the films and life of master indian filmmaker bimal roy that you must know
बिमल रॉय: जमींदार के बेटे ने किसानी पर बनाई महान फिल्म 'दो बीघा ज़मीन'
बिमल रॉय की जब भी बात होती है तो सिनेमाई व्याकरण, संदेश और साहित्य के संदर्भ में मधुमति, बिरज बहू, परिणीता, देवदास और यहूदी जैसी फिल्मों का जिक्र होता है.
आपके बच्चे अगर बिमल रॉय जैसों की कहानियों के साये में हैं तो आश्वस्त हो सकती/सकते हैं कि ज़ॉम्बी नहीं बनेंगे, वे सही से बड़े हो रहे हैं.
आप जब इन्हें Black & White, slow, silly और dumb मूवीज़ मानते हुए नए की चकाचौंध में दौड़ रहे होंगे, भ्रम में होंगे. इस गलती में भी न रहें कि 2021 में हैं और Netflix Age आ गया है और आप आगे जा रहे हैं, असल में आप पीछे ही जा रहे हैं.
क्या आप उस 1943 से आगे बढ़े हैं जब बिमल दा ने बंगाल में पड़े अकाल पर फुटेज रिकॉर्ड की थी? अगर बढ़े हैं तो दिखाइए कहां? 2021 में मुख्यधारा में आपका कौन निर्देशक किस समस्या का दस्तावेजीकरण कर रहा है? क्या 1948 से आगे बढ़े हैं जब आजादी के एक साल बाद बिमल दा ने अंजानगढ़ बनाई जो बिहार में आदिवासियों की जमीन हथियाना चाह रहे ताकतवर राजनेताओं का चिट्ठा खोलती थी. जो सत्ता और अल्पसंख्यक आदिवासियों के बीच संघर्ष पर मजबूत टिप्पणी करती थी. 2018 में बता दीजिए आदिवासी किसी फिल्म में. इसलिए उनके जंगल और जमीन की बात इन चलचित्रों में होगी, इसकी तो उम्मीद भी नहीं है. क्या 1949 में प्रदर्शित हुई मंत्रमुग्ध से आगे बढ़े हैं जो हिंदु धर्म में कर्मकांडों और अंधविश्वास पर हंसाते-मजाक करते हुए टिप्पणी करती थी. कहानी एक पति और पत्नी की जो बहुत प्रेम करते हैं लेकिन जब पत्नी पति को भगवान के बराबर रखकर पूजने लगती है तो पति उसे पाठ सिखाने का इरादा करता है. मौजूदा साल तक आते-आते कुछ दिखा सकते हैं ऐसा? या बाहुबली: द बिगिनिंग और बाहुबली : द कन्क्लूजन ही देखनी होगी जिसमें हीरो आता है और हीरोइन को कहता है तुम तो मेकअप करके मेरे लिए सुंदर लगो मैं तुम्हारा भोग भोगना चाहता हूं, तुम्हारा राजा को मारने का प्रण तो मेरे बाएं हाथ का खेल है, मैं तुम्हारे लिए पूरा कर लिए लेता हूं.
हम जैसे लोगों के साथ ये दिक्कत है कि सरकाय लो खटिया जाड़ा लगे देखते हुए बड़े हुए. ऐसी ही सैकड़ों फिल्में देखते गए. ये हमारी सीमा बन गई. सत्यजीत रे, गुरु दत्त और बिमल रॉय और उनकी फिल्मों के बारे में कहीं लिखा देखा तो आलोचकों की कठिन भाषा में. एक डर और झिझक मन में है कि इन फिल्मों को नहीं देखना. ये महान-महान जिस जिस को बोला जाता है उनको नहीं देखना. ऊपर से ये लोग हैं भी ब्लैक एंड वाइट. तो हम नहीं देखते हैं.
लेकिन ये सिर्फ एक भरम है. इन फिल्मों में वो कुछ कम नहीं है जो अक्षय कुमार की धड़कन में था या शाहरुख की दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में था या सलमान की वीरगति में था. हां, इनमें ज्यादा ये है कि वो किस्सा सुनाते सुनाते हमारे डीएनए में ऐसे मानव मूल्य डाल देती हैं कि हम बेहतर, शांत और समझदार हो जाते हैं. हमारे आनंद में कोई कमी नहीं रहती, उल्टे वो बढ़ जाता है.
तो अपने इस भ्रम को दूर करने के लिए बिमल रॉय से बेहतर आदमी कोई हो नहीं सकता. लंदन यूनिवर्सिटी में हिंदी सिनेमा और संस्कृति की प्रोफेसर रेचल डॉयर के मुताबिक बिमल रॉय मल्टीप्लेक्स सिनेमा के पूर्वज हैं. उनकी फिल्मों में मध्यम वर्ग वाला मनोरंजन भी है और समानांतर सिनेमा वाले सरोकार भी. उनकी फिल्में उस दौर की हैं जब निर्देशक अपने मूल्यों और दृष्टिकोण से इसलिए समझौता नहीं कर लेते थे क्योंकि उन्हें किन्हीं काल्पनिक (बॉक्स ऑफिस के) दर्शकों के taste का ख़याल रखना है.
बिमल रॉय ही वे दिग्गज हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा को गुलज़ार और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे बहुत बहुत महत्वपूर्ण फिल्मी रचनाकार दिए.
1909 में12 जुलाई को बिमल दाका जन्म हुआ था. ढाका के सुआपुर गांव में जो अब बांग्लादेश में पड़ता है. वे एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे लेकिन उनकी फिल्में किसी भी तरह की असमानता के खिलाफ थीं. पढ़ाई करने के बाद वे फिल्मों में कुछ करने के लिए कलकत्ता चले गए. वहां न्यू थियेटर्स स्टूडियो में कैमरा असिस्टेंट बन गए. 1935 में फिल्म देवदास में निर्देशक पी. सी. बरुआ को असिस्ट किया. इसमें कुंदनलाल सहगल हीरो थे. बीस साल बाद बिमल दा ने दिलीप कुमार को लेकर देवदास का अपना संस्करण बनाया.
उन्होंने इससे पहले 1944 में अपनी पहली फिल्म (बंगाली) उदयेर पाथे बनाई. इसे हमराही नाम से हिंदी में रिलीज किया गया था. ये अनूप नाम के एक बेरोजगार लेखक की कहानी थी जो एक धनी उद्योगपति अपने लिए भाषण लिखता है. लेकिन बाद में वो उद्योगपति उसके अप्रकाशित उपन्यास अपने नाम से प्रकाशित करवा लेता है. ये विचारधारा, अधिकार और ताकतवर का सामना करने की लड़ाई बन जाती है. इसमें रविंद्रनाथ टैगोर के तीन गाने थे. इसमें पूरा जन गण मन भी था जो बाद में भारत का राष्ट्रगान बना.
वे 1950 में मुंबई आ गए थे. उनके साथ पुरानी टीम के फिल्म एडिटर ऋषिकेश मुखर्जी, म्यूजिक कंपोजर सलिल चौधरी, सिनेमैटोग्राफर कमल बोस और अन्य भी थे. दो साल बाद उन्होंने फिल्म मां बनाई. एक पोस्टमास्टर, उसकी पत्नी और दो बेटों की कहानी थी. पोस्टमास्टर जमींदार के यहां काम करता है. कई मोड़ों से गुजरते हुए अंत में ये एक मां और बेटे की भावुक कहानी बनती है. मेलोड्रामा होते हुए भी इसका प्रस्तुतिकरण ठीक था.
वैसे बिमल रॉय की जब भी बात होती है तो सिनेमाई व्याकरण, संदेश और साहित्य के संदर्भ मेंमधुमति, बिरज बहू, परिणीता, देवदास और यहूदी फिल्मों का जिक्र होता है. और ये बेहद खूबसूरत और बांधने वाली फिल्में हैं लेकिन मैं जिन पांच फिल्मों को फिर से देखना चाहूंगा वे अन्य हैं.
अपनी कहानी छोड़ जाकुछ तो निशानी छोड़ जाकौन कहे इस ओरतू फिर आये न आये
- शैलेंद्र
ये अमृतधारा है. तमाम ज़ेहनी विकारों और आलस्यों का इलाज. वह फिल्म जिसने बिमल रॉय को अमर कर दिया. दो बीघा ज़मीन 1953 में आई थी. कहानी कुछ यूं है. बेहद विनम्र, सीधा किसान शंभू महतो (बलराज साहनी), अपने बूढ़े पिता गंगू, पत्नी पारो (निरुपा रॉय), बेटे कन्हैया और खेती की दो बीघा ज़मीन के साथ गांव में रहता है. अकाल पड़ता है. पर ये परिवार गुजारा करता है. बुरा वक्त कटता है. कुछ अरसा बाद बरसात होती है और पूरे गांव के किसान हर्ष में नाचते-गाते हैं. इस गांव में जमींदार है ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद). पूंजीवादी आदमी है. शहर के एक कारोबारी के साथ मिलकर गांव में मिल लगाना चाहता है. लेकिन उसके मुनाफे की राह में शंभू की दो बीघा जम़ीन है.
शंभू किसी कीमत पर ज़मीन बेचने को तैयार नहीं. नाराज हरनाम एक दिन में सारा कर्ज चुकाने को कहता है. शंभू घर आकर हिसाब लगाता है बेटे के साथ कि 65 रुपये देने हैं. लेकिन ये कर्ज 235 रुपये का बना दिया जाता है. शंभू के पिता गंगू ने कर्ज के बदले जमींदार के यहां मजदूरी की थी लेकिन उसे शामिल नहीं किया जाता. You know, ब्याज. तो पैसे बढ़ गए. बेचारा शंभू कोर्ट भी जाता है जो कि हमारी फिल्मों में कोई किसान नहीं गया होगा. ऊपर से वो अनपढ़ भी तो है. कैसे लड़ेगा?
लेकिन लड़ता है लेकिन हार जाता है. अदालत बोलती है पैसे चुकाओ 235 रुपये. वो भी तीन महीने में. नहीं तो घर-बार नीलाम हो जाएगा. किसान दोस्त की सलाह पर वो कलकता जाता है ताकि शहरी मजदूरी से कुछ quick money बना लेगा और घर लौटकर कर्ज चुका देगा. लेकिन ट्रेन में छुपकर उसका बेटा कन्हैया भी आ जाता है. परेशानी और बढ़ जाती है. ख़ैर, दोनों पहुंचते हैं.
इटैलियन निर्देशक विट्टोरियो डी सीका की Bicycle Thieves (1948) के बेचारे बाप-बेटे की तरह शंभू-कन्हैया भी शहर की डामर वाली निर्दयी सड़कों पर ठोकरे खाते हैं. ये दुनिया गांव जैसी नहीं कि हर कोई हर किसी को रोटी-पानी के लिए पूछता हो. ये शहर है. आप मान नहीं सकते कि इस फिल्म को बनाने वाला एक जमींदार का बेटा था. ये फिल्म न सिर्फ किसानी को समर्पित जबरदस्त फिल्म है बल्कि अभिनेताओं के लिए भी धर्मपुस्तक है.
इसमें शंभू महतो की भूमिका में बलराज साहनी का अभिनय जैसा है उससे ऊपर कुछ नहीं. वे असली शूटिंग के दौरान सड़कों पर रिक्शा खींच कर दौड़ते फिरे. पैरों में फफोले हो गए लेकिन एक्टिंग यूं ही की. आप फिल्म देखकर बेहतर अनुमान लगा सकते हैं. अभिनय में उनसे ऊपर कौन है? फिल्म में नन्हे जगदीप और महमूद भी नजर आते हैं, वो हमारे लिए बोनस हो जाता है. उन्हें देख जी खुश हो जाता है.
दो बीघा ज़मीन की कहानी 40 के दशक में सलिल चौधरी ने लिखी थी. नाम था रिक्शावाला. सलिल संगीतकार थे वैसे तो लेकिन बिमल रॉय ने उनकी कहानी पर दो बीघा जमीन और परख जैसी फिल्में बनाईं.
अगले हजार साल बाद भी भारत की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची बनी तो ये फिल्म उसमें होगी.
(2) बंदिनी = परमात्मा कहीं है तो यही अनुभव है
मन की किताब से तू,मेरा नाम ही मिटा देनागुन तो न था कोई भी,अवगुन मेरे भुला देनामुझे आज की बिदा कामर के भी रहता इंतज़ारमेरे साजन हैं उस पारमैं मन मार, हूं इस पारओ मेरे माझी, अबकी बारले चल पार, ले चल पार
- शैलेंद्र
बिमल रॉय की 1963 में आई ये फिल्म दो बीघा जमीन के साथ सर्वोत्कृष्ट है. बहुत-बहुत ताकतवर. 1934 के समय की कहानी है. जेल में एक गंभीर अपराध के लिए बंद है कल्याणी (नूतन) जिससे सब नफरत करते हैं. उसी दौरान जेल में एक प्रगतिवादी विचारों वाला डॉक्टर (धर्मेंद्र) आना शुरू करता है. समाज की नैतिकता वाली लकीरों को वो ज्यादा नहीं गिनता. सही शिक्षा नहीं ही गिनती. वो कल्याणी के व्यक्तित्व पर रीझ जाता है. उसे पता है कि इससे बेहतर जीवनसाथी उसे कहीं नहीं मिलेगी. लेकिन कल्याणी नहीं मानती.
बाद में जब उसका दिल अंकुरित होने लगता है तब उसका अतीत सामने आ जाता है. वह दुविधा में आ जाती है कि समाज की वैधता प्राप्त करने के लिए डॉक्टर से शादी कर ले या अपने जुनून और पहले प्यार के प्रति समर्पण दिखाए. उस फिल्म में कल्याणी चुप, संकोची जरूर है लेकिन वह पुरुष के पीछे आंख बंद करके चलने वाली नहीं रहती. वह जीवन का बड़ा कठिन फैसला बेहद विपरीत और दुविधा भरे माहौल में भी पूरी आजादी से लेती है. ये फिल्म जेल के जीवन के अलावा ये भी दिखाती है कि अपराध के आरोपियों को जितनी तेजी से समाज अस्पृश्य कर रहा होता है उतनी ही तेजी से एक इंसान को भी यंत्रणा दे रहा होता है जो अपराधी पैदा नहीं हुआ. वो उसके बाद भी पूरी तरह सामान्य इंसान है.
(3) सुजाता = इतनी ज्यादा निर्मल
जलते हैं जिसके लिये, तेरी आँखों के दीयेढूंढ लाया हूं वही, गीत मैं तेरे लियेदर्द बनके जो मेरे दिल में रहा, ढल ना सकाजादू बनके तेरी आंखों में रुका, चल ना सकाआज लाया हूं वही गीत मैं तेरे लियेजलते हैं जिसके लिये
– मजरूह सुल्तानपुरी
1959 में प्रदर्शित यह फिल्म एक हरिजन बस्ती से शुरू होती है जहां बीमारी फैल जाती है. लोग मर रहे होते हैं. वहां एक नन्ही बच्ची बिलखती है. उसे पाते हैं ब्राह्मण उपेंद्रनाथ चौधरी और उनकी पत्नी चारू. नाम रखते हैं सुजाता. उनकी एक बेटी और होती है रमा. दोनों बच्चियां खेलते-कूदते बड़ी होती हैं. बाद में सुजाता (नूतन) और ऊंची जाति के अधीर (सुनील दत्त) में प्रेम होता है जिसे रमा के वर के तौर पर देखा जा रहा था.
इससे मां चारू बहुत नाराज हो जाती है. वो खुलासा कर देती है कि सुजाता नीची जाति में पैदा हुई. अपने इन माता-पिता का दुख देख सुजाता घर छोड़ने का फैसला लेती है. लेकिन अंत तक ये साबित हो जाता है कि जाति जैसी चीजें मायने नहीं रखतीं.
फिल्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ टिप्पणी के अलावा सुजाता और अधीर के रिश्ते का चित्रण इतना निर्मल और मासूमियत भरा है कि सौ साल बाद यकीन नहीं होगा कि प्रेम यूं भी होता था. रोमांटिक बातें यूं भी होती थीं. यकीन है कि तब इसी तरह के रोमांस वाली फिल्में फिर बनने लगेंगी. सुजाता अपने दौर में एक बहुत सशक्त टिप्पणी थी. आज ऐसी फिल्में मुख्यधारा में बननी बंद हो चुकी हैं.
इस फिल्म को लेकर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में बिमल रॉय को लिखा था:
ऐसी फिल्में जिनका नैतिक इरादा बहुत ज़ाहिर होता है, उनके साथ सुस्त बन जाने का खतरा हमेशा होता है. लेकिन मैं पाता हूं कि सुजाता में इस त्रुटि को टाल दिया गया है. और इस विषय से बर्ताव करते हुए बहुत संयम रखा गया है.
एक राजनेता को भी दिख गया कि फिल्म में कथ्य कितना चतुराई वाला है और प्रभावी है.
इसी फिल्म का गीत मोरा गोरा अंग लई, मोहे श्याम रंग दई दे .. गुलज़ार के फिल्मी जीवन का पहला गीत था. इसके फिल्मांकन के दौरान भी काफी बहस हो गई. बिमल रॉय का मानना था कि कल्याणी जैसी लड़की जो घर की चारदीवारी में ही ताउम्र रही है. संकोची है. वो घर से बाहर जाकर कभी भी गाना नहीं गाने वाली है. इस पर संगीतकार एस. डी. बर्मन ने कहा कि अगर वो घर से बाहर नहीं जाएगी तो क्या अपने पिता के सामने रोमांटिक गाना गाएगी? काफी चर्चा के बाद फिर राय यह बनी कि कल्याणी बरामदे में घूमते हुए ये गाना गाएगी क्योंकि सांझ ढलने के बाद उस जैसी लड़की का घर से बाहर जाना संभव ही नहीं है.
(4) परख = लोकतंत्र पर कटाक्ष
मेरे मन के दिये,मेरे मन के दियेयूं ही घुट–घुट के जल तूमेरे लाडले, ओ मेरे लाडलेख़ाक हो जाएं हमप्यार के नाम परप्यार की राह मेंरौशनी तो रहे..
- शैलेंद्र
भारत की आजादी के कुछ एक दशक बाद ही 1960 में बिमल रॉय ने परख का निर्देशन किया. पिछली फिल्में जितनी गंभीर थी, ये फिल्म उतनी ही हल्की-फुल्की. लेकिन इसकी कहानी बहुत सॉलिड थी. इस पर आज भी फिल्म बनाई जाए तो बहुत मजेदार बने. एक गांव है राधानगर. यहां के पोस्टमास्टर को कोई सर जे.सी. रॉय से 5 लाख रुपये का चैक मिलता है. साथ ही शर्त ये होती है कि इस रकम को गांव के सबसे ईमानदार आदमी को ही दिया जाए. बेचारे गरीब पोस्टमास्टर की नींद उड़ जाती है. गांव में अब हर कोई इस फिराक में है कि उसे मिल जाए. इंसानी लालच की पराकाष्ठा यहां देखने को मिलती है. बाद में जैसे देश में चुनावी व्यवस्था है सही, योग्य उम्मीदवार चुनने की, वही रास्ता लिया जाता है लेकिन उसका भी हश्र जो होता है वो हंसाता भी है और दुखी भी करता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ऐसा कटाक्ष कम ही फिल्मों में हुआ है. अंत सकारात्मक है. फिल्म में बहुत सारे अलग-अलग पात्र हैं जो याद रह जाते हैं. इसी में एक प्रेम कहानी भी है.
(5) नौकरी = अमिट हौसला और किशोर कुमार
छोटा सा घर होगाबादलों की छांव मेंआशा दीवानी मन मेंबांसुरी बजायेहम ही हम चमकेंगेतारों के उस गांव मेंआंखों की रोशनीहर दम ये समझाये
- शैलेंद्र
बिमल दा की फिल्मोग्राफी में ये फिल्म सबसे अलग थी. 1954 रिलीज हुई नौकरी तब के दौर की बड़ी जरूरत थी. बेहद मजेदार तरीके से इतनी जरूरी कहानी दिखा दी गई. ये जज़्बे वाले युवक रतन (किशोर कुमार) की बात है. परिवार गरीबी में जी रहा है, बहन बीमार है. लेकिन उसका ग्रेजुएशन का रिजल्ट आ गया है और वो पास होकर खुश है. लगता है भारतवर्ष में अब नौकरी उसका ही इंतजार कर रही है.
एक दोस्त का पिता बोलता है नौकरी देगा तो वो कलकत्ता पहुंच जाता है. जिस हॉस्टल में जाता है वहां बेरोजगारों की फौज पड़ी है. लेकिन यहां एक से एक पात्र मिलते हैं जो खूब हंसाते हैं. इस बीच में प्रेम कहानी भी शुरू होती है. फिल्म हल्के-फुल्के में ही जीवन के संघर्षों में जिंदादिली रखने और घुटने न टेकने की कहानी है. शायद इस डिप्रेशन वाले दौर में इस जिंदादिली को फिर से अतीत से खींचकर निकाल लेने और अपने पास रखने की जरूरत है.
जीवन के आखिरी वर्षों में बिमल दा कैंसर से जूझ रहे थे और अमृत कुंभ की खोज कर रहे थे. ये उनकी आखिरी फिल्म का नाम था जो बन नहीं पाई. 60 के दशक के शुरू में कुंभ मेले में इसका एक शेड्यूल पूरा किया गया था. पर 1966 में वे नहीं रहे. ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म अनुपमा उनकी मृत्यु के बाद रिलीज हुई. ये उन्हें ही समर्पित थी. ऋषिकेश इसमें अपने मूल्य और पात्र बिमल दा की फिल्मों से ही लाए थे.
बहुत कम उम्र में बिमल अपनी बातें रख गए. अपना वो दर्शन बता गए जो ज्ञात हो तो जीवन में स्पष्टता रहती है, कर्मों में स्पष्टता रहती है और जाने में कठिनाई नहीं रहती. और ये दर्शन वहीं खत्म होता है जहां दो बीघा जमीन का उक्त गाना शुरू होता है…
गंगा और जमुना की गहरी है धारआगे या पीछे सबको जाना है पार