Vedaa
Director: Nikkhil Advani
Cast: John Abraham, Sharvari Wagh, Abhishek Banerjee
Rating: 3 Stars
मूवी रिव्यू - वेदा
Stree 2 और Khel Khel Mein के सामने रिलीज़ हुई Vedaa में कितना दम है?
बहुत लंबे वक्त से मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा जाति व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी करने से बचता रहा है. लोग ऐसे में तमिल सिनेमा का रुख करते हैं. पा रंजीत से लेकर वेट्रीमारन के डाइवर्स सिनेमा को कोट करते हैं. निखिल आडवाणी ने अब इसी टॉपिक को अपने ढंग से दिखाने की कोशिश की, और वेदा नाम की फिल्म बनकर तैयार हुई. कुछ जगहों पर वो सही से चोट कर पाए, और कुछ पॉइंट्स पर अनंत काल वाली गलतियां कर बैठे.
कहानी खुलती है राजस्थान के बाड़मेर से. वेदा कथित नीची जाति से आती है. जिस शीशे में अपना चेहरा देखकर कॉलेज के लिए निकलती है, उस पर डॉक्टर आंबेडकर की फोटो चिपकी है. कॉलेज में पानी पीने के लिए सूखे, गंदे घड़े का रुख करना पड़ता है. दुनिया ने वेदा को सिखाया कि तुमको ऐसे देखना है, ऐसे चलना है लेकिन एक चीज़ पर किसी का ज़ोर नहीं चला. वेदा को बॉक्सिंग का चस्का लग जाता है. उसे भी कॉलेज में बॉक्सिंग सीखनी है. यहां एंट्री होती है अभिमन्यु की. वो आर्मी ऑफिसर था, किसी वजह से कोर्ट मार्शल कर के सेना से बरखास्त कर दिया गया. अब वेदा के कॉलेज में बॉक्सिंग सिखाने आया है. ये दोनों तो अच्छे लोग हुए. कहानी में विघ्न डालने के लिए विलेन तो चाहिए. वो जगह भरी है जितेंद्र सिंह ने. जितेंद्र प्रधान है और कथित ऊंची जाति का आदमी है. जाति के दंभ में वो कुछ ऐसा करता है कि वेदा और अभिमन्यु का दुश्मन बन जाता है. आगे दोनों उससे बचते हैं, लड़ते हैं. इस दौरान वेदा अपने लिए न्याय की परिभाषा कैसे बुनती है, यही फिल्म की कहानी है.
फिल्म अपने मैसेज को लेकर कैसा स्टैंड रखती है, अगर आपको ये समझना है तो ऑडियो-वीडियो वाले मीडियम सिनेमा के इन्हीं दोनों पक्षों पर ध्यान दीजिए. फिल्म में एक सीन है जहां वेदा अपने कॉलेज जा रही है. पीछे से प्रधान का छोटा भाई अपनी गाड़ी लेकर आता है, और उसका एक्सीडेंट कर देता है. सीन यहीं पर खत्म नहीं होता. आगे वो उसे इस बात की सज़ा देता है कि उसने बॉक्सिंग सीखने की जुर्रत कैसे की. प्रधान के भाई और उसके दोस्त वेदा को घेर लेते हैं. अब अचानक से सिनेमैटोग्राफर मलय प्रकाश का कैमरा दूर चला जाता है. बड़ी दूर से दिखता है कि प्रधान का भाई वेदा को मुक्के मार रहा है. बैकग्राउंड में कोई आवाज़ नहीं आ रही. एक अजीब सा सन्नाटा है. फिल्म इस पॉइंट पर एक मूक दर्शक बनी हुई है, जिसे दूर से कुछ ऐसा होता दिखाई दे रहा है पर कुछ सुनाई नहीं दे रहा. या वो सुनना नहीं चाहता.
फिल्म में कुछ और ऐसे सीन हैं जहां जातीय भेदभाव को कॉल आउट किया गया, तब भी कैमरा और साउंड के साथ मेकर्स ने कुछ ऐसे ही एक्सपेरिमेंट किए. यहां मलय की एक बार फिर बात करनी होगी. कहानी की शुरुआत में वेदा दिशाहीन होती है. उसके खिलाफ अत्याचार हो रहा है, लेकिन मन की टीस को कहां लेकर जाए, ये बताने वाला कोई नहीं. इस दौरान कुछ सीन्स में वेदा को डच ऐंगल में शूट किया गया. यहां फ्रेम थोड़ा टेढ़ा दिखता है. डच ऐंगल के ज़रिए किरदारों की मनोदशा दर्शाई जाती है, कि कैसे वो किसी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंचे हैं या असमंजस में हैं. जब वेदा अपने लिए रास्ता बना लेती है, उसके बाद डच ऐंगल गायब हो जाता है.
‘वेदा’ बनी शरवरी वाघ की एक्टिंग हर प्रोजेक्ट के साथ बेहतर होती जा रही है. यहां वो सही मात्र में इमोशन्स को अपने चेहरे पर जगह देती हैं. किसी भी पॉइंट पर उसे गैर-ज़रूरी ढंग से ड्रामेटाइज़ नहीं करतीं. बाकी जॉन अब्राहम की फिल्मों के अधिकांश मेकर्स ने उन्हें इस्तेमाल करने का एक सेट पैटर्न बना लिया है. गिनती के डायलॉग, एक्शन सीन में बाइसेप्स दिखानी है और हमेशा सीरियस दिखना है. जॉन ‘वेदा’ में भी यही कर रहे हैं. बाकी प्रधान के रोल में अभिषेक बैनर्जी ने अच्छा काम किया है. वो ऐसे पॉलीटिशियन बने हैं जिसे अपनी राजनीति चमकानी आती है. बाहर से लोगों का लीडर बनेगा और अंदर से कुछ और ही. अभिषेक इन दोनों पक्षों को बैलेंस कर के रखते हैं. टिपिकल हिंदी फिल्म के विलन की तरह लाउड हो सकते थे, लेकिन वो सटल बने रहते हैं.
‘वेदा’ के साथ एक समस्या भी है. फिल्म अपना हीरो सही से चुन नहीं पाती. ये वेदा का ही संघर्ष है मगर कई मौकों पर जॉन अब्राहम की फैन सर्विस की गई है. जैसे एक जगह अभिमन्यु एक पार्टी में जाकर प्रधान के भाई और उसके दोस्तों को पीटकर आ जाता है. इस सीन से कहानी में कुछ खास नहीं जुड़ता. बस दर्शकों को जॉन के बाइसेप्स के भरपूर दर्शन होते हैं. ये हीरो फिक्स ना कर पाने का सअबसे ज़्यादा नुकसान क्लाइमैक्स में होता है. उसी के चलते फिल्म का क्लाइमैक्स अपने मैसेज से आपको हिट नहीं कर पाता.
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