मीडिया वालों के लिए फिल्म की आधिकारिक रिलीज़ से पहले प्रेस शो रखे जाते हैं. ताकि वो फिल्म देखकर अपना रिव्यू फिल्म रिलीज़ होने तक तैयार कर लें. मैं जब दफ्तर से फिल्म देखने के लिए निकल रहा था, तब रास्ते में कई लोगों ने पूछा कि कौन सी फिल्म देखने जा रहे हो. जवाब दिया ‘ज़रा हटके ज़रा बचके’. सबके चेहरे पर सवालिया निशान दिखा. फिर अचानक से बोलते. अच्छा, वो जिसके प्रोमोशन में विकी कौशल और सारा अली खान हर जगह दिख रहे हैं. काश प्रोमोशन जितनी ही मेहनत फिल्म पर की गई होती.
मूवी रिव्यू: ज़रा हटके ज़रा बचके
ये फिल्म एक पॉइंट के बाद खुद समझ नहीं पाती कि ये कहना क्या चाहती है.

‘ज़रा हटके ज़रा बचके’ की कहानी शुरू होती है कपिल और सौम्या से. हमें पता चलता है कि कॉलेज के ज़माने से दोनों प्यार में थे. फिर शादी हुई और अब अपनी शादी की दूसरी एनिवर्सरी मना रहे हैं. कपिल और सौम्या की दुनिया इंदौर और उस शहर के किरदारों के बीच बसी है. दोनों को अपने घर में अपने लिए जगह नहीं मिल रही. अपना घर बनाना चाहते हैं. लेकिन उससे पहले घर तोड़ना होगा. यानी तलाक लेना होगा. असली नहीं बस दुनिया वालों को दिखाने के लिए. ऐसा क्यों हैं, वो आप फिल्म देखकर समझेंगे. बशर्ते आप फिल्म देखना चाहें. कपिल और सौम्या के इस नकली तलाक के चक्कर में कितना असली बवाल कटता है, यही फिल्म की कहानी है.
ड्रामा कॉमेडी फिल्मों को एक बात का खास ध्यान रखना होता है. अपने किरदारों और उनकी दुनिया को रिलेटेबल बनाना होता है. कि उनको आप अपने से जोड़ सकें. वरना आप क्यों किसी दूसरे के घर की कहानी, उनके कलेश जानने में इच्छुक होंगे. ‘ज़रा हटके ज़रा बचके’ बस यही नहीं कर पाती. पूरे समय लगता है कि आप दर्शक की तरह फिल्म देख रहे हैं. उनकी कहानी में उतरते नहीं. हर मुख्य किरदार के पास एक कारण होता है जिसकी वजह से वो कुछ फैसले लेता है. और फिर उन्हीं का परिणाम भुगतता रहता है. यहां उस कारण को ठोस बनाने की कोशिश नहीं हुई. बस ऊपर-ऊपर से दिखा दिया और काम हो गया.
हम कपिल और सौम्या से मिलते हैं. उनकी कुछ खामियां, कुछ खासियत देखते हैं. जैसे कपिल हर जगह पैसे बचाने की कोशिश में लगा रहता है. वहीं सौम्या को कोई मिसेज़ दुबे बोले तो वो सामने वाले को ठीक करती है. अपना पूरा नाम सौम्या चावला दुबे बताती है. उनकी ये चीज़ें हम लगातार देखते हैं. मगर मसला है कि वो ऐसे क्यों हैं, इसकी गहराई में उतरना नहीं चाहती. उनके बारे में इतना नहीं मिलता कि एक पन्ना लिखा जाए. किरदार बहुत सतही लगते हैं. इसलिए कोई जुड़ाव महसूस नहीं होता. ऐसा ही सपोर्टिंग कैरेक्टर्स के लिए भी है. मुख्यधारा की ऐसी फिल्मों में सपोर्टिंग कैरेक्टर्स को एक ही काम के लिए रखा जाता है. ह्यूमर निकालने के लिए. कुछ-कुछ मौकों पर फिल्म ऐसा कर भी पाती है.
आपको कुछ मौकों पर हल्की-फुल्की हंसी आएगी. कुछ जगह कपिल और सौम्या का रोमांस प्यारा भी लगेगा. लेकिन वो बस कुछ पल ही हैं. पूरी फिल्म के सामने ये पल बहुत कम पड़ जाते हैं. फिल्म अपनी तमाम उधेड़बुन के बाद अपने एंड तक पहुंचने लगती है. पहुंचती नहीं है बल्कि अपने पांव घसीटती है. सेकंड हाफ में मैं इंतज़ार करने लगा था कि फिल्म आखिर खत्म कब होगी. जब कहानी में सब कुछ फैल जाता है तो एंड में आकर उसे समेटना होता है. बाकी किरदारों का इस बात से राबता करवाना होता है कि मुख्य किरदार क्या कांड कर चुके हैं. उस मामले में भी फिल्म चूक जाती है. एक-दो डायलॉग में ही सारी 'भूल-चूक माफ और आगे बढ़ो आप' हो जाता है.
मुझे लगा था कि अगर फिल्म की कहानी निराश करेगी तो कम से कम विकी कौशल और सारा अली खान से तो उम्मीद रखी ही जा सकती है. लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. विकी का किरदार है इंदौर का बंदा. और सारा का किरदार सौम्या पंजाबी फैमिली से आती है. बस इतना बताकर बात आगे बढ़ सकती थी. लेकिन नहीं. कपिल आपको लगातार इंदौरी एक्सेंट के साथ बात करते दिखेगा. और सौम्या को बीच-बीच में बिना बात पंजाबी के शब्द इधर-उधर करने होंगे.
विकी के साथ होता ये है कि वो कई मौकों पर अपने किरदार से बाहर आ जाते हैं. नॉर्मल टोन में इंदौर वाले एक्सेंट के साथ बोलते हैं और आवेश में आते ही विकी कौशल बाहर आ जाता है. सारा का मीटर भी ऊपर चल रहा था. खासतौर पर इमोशनल सीन्स में. आराम से किरदार को कंट्रोल में रखा जा सकता था. लेकिन दोनों एक्टर्स के पार्ट पर चीज़ें कई मौकों पर ओवर चली गईं. ‘ज़रा हटके ज़रा बचके’ इन दोनों एक्टर्स की यादगार फिल्मों में नहीं गिनी जाएगी. फिल्म में कुछ मोमेंट्स हैं जो एंटरटेन करते हैं. उनके अलावा फिल्म खुद नहीं समझ पाती कि ये कहना क्या चाहती है.
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