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फ़र्ज़ी - वेब सीरीज़ रिव्यू

बड़े-बड़े सितारों से सजी वेब सीरीज़ 'फ़र्ज़ी' कितना डिलीवर कर पाती है?

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विजय सेतुपति इस सीरीज़ का सबसे बुलंद सितारा हैं.

एक रचनात्मक ओपनिंग क्रेडिट के साथ 'फर्ज़ी' शुरू होती है. पांच सौ के नोट के अंदर के सारे तत्व तैरते हैं. एक के भीतर से दूसरा प्रकट होता है. प्लेक्सस पोस्ट ने इसे रचा. कुछ ऐसा ही टाइटल क्रेडिट 'थूनिवु' का भी रहा जो 'फर्ज़ी' के ठीक एक दिन बाद नेटफ्लिक्स पर आई. डायरेक्टर एच. विनोद की 'ल कासा द पापेल' नुमा एक्शन हाइस्ट ड्रामा. शाहिद का किरदार सनी स्मॉल टाइम पेंटर है. लेकिन कंप्यूटर सरीखी सूक्ष्म बारीकी वाला चमत्कारी आर्टिस्ट है. 'तुम्बाड' फेम डीओपी पंकज कुमार का कैमरा इस किरदार को इंट्रोड्यूस करता है. सनी केनवस पर कुछ उतार रहा है, कैमरा पीछे से दाहिनी तरफ मूव करते हुए उसके सामने की ओर जाता है, सनी की गर्दन पर बने उड़ते पंछी की मूविंग इमेजेज़ पर सूरज की किरणों को ढांपते हुए. उस पंछी के चित्रों के ठीक नीचे गले पर टैटू बना होता है - Art is Truth. एक गूढ़ पंक्ति, जो जैसी दिखती है वैसी है नहीं. 

1907-08 में पाब्लो पिकासो ने जॉर्ज ब्राक के साथ मिलकर घनवाद (cubism) की प्रभावशाली चित्र शैली को जन्म दिया था. उसमें एक ही चित्र में विषयों या आकृतियों को अलग अलग दृष्टिकोण के साथ चित्रित किया जाता था, जिससे चित्र विभक्त और अमूर्त दिखलाई पड़ता था. सनी के टैटू के उलट पिकासो ने कहा था - “हम सब जानते हैं कि Art सत्य नहीं है. Art एक ऐसा झूठ है जो हमें सत्य की तरफ ले जाता है. कम-स-कम वो सत्य जो हमारे सामने रखा गया है." सनी जो कलाकृतियां बनाता है, ख़ासकर मशहूर पेंटर्स की रेप्लिका, वो सीधी सहज रेखाएं हैं जिन्हें वो कॉपी करता है. सनी ने कभी अपना कुछ मौलिक बनाया हो, जिसमें दुनिया के सत्य को पेंटब्रश की आडंबरी रेखाओं के माध्यम से उसने खोजना चाहा हो, ऐसा सीरीज में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता है.

तो यहां हम Art और truth, और उसकी समानांतर गहरी विवेचना से तुरंत दूर हट जाएं तो ही अच्छा हो. तो ही इस कहानी में आगे बढ़ा जा सकेगा. क्योंकि आर्ट यहां सिर्फ एक सजावटी उपकरण है, कहानी में ये स्थापित करने के लिए कि सनी अपने हाथ से पांच सौ के नोट की हूबहू नकल सफेद पन्ने पर कैसे पेंट कर सकता है. उसके और उसके नाना के पेंटर होने का मेटाफर कुछ फैंसी भी तो लगता है. इतनी ही इसकी उपयोगिता है. सनी और 'द फैमिली मैन' वाले सर्जक द्वय राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की इस कहानी की दिशा कुछ और है.

सीन की निरंतरता में आगे बढ़ें तो सनी पेटिंग बना रहा होता है किसी स्त्री ग्राहक की. दूसरी ओर एक दूसरा ग्राहक उसकी कॉपीज़ को खड़ा टटोल रहा होता है. इनके बीच संवाद होता है.  

ग्राहक - ये वैन गॉग तेरी है क्या. कोई फर्क ही नहीं लग रहा है. Its too good. कितना लोगे?
सनी - छे हज़ार
ग्राहक - इतने में तो ओरिजिनल मिल जाएगी. सीधा भाव लगा न. मेरे हिसाब से इसके लिए एक हज़ार भी बहुत है.
सनी - असली कॉपी बनाने में भी कला लगती है सर. इग्जैक्ट रेप्लिका है.
कस्टमर - बकवास छोड़. है तो नकली ही ना. इसे मैं अपने घर पे लगाऊंगा, तो असली लगेगी?
सनी - अगर आपकी औकात है सौ करोड़ की पेंटिंग घर में लगाने की तो असली लगेगी सर.

यहां आते आते लगने लगता है कि ये कस्टमर इतनी बेइज्जती सुनकर सनी को थप्पड़ जड़ देगा.

ख़ैर, यहां जो भाव सनी के किरदार को लेकर पूरी सीरीज के संदर्भ में प्रकट होता है. वो कुछ यूं है कि - ये बात सत्य है कि घर महल हो और वहां कोई नकली पेटिंग भी लगी हो तो वैल्यू 100 करोड़ ही मानी जाएगी. मानो कि, महलों समान घरों में रहने वाले उद्योगपति कोई गलत काम नहीं करते. वे फर्जी भी होते हैं तो खरे ही सर्टिफाइड प्रतीत करवाए जाते हैं उनके कम्युनिकेशंस डिपार्टमेंट द्वारा. कहीं न कहीं सीरीज के पहले एपिसोड के इस पहले सीन से ही सनी की मनोवृत्ति साफ हो जाती है. कि घर या बंगला औकात वाला हो तो आप फर्जी होकर भी फर्जी न होगे. इसीलिए आगे जाकर वो मिलावट का रास्ता लेता है, जाली काम का रास्ता लेता है. जिससे सोने का महल खरीदेगा और ऐसे महल में तो जाली से जाली चीज भी खरी ही लगेगी.

कहानी में आगे वो अपने बचपन के दोस्त फिरोज़ के साथ मिलकर 500 के नकली नोट ही बना देने का निर्णय लेता है. रातों-रात निर्धनता का अंत करने का उपाय.

कहानी में दूसरी तरफ है मंसूर दलाल. केके मेनन द्वारा पर्याप्तता से निभाया पात्र. मंसूर अंतर्राष्ट्रीय अपराधी है. जाली करंसी बनाने और उसे भारत के बाजार में डालने का दोषी है. राज डीके, सीता आर मेनन और सुमन कुमार की स्क्रिप्ट, और हुसैन दलाल (अतिरिक्त संवाद राघव दत्त के) के हिंदी डायलॉग्स सारे प्रमुख किरदारों को उनका चरित्र प्रदान करते चलते हैं. सबका अपना ह्यूमर है, नैतिक-अनैतिक मूल्य हैं. वे डरते भी हैं, डराते भी हैं. मंसूर भी ऐसा ही एक पात्र है. एक दृश्य में उसके और सनी के बीच तीन-चार लाइन का संवाद है और वो मंसूर के व्यक्तित्व का एक पहलू बता जाता है.  

मंसूर - तू जानता है मैं कौन हूं?
सनी - (सिर हिलाता है कि नहीं जानता हूं)
मंसूर - अरे मुंह से बोल ना
सनी - नहीं (जानता)
मंसूर - अच्छा है. इसीलिए जिंदा है.... और गरीब भी.

यहां आप सोचने लगते हैं और पाते हैं कि थोड़ा उलटबांसी डायलॉग है. जिसे उल्टा करके देखें तो मंसूर कह रहा होता है कि मुझे नहीं जानता इसलिए अब तक जिंदा है और इसीलिए गरीब भी है. मुझे जानता होता तो अब तक राजा बन गया होता.

आश्चर्यजनक ढंग से उसके ऊपर भी एक पूरा पदानुक्रम है. बॉसेज़ हैं जो उसे निर्देश देते हैं और वो उनके नाम से कांपता है, बिचकता है. ये सिरा इस कहानी को आगे के सीज़न्स के लिए प्रचुर आसमान देता है. कितने ही सीजन बनाए जा सकेंगे, कितने ही टारगेट होंगे जिनके पीछे भारत के स्पेशल एजेंट जा सकेंगे. विशेषकर माइकल. वो स्पेशल टास्क फोर्स का अफसर है और उसमें मंसूर को रोकने की अधीरता है. प्रबल कामना है. जिससे खीझकर मंत्री पवन गहलोत (ज़ाकिर हुसैन) का पात्र एक जगह तंग होकर हाथ भी जोड़ लेता है और कहता है - "ये आपकी निजी चुल्ल है. कृपया अपनी चुल्ल का निवारण स्वयं करें." माइकल विश्व सिनेमा में टीवी/वेब सीरीज़ का जो इकोसिस्टम है उसमें एक नई प्रविष्टि है. उसके किरदार का डीएनए, ऐसी दूसरी क्राइम थ्रिलर्स या मर्डर मिस्ट्रीज़ के केंद्रीय पात्रों के जैसा ही है. परन्तु वो इनसे भिन्न भी है. 

जैसे 'द फैमिली मैन' का श्रीकांत तिवारी भी भिन्न होता है. आप चाहे किसी भी ब्रिटिश, अमेरिकी, डेनिश सीरीज को उठा लें. माइकल को आप 'होमलैंड' की सीआईए ऑपरेटिव कैरी मैथिसन का समरूप कह सकते हैं. माइकल का प्रोफाइल विविधता भरा रहा है. अभी वो काउंटरफीटिंग पर काम कर रहा है लेकिन पहले कई तरह के अपराधों के खिलाफ काम कर चुका है. वो भविष्य में कैरी की तरह काउंटर-टेरेरिज़्म पर भी काम कर सकता है. माइकल अपने जैसे बाकी पात्रों से अलग यूं है कि वो पैनिक नहीं करता. वो इरीटेट होता है लेकिन उसे खुद को संभालना भी आता है. उसे पवन गहलोत जैसे मंत्री को ब्लैकमेल करना भी आता है, उसके साथ खेलना भी आता है. वो गहलोत द्वारा दी मां की गाली को तत्क्षण उसी की तरफ मोड़ देता है और फिर प्रशंसा करके क्रुद्ध गहलोत को ठंडा भी कर देता है. अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए उसे एक राजनेता से काम निकलवाना होता है, और वो निकलवाता जाता है. इन दोनों के बीच का जो हास्य है वो इस सीरीज में सबसे आनंद की वस्तु है, हालांकि सारा हास्य गालियों और अपशब्दों पर खड़ा होता है. गहलोत और माइकल जैसी जुगलबंदी पहले किसी भी सीरीज में देखी हो, याद नहीं आता है. एक करप्ट पोलिटिकल और सोशल सिस्टम में रहते हुए माइकल को खुद भी करप्शन करने से परहेज नहीं है. वो एक लापरवाह पिता है, एक अनिच्छुक पति है, एक अस्पष्ट प्रेमी है - लेकिन वो एक बेजां स्पष्ट ऑफिसर है.  

पर्याप्त पके भूरे रंग, मिठास और कालीमिर्च-अदरक की तीखी छुअन वाली जो मसाला चाय होती है, 'फर्ज़ी' वैसी ही स्वाद भरी मसाला सीरीज़ है. पहले सीजन में ये जहां खत्म होती है, वो दूसरे सीजन के लिए मजबूत अधीरता देकर जाती है. प्राइम वीडियो पर इसके आठ एपिसोड औसतन 50 मिनट लंबे हैं, किन्तु वे और भी लंबे लगते हैं, ये इसकी सफलता है. जो बात इस सीरीज़ में मिसफिट है वो है क्रांति को लेकर इसका संदर्भ. सनी कहता है - "ये अमीर लोग ने िसस्टम बनाया, जिसमें गरीब लोग उधार चुकाएगा और अमीर ब्याज खाएगा. साला इस सिस्टम को तोड़ने के लिए क्रांति लानी पड़ेगी". वो एक जागरूक नागरिक की तरह, अनभिज्ञ फिरोज का ये भ्रम तोड़ता है कि वो टैक्स नहीं देता है. वो बताता है कि रोज़ कितने तरह के इनडायरेक्ट टैक्स गरीब से गरीब नागरिक भी भरता है. वो बैंकों का लोनतंत्र भी समझाता है. 'थूनिवु' में इसी तर्ज पर बैंकों का क्रेडिट कार्ड स्कैम समझाया जाता है, जहां कार्ड देते समय कहा जाता है कि ये एकदम फ्री है, जबकि वो सबसे महंगी ऋण व्यवस्था है. 

सनी बताता है कि पैदा होने से मरने तक कितने तरह के लोन हम लेते चले जाते हैं (हालांकि यहां बच्चों का जिक्र आने पर वो जो अपशब्द बोलता है वो अशोभनीय था). ठीक है कि विश्व मौद्रिक व्यवस्था और बैंकिग व्यवस्था, बेहद संदिग्ध व्यवस्थाएं हैं और उनका कोई विकल्प खोज पाना एक बड़ा आविष्कार होगा. पीटर जोसेफ अपनी डॉक्यूमेंट्री सीरीज 'ज़ाइटगाइस्ट' में राजनीतिक और धार्मिक कंसपीरेसी थ्योरीज़ के साथ-साथ आर्थिक कंसपीरेसी थ्योरीज़ भी प्रस्तुत करते हैं. वे कहते हैं कि अमेरिकी फेडरल रिज़र्व सिस्टम को अंतर्राष्ट्रीय बैंकरों का एक गोपनीय समूह चलाता है और वे लोग आर्थिक आपदाएं निर्मित करते हैं ताकि पैसा बना सकें. 'फर्ज़ी' क्रांति पत्रिका के माध्यम से और सनी के कुछ संवादों के माध्यम से एक रेवोल्यूशन की आकांक्षा व्यक्त की जाती है लेकिन वो रेवोल्यूशन कैसा होगा, इसकी कोई रूपरेखा नहीं रखी जाती, कोई जिक्र तक नहीं होता.  

'फर्जी' की राइटिंग में ये जो एंटी-एस्टैबलिशमेंट की बात है, या सिस्टम को तोड़ने के लिए किरदार ये सब कर रहा है, या एक जगह वो बोलता भी है कि देखो हमने सिस्टम को तोड़ दिया है - ये सब आर्ग्युमेंट, सीरीज में अपने शीर्षक अनुरूप नकली बौद्धिकता डालने का प्रयास है. न तो कहानी में क्रांति का कोई लॉर्जर रेलेवेंस है, न सनी का किरदार नकली नोट छापकर कोई सिस्टम ब्रेक करता है. हां वो इकोनॉमिक सिस्टम में नकली नोटों की बड़ी खेंप डालने में कामयाब रहता है लेकिन उससे भी कोई सिस्टम ब्रेक नहीं होता है. सिस्टम की नजर में वो अपराधी ही बनकर रह जाता है. ये और बात है कि सीजन 2 में मेकर्स चाहेंगे तो उसे इंटेलिजेंस इकोसिस्टम का ही हिस्सा बना लेंगे, अपना कोई एसेट बना लेंगे. एक जगह वो कहता है कि इतना पैसा कमाना है कि पैसे की इज्जत ही न करनी पड़े. विचार बेहद उत्कृष्ट है और बहुत ही गहराई भरा है. लेकिन कहानी में इस थॉट का भी एक्सटेंशन मुझे नहीं नजर आता. क्योंकि सनी बहुत पैसा कमा लेता है फिर भी पैसे की इज्जत उसकी नजरों में कम नहीं होती, बल्कि उसका लालच बढ़ता ही जाता है. जब तक कि उसके लिए ये सब करना फीज़ेबल नहीं रह जाता है. तभी वो रुकता है. या फिर तब जब सबकुछ उससे छीन लिया जाता है.

एक दृश्य होता है सनी और उसके नाना (अमोल पालेकर) के बीच. वे समाज में अपनी कलम से क्रांति लाने और तरह तरह की असमानताओं को दूर करने वाले पत्रकार हैं. वयोवृद्ध संपादक हैं. लेकिन अपने आखिरी संपादकीय में वे व्याकरण और वर्तनी की अशुद्धियां छाप देते हैं, या कहें कि प्रोडक्शन आर्ट वाले ऐसा करते हैं. इसमें नानाजी कहते हैं - "मैं सिर्फ ये कह रहा हूं कि पैसा भगवान नहीं होता". तो खिलाफ न प्रतीत होते हुए भी विरोधी विचार रखते हुए होले से सनी कहता है - "भगवान से कम भी तो नहीं होता न नानू". और यहां आपको वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे दिलीप सिंह जूदेव याद आ जाते हैं जिन्होंने कुख्यात तौर पर कहा था - "पैसा ख़ुदा नहीं, पर ख़ुदा की कसम, ख़ुदा से कम भी नहीं". उस स्टिंग ने उनका पोलिटिकल करियर खत्म कर दिया था.

यही सोच सनी से भी उसका सबकुछ ले लेती है. उसकी प्रेस, पत्रिका, नानू, सारे प्रिय लोग, उसका सम्मान, उसका करार, उसका महल और उसके भीतर का बचा खुचा आर्ट भी. पीछे बचता है सिर्फ - प्रतिशोध.

वीडियो: रिव्यू: फ़र्ज़ी