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मूवी रिव्यू: द वैक्सीन वॉर

कई लोग फिल्म देखने के बाद कहेंगे, 'वैक्सीन वॉर' का एक ख़ास नरेटिव है. सभी फिल्मों का होता है. हर फिल्ममेकर अपने तरीके की फिल्म बनाता है. लेकिन फिल्म सिनेमाई तौर पर रिच होनी चाहिए, जो कि 'वैक्सीन वॉर' नहीं है.

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नाना पाटेकर ने फिल्म में जान फूंकने की पूरी कोशिश की है

'द कश्मीर फाइल्स' बनाने वाले डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री की फिल्म आई है, 'द वैक्सीन वॉर'. नाना पाटेकर, पल्लवी जोशी और गिरिजा ओक मुख्य भूमिकाओं में हैं. आज़ादी के पहले एक स्वदेशी आन्दोलन चला था. ऐसा ही एक आन्दोलन इस फिल्म का बैकड्रॉप है, स्वदेशी वैक्सीन. भारत के वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई, भारतीय कोविड वैक्सीन. देखते हैं, आखिर वैक्सीन बनने के इस प्रॉसेस को दिखाने में फिल्म कितनी ईमानदार है?

मैं आगे बढूं उससे पहले जल्दी से 'वैक्सीन वॉर' की कहानी बताए देता हूं. फिल्म ICMR(Indian Council of Medical Research) के डायरेक्टर जनरल रहे बलराम भार्गव की किताब 'गोइंग वायरल' पर आधारित है. फिल्म में बलराम भार्गव का किरदार ही प्रमुख किरदार है. कुछ भारतीय डॉक्टर और वैज्ञानिक हैं, जो हमारे देश में ही वैक्सीन बना रहे हैं. उनके सामने कई तरह की कठिनाईयां आती हैं. उनसे कहा जाता है कि वो वैक्सीन नहीं बना पाएंगे. लेकिन उनका प्रण है कि प्रभावी वैक्सीन बनाएंगे, वो भी कम समय में. न्यूज चैनल/पोर्टल डेलीवायर की साइंस एडिटर रोहिणी सिंह भारतीय वैक्सीन के लिए नकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश करती हैं. बेसिकली रोहिणी को मीडिया के एक ऐसे धड़े के रूप में दिखाया गया है, जो सरकार के खिलाफ है. और यहां वो सरकार के नहीं, कायदे से भारत देश के खिलाफ है.

# जैसा कि फिल्म का नाम है, 'वैक्सीन वॉर'. इसे वॉर की तरह ही ट्रीट किया गया है. फिल्म के म्यूजिक को भी उसी तरह इस्तेमाल किया गया है. वैसा ही जोश भरने की कोशिश बलराम भार्गव अपनी टीम में करते हैं, जैसा सनी देओल ने 'बॉर्डर' में किया था. कहने का मतलब है, जिसे लड़ना है लड़ो, नहीं तो अभी मैदान छोड़कर भाग जाओ. अगर आप इसे बॉर्डर के समकक्ष खड़ा करेंगे, तो कई समानताएं मिलेंगी. जैसे: 
1. इसे भी एक वॉर मूवी की तरह ट्रीट किया गया है. 
2. नाना पाटेकर के किरदार और अन्य किरदारों को काफी लाउड रखा गया है. 
3. फिल्म सत्य घटनाओं पर आधारित है.
4. फिल्म में देशभक्ति का पुट काफी मात्रा में है.

# किसी फिल्म को अच्छी फिल्म बनाता है, उसका विलेन. इस पिक्चर में तीन विलेन हैं. एक तो स्वयं कोरोना वायरस. दूसरा विदेशी ताकतें और तीसरा मीडिया. जैसा कि हमने बताया कि मीडिया की नुमाइंदगी कर रही हैं, रोहिणी सिंह. वही फिल्म की मुख्य विलेन हैं, जो कि काफी कमज़ोर है. उनके साथ कुछ और प्रमुख खलनायकों को खड़ा किया जाना चाहिए था. फिल्म में दिखाया गया है, वो विदेशी ताकतों के कहने पर सबकुछ करती हैं. चूंकि ये सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्म है, ऐसे में उनका एक मजबूत मोटिव पेश किया जाना चाहिए था, कि वो ऐसा कर क्यों रही हैं? चाहे इसे फिक्शनल तरीके से ही जोड़ा जाता. मैं कनविंस नहीं हो पाया, वो इतनी बड़ी फेक न्यूज क्यों फैलाएंगी? हालांकि फिल्म एक ऐसा मीडियम है, जिसमें बहुत ज़्यादा लॉजिक नहीं ढूंढना चाहिए.

# बहरहाल, फिल्म की एक अच्छी बात है कि आप इसमें दिखाए गए फैक्ट्स को झुटला नहीं सकते. फिल्म देखते जाइए, साथ-साथ गूगल करते जाइए. सब कुछ इंटरनेट पर उपलब्ध मिलेगा. फिल्म में सच्चे फैक्ट्स दिखाए गए हैं. फिल्म में नाना पाटेकर का किरदार पत्रकार से कहता है, "आपके फैक्ट्स फैक्ट्स नहीं हैं, सेलेक्टिव फैक्ट्स हैं." कई लोग विवेक अग्निहोत्री पर भी ये आरोप लगा सकते हैं. लेकिन उन्होंने फेक कुछ नहीं दिखाया है. बस एक्सट्रीम दिखा दिया है. मेरी विवेक से भी यही शिकायत रहती है और अनुभव सिन्हा से भी. वो दिखाते फैक्ट हैं, लेकिन इसमें आर्ट और आर्ट ऑफ़ बैलेंस थोड़ा-सा पीछे रह जाता है. साथ ही 'वैक्सीन वॉर' में इतने ज़्यादा तथ्य दिखा दिए हैं कि एक समय के बाद फिल्म इमोशन कम, फैक्चुअल ज़्यादा लगने लगती है.

फिल्म में नाना पाटेकर और अन्य कलाकार

# फिल्म लाउड है, वो अलग बात है. लेकिन बहुत ऑब्वियस भी है. ऐसा ही कुछ मैंने हाल ही में आई फिल्म 'जाने जां' के लिए भी कहा था. जब एक डायरेक्टर के पास विजुअल मीडियम है, तो आप उसे अच्छे से एक्सप्लॉइट करिए. दर्शक को समझदार समझिए. एक उदाहरण पेश कर देता हूं. फिल्म का एक किरदार चीन की सच्चाई बता रहा होता कि कैसे लैब में कोरोना वायरस को बनाया गया. जिस व्यक्ति वो ये सब बातें बता रहा होता है, वो सो जाता है. इसके बाद ऐसा कुछ डायलॉग आता है कि सच सुनने के वक़्त सब सो जाते हैं. जब ये दिखा दिया गया है कि उसे सच नहीं सुनना है, तो ये बोलकर बताने की ख़ास ज़रुरत थी नहीं! ऐसे कई मौके आपको फिल्म में मिलेंगे.

# कहते हैं, ह्यूमन इमोशंस आर यूनिवर्सल. फिल्म इमोशंस का इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश करती है. कुछ जगहों पर ये सहज लगता है. जैसे एक जगह जब बलराम भार्गव का किरदार चॉकलेट देता है. या फिर जब फ्रस्ट्रेटेड प्रिया को एक बच्चा गुलाब देता है. फिल्म ऐसे कई प्यारे क्षण पैदा करती है. लेकिन कई जगहों पर इमोशन ज़बरदस्ती घुसेड़ा गया लगता है. किसी भी आर्ट को देखते हुए अंदर से देशभक्ति की फीलिंग आनी चाहिए, न कि म्यूजिक और आंसुओं के ज़रिए इसे दर्शकों में घुसेड़ा जाना चाहिए.

# फिल्म का क्लाइमैक्स बहुत खींच दिया गया है. फिल्म देखते हुए लगा था कि इसका एंड कुछ स्मार्ट होगा. लेक्चर देने वाला अंत नहीं होगा. लेकिन यहां भी वैसा ही होता है. और काफी लम्बा लेक्चर है. नैतिकता और फैक्ट्स से भरा हुआ क्लाइमैक्स थोड़ा छोटा करना चाहिए था.

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# फिल्म ऐक्टिंग के लिहाज़ से अच्छी है. कहते हैं अच्छा ऐक्टर वो होता है, जब कोई दूसरा डायलॉग बोल रहा हो, उस समय फ्रेम में आप क्या कर रहे हैं! नाना उस समय भी कमाल कर रहे होते हैं. वो पॉजेस के धनी हैं. संवाद अदायगी में कॉमा और फुलस्टॉप का उनसे अच्छा प्रयोग कौन ही कर सकेगा! डॉक्टर प्रिया के रोल में पल्लवी जोशी ने भी बढ़िया ऐक्टिंग की है. उनका साउथ इंडियन एक्सेंट किसी भी क्षण छूटता नहीं है. निवेदिता के रोल में गिरिजा ओक ने भी अच्छा काम किया है. हाल ही में आपने इन्हें 'जवान' में देखा होगा. रोहिणी सिंह का किरदार निभाया है, राइमा सेन ने. उनको फिल्म में ठीकठाक स्क्रीनटाइम मिला है. उन्होंने इसका फायदा भी उठाया है. रोहिणी के किरदार से वैम्प की वाइब आती है. राइमा इसे निभाने में सफल भी रहती हैं. उन्होंने इसके अलावा जितने भी ऐक्टर हैं, सबका काम यथोचित है. हां, सभी की ऐक्टिंग थोड़ा लाउड है, लेकिन इसमें उनकी कोई ख़ास गलती नहीं है. उनसे जो कहा गया होगा, उन्होंने किया है.

कई लोग फिल्म देखने के बाद कहेंगे, 'वैक्सीन वॉर' का एक ख़ास नरेटिव है. सभी फिल्मों का होता है. हर फिल्ममेकर अपने तरीके की फिल्म बनाता है. इसमें कोई ख़ास दिक्कत नहीं है. लेकिन फिल्म सिनेमाई तौर पर रिच होनी चाहिए, जो कि 'वैक्सीन वॉर' नहीं है. बाक़ी निर्णय आप पर है, फिल्म देखना चाहते हैं या नहीं.

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