रख सकता है. उसके बाद हालत ख़राब हो जाती है और सांस लेनी ही पड़ती है. अब एक पल के लिए सोचिए. आपने 90 सेकंड के लिए सांस रोकी हुई है. क्या हाल होगा. अच्छी बात ये है कि आप जब चाहें दोबारा सांस ले सकते हैं. उसके बाद आप नॉर्मल महसूस करने लगते हैं. ये आपके बस में है.
अस्थमा अटैक क्यों पड़ता है? अगर कभी पड़े तो इससे बचें कैसे?
अस्थमा एक एलर्जिक कंडीशन है. अगर व्यक्ति को किसी चीज़ से एलर्जी है और वही चीज़ उसके शरीर में चली जाए, तो उसकी सांस की नलियां और ज़्यादा सिकुड़ने लगती हैं. इससे अस्थमा की परेशानी बढ़ सकती है. व्यक्ति को अस्थमा अटैक पड़ सकता है.

लेकिन, जिन लोगों को अस्थमा यानी दमा होता है, उनके लिए ये 90 सेकंड खत्म नहीं होते. अस्थमा का अटैक पड़ने पर वो सांस नहीं ले पाते, जब तक उन्हें इन्हेलर या दवा नहीं दी जाती.
अस्थमा सांस से जुड़ी एक बीमारी है. अस्थमा के मरीज़ों को दमा के अटैक पड़ते हैं. उन्हें सांस लेने में दिक्कत होती है. सांस नहीं आती. सांस फूलती है. साथ ही, खांसी भी आती है. अगर मदद न मिले तो जान भी जा सकती है.
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़ कोलबरेशन की 2019 में आई रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में 26 करोड़ से ज़्यादा लोग अस्थमा से जूझ रहे हैं. द ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2022 के मुताबिक, इनमें से करीब साढ़े 3 करोड़ लोग भारत के हैं. ये आंकड़ा बहुत बड़ा है. हर साल दुनियाभर में एक हज़ार लोगों की मौत अस्थमा से होती है. इनमें से 46% मौतें भारत में होती हैं. पर, अगर अस्थमा के बारे में, अस्थमा अटैक के बारे में बेसिक जानकारी हो, तो इनमें से कई लोगों को बचाया जा सकता है.
अस्थमा क्या होता है?
ये हमें बताया डॉक्टर देवेंद्र कुमार सिंह ने.

अस्थमा में हमारे सांस के रास्ते में दिक्कत आती है. सांस का रास्ता यानी नाक से लेकर फेफड़ों तक. सांस की एक बड़ी नली (विंड पाइप) अंदर जाकर छोटी-छोटी नलियों में बंट जाती है. फिर सांस लेने पर हवा फेफड़ों के सबसे छोटे हिस्से तक पहुंचती है. वहां से ऑक्सीज़न खून में जाती है. सांस की नलियों के अंदर हवा के आने-जाने के रास्ते को लूमन कहते हैं. अस्थमा में यही लूमन सिकुड़ने लगता है.
लूमन सिकुड़ने की कई वजहें हो सकती हैं. पहली वजह मांसपेशियों का सिकुड़ना है. इन सांस की नलियों के चारों ओर गोल-गोल मांसपेशियां होती हैं. जब ये मांसपेशियां सिकुड़ने लगती हैं, तो लूमन छोटा हो जाता है. दूसरी वजह हवा के रास्तों में सूजन आना है. इससे लूमन और छोटा हो जाता है. तीसरी वजह इन छोटे लूमन में कुछ जमा हो जाना है. इससे हवा फेफड़ों के उस हिस्से तक नहीं पहुंच पाती, जहां से ऑक्सीज़न खून में मिलती है. जब शरीर को ज़रूरत भर ऑक्सीज़न नहीं मिलती, तो मरीज़ की सांस फूलने लगती है. कफ रिसेप्टर्स (खांसी को ट्रिगर करने वाले सेंसर) भी एक्टिव हो जाते हैं. इससे खांसी आने लगती है और मरीज़ को सीने में जकड़न महसूस होती है.
किन कारणों से अस्थमा अटैक पड़ता है?
अस्थमा एक एलर्जिक कंडीशन है. हर इंसान का शरीर अलग-अलग चीज़ों पर अलग तरह से रिएक्ट करता है. जो चीज़ें एक व्यक्ति को सूट करती हैं, ज़रूरी नहीं कि वो दूसरे को भी सूट करें. अगर व्यक्ति को किसी चीज़ से एलर्जी है और वही चीज़ उसके शरीर में चली जाए, तो उसकी सांस की नलियां और ज़्यादा सिकुड़ने लगती हैं जिससे अस्थमा की परेशानी बढ़ सकती है.
एलर्जी फैलाने वाली चीज़ें कई तरह की हो सकती हैं, जैसे धूल. फूलों के पराग (पॉलेन्स), जो कुछ खास मौसम में हवा में ज़्यादा होते हैं. तापमान में अचानक बदलाव. मौसम का अचानक बदल जाना. ऊंची जगहों पर जाना (Altitude change). कभी-कभी एक्सरसाइज़ करने से भी एलर्जी हो सकती है. कुछ लोगों को मधुमक्खी के आसपास रहने से एलर्जी होती है. कई बार बच्चों को पार्क में खेलते समय किसी खास घास या फूल से एलर्जी हो जाती है, पर उन्हें इसका पता नहीं चलता. जब एलर्जी पैदा करने वाली ये चीज़ें शरीर में पहुंचती हैं, तो एलर्जी के लक्षण बढ़ जाते हैं. जैसे अचानक खांसी आना. सांस ज़्यादा फूलना. सीने में जकड़न बढ़ना. जब ये लक्षण बढ़ जाते हैं, तो आमतौर पर इसे अस्थमा अटैक कहा जाता है.

जब अस्थमा अटैक पड़े तो क्या करना चाहिए?
बहुत सारे मरीज़ इन्हेलर का इस्तेमाल नहीं करते. उन्हें लगता है कि अगर इन्हेलर लेना शुरू कर दिया, तो बाकी दवाइयां असर नहीं करेंगी. मगर ये सिर्फ एक मिथक है, सच नहीं है. इन्हेलर अस्थमा का सबसे बेहतर इलाज हैं, चाहे अटैक के वक्त हो या रोज़ के इलाज में. दरअसल, जब हम कोई टैबलेट लेते हैं, वो आमतौर पर 500 या 600 मिलीग्राम की होती है. वो दवा पहले पेट में जाती है और फिर वहां से खून में एब्ज़ॉर्ब होती है. इसके बाद वो पूरे शरीर में फैल जाती है. ऐसा कोई फिल्टर नहीं होता कि दवा सिर्फ फेफड़ों तक पहुंचे. वो शरीर के दूसरे हिस्सों, जैसे पैर में भी पहुंचती है. ऐसे में फेफड़ों तक वो बहुत कम मात्रा में ही पहुंच पाती है. इस वजह से टैबलेट के साइड इफेक्ट ज़्यादा हैं.
वहीं, इन्हेलर की डोज़ माइक्रोग्राम में होती है. माइक्रोग्राम यानी 1 मिलीग्राम का 1000वां हिस्सा. इन्हेलर में आमतौर पर 200 या 250 माइक्रोग्राम की दवा होती है. यानी एक मिलीग्राम का एक चौथाई या पांचवा हिस्सा. ये दवा सीधे सांस के रास्ते फेफड़ों में पहुंचती है, जहां इसे काम करना चाहिए. ये शरीर के बाकी हिस्सों में नहीं जाती, इसलिए इसके साइड इफेक्ट्स भी नहीं होते. इसलिए, इन्हेलर को ही अस्थमा का मेन इलाज माना जाता है.
आज के समय में मार्केट में बहुत से ब्रांड्स उपलब्ध हैं. अगर आपको टैबलेट, सिरप या इन्हेलर में से किसी को चुनना है, तो इन्हेलर को चुनें. अगर कभी अस्थमा अटैक पड़े तो इन्हेलर को दो बार लें. आराम न मिले, तो 10 मिनट बाद दोबारा ले सकते हैं. अगर नेबुलाइज़र है, तो उसे भी इस्तेमाल कर सकते हैं. ज़रूरत लगे तो 20–30 मिनट बाद नेबुलाइज़र दोबारा इस्तेमाल करें. इन्हेलर और नेबुलाइज़र से अस्थमा अटैक को कंट्रोल किया जा सकता है.
अगर इन्हेलर नहीं है तो क्या करें?
अपनी एक्टिविटी को तुरंत कम करें. जैसे ही आप ज़्यादा एक्टिव होंगे, शरीर को ज़्यादा ऑक्सीज़न की ज़रूरत पड़ेगी. इससे आपकी तकलीफ बढ़ेगी और सांस ज़्यादा फूलने लगेगी. इसलिए, खुद को शांत करें. अगर खड़े हैं और गिरने का डर है, तो दीवार का सहारा लेकर बैठ जाएं. अगर आपके पास इन्हेलर या नेबुलाइज़र नहीं है, तो देखें कि क्या कोई दवा मौजूद है, जैसे डेरीफाइलीन या थियोफाइलिन की टैबलेट वगैरह. कुछ सिरप भी होते हैं, जिनमें टर्ब्युटालिन नाम का तत्व पाया जाता है. इनसे भी थोड़ी राहत मिल सकती है. राहत मिलते ही तुरंत किसी को मदद के लिए बुलाएं और डॉक्टर से मिलें.
अस्थमा को पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता. लेकिन, इसे कंट्रोल में रखा जा सकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि जिस चीज़ से आपको एलर्जी है, उससे दूर रहें. अगर सांस लेने में ज़रा-सी भी दिक्कत महसूस हो. खांसी आए, तो बिना देर किए इन्हेलर का इस्तेमाल करें. इन्हेलर का सही वक्त पर इस्तेमाल आपकी जान बचा सकता है.
(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
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