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रिव्यू: पर्मानेंट रूममेट्स, सीज़न 3

'पर्मानेंट रूममेट्स' कुछ नया ऑफर नहीं करता. हां, रिलेशनशिप प्रॉब्लम्स को बढ़िया तरीके से अनफोल्ड करता है. इसमें भले ही न्यूनेस न हो, लेकिन कंटेंट ये भरपूर रिलेटेबल है.

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इस बार भी सीरीज में मिकेश और तान्या की वही पुरानी नोक-झोंक है

2014 में देश की सत्ता बदली. इसी साल TVF ने 'पर्मानेंट रूममेट्स' के जरिए देश का कंटेंट बदल दिया. ये TVF की सबसे पहली वेब सीरीज थी. इसे आप भारत की पहली वेब सीरीज भी कह सकते हैं. इसके बाद ही दूसरे लोग इस स्पेस में घुसे. 'पर्मानेंट रूममेट्स' के दो सीजन आ चुके थे. अब तीसरा भी आ गया है. देखते हैं, हमारी उम्मीदों पर खरा उतरा है या नहीं.

तीसरे सीजन की कहानी का बैकड्रॉप भी पहले जैसा ही है. मिकेश और तान्या लिवइन में रह रहे हैं. उनके इर्दगिर्द कुछ पुराने, कुछ नए किरदार हैं. मिकेश-तान्या की पर्सनल और प्रोफेशनल डिफिकल्टीज हैं. इन्हीं से वो रोज़ दो-दो हाथ करते हैं. इनके कारण उनकी रिलेशनशिप्स में अप्स एंड डाउन्स आते हैं. मिकेश भोला है. तान्या स्मार्ट है. ऐसा बाहरी तौर से दिखता है. लेकिन दोनों के भीतर झाकेंगे, तो दोनों ही अलग-अलग समय पर पर भोले भी हैं और स्मार्ट भी.

बेसिकली इस बार मिकेश और तान्या के बीच मसला है, विदेश में सेटल होने का. तान्या जाना चाहती है. मिकेश नहीं जाना चाहता. इसी लॉगलाइन पर  पूरा सीजन टिका है. अगर आपने ट्रेलर देख लिया है, तो कहानी के नाम पर कुछ नया नहीं मिलेगा. बस ट्रेलर जितनी ही कहानी है. इसका ट्रीटमेंट भी टीवीएफ के दूसरे शोज के जैसा ही है. हंसी और आंसू का संगम. टीवीएफ को इसमें महारत हासिल है. उन्हें जनता की नब्ज पता है. वो इसी पर बार-बार चोट करते हैं. चाहे 'पंचायत' हो या 'पिचर्स', सब में पहले आपको हंसाया जाएगा. फिर अचानक से स्ट्रांग इमोशनल मोमेंट आ जाएगा.

चूंकि सिर्फ पांच एपिसोड्स का छोटा सीजन है, इसलिए आप देख जाते हैं. लेकिन जब आप, ख़ासकर मैं किसी कंटेंट की ओर जाता हूं, तो कुछ नया ढूंढ़ता हूं. 'पर्मानेंट रूममेट्स' कुछ नया ऑफर नहीं करता. हां, दो लोगों की रिलेशनशिप प्रॉब्लम्स को बढ़िया तरीके से अनफोल्ड करता है. इसमें भले ही न्यूनेस न हो, लेकिन कंटेंट ये भरपूर रिलेटेबल है. इसलिए आप बोर नहीं होंगे. कई-कई मौकों पर आप खुद को मिकेश या फिर तान्या की जगह रखकर देखने की कोशिश भी करेंगे. डायरेक्टर श्रेयांश पांडे ने ऐसी सिचुएशंस भी पैदा की हैं, जिनमें उनकी टारगेट ऑडियंस फिट बैठ सके. सीरीज देखकर जब मैं उठा, तो काफी देर तक कन्फ्यूज रहा, इसे अच्छा कहा जाए या नहीं. फिर इस नतीजे पर पहुंचा कि इसे रिलेटेबल कहा जाए.

शीबा चड्ढा का काम इस सीरीज का हासिल है

कुछ-कुछ मोमेंट और सीन बहुत सुंदर बन पड़े हैं. वैभव सुमन और श्रेया श्रीवास्तव ने कुछ सीन काफी अच्छे लिखे हैं. एक सीन है जहां मिकेश अपनी मां को बता रहा है कि वो चाहता है, उससे कोई बात करे. पापा की डेथ के बाद उससे किसी ने बात ही नहीं की. मिकेश अपनी मां से कहता है, "आपने कभी बात ही नहीं की, मैं आपके साथ रोना चाहता था, आप मेरे साथ रोए ही नहीं." ये सीन मेरे लिए सीजन का बेस्ट सीन है. सुमित व्यास ने इस सीन में फोड़ा है. बहुत बेहतरीन काम है. वो मेरे पसंदीदा ऐक्टर्स में से हैं. एक ऐक्टर का काम होता है, वो ऐसी ऐक्टिंग करे कि आपको भरोसा दिला दे, जो किरदार वो निभा रहा है, वैसे किरदार सच में होते हैं. सुमित ने वही किया है.

शीबा चड्ढा अगर फ्रेम में हों, आप उन्हें इग्नोर ही नहीं कर सकते. मिकेश की मां के रोल में उन्होंने बहुत रियल ऐक्टिंग की है. अपने बेटे से कुछ कह न पाने का संकोच, मध्यवर्गीय झिझक उन्होंने बहुत कमाल पकड़ी है. ये वैसा काम है, जो आज से कुछ सालों बाद किसी ऐक्टिंग स्कूल में पढ़ाया जाएगा. कैमरे पर कैसे सहज रहा जाता है, कैसे बिना लाउड हुए खुद को पेश किया जाता है. शीबा चड्ढा ने सबकुछ करके दिखाया है. तान्या के रोल में निधि सिंह ने पहले जैसा ही काम किया है. थोड़ी बहुत ऊंच-नीच है. लेकिन इसके लिए उन्हें आप माफ़ कर सकते हैं. पुरुषोत्तम के रोल में एक बार फिर दीपक मिश्रा हंसाते हैं. उनकी इनोसेंस कई मौकों पर अच्छी लगती है. कई मौकों पर इरिटेट भी करती है.

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अगर आप कुछ नया खोज रहे हैं. 'पर्मानेंट रूममेट्स' आपके लिए नहीं है. लेकिन पहले दो सीजन देख चुके हैं, तब ये सीजन भी देखना पड़ेगा. वही पुराना फ्लेवर है. वही पुरानी मिकेश-तान्या की नोक-झोंक है. सीरीज प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है. देख डालिए.