Superboys of Malegaon
Director: Reema Kagti
Cast: Adarsh Gourav, Vineet Kumar Singh, Shashank Arora
Rating: 4 Stars (****)
Superboys of Malegaon - फिल्म रिव्यू
कैसी है Reema Kagti और Varun Grover की फिल्म Superboys of Malegaon, जानने के लिए रिव्यू पढ़िए.

Faiza Ahmad Khan ने Supermen of Malegaon नाम की डाक्युमेंट्री बनाई थी. इस कहानी के केंद्र में नासीर शेख थे. नासीर महाराष्ट्र के मालेगांव में रहते थे. अभी भी वहीं रहते हैं. नासीर का वीडियो रिकॉर्डिंग का काम था. किसी के यहां शादी, फंक्शन होता तो वो वीडियो रिकॉर्डिंग किया करते. मगर नासीर सिर्फ इस पहचान से खुश नहीं थे. उनके अंदर एक कीड़ा था – अपनी फिल्म बनाने का कीड़ा. नासीर ने जुगाड़शास्त्र का पूरा इस्तेमाल कर अपने दोस्तों को जमा किया. उनके साथ मिलकर फिल्म बनाना शुरू किया. फिल्म सेट का कोई अनुभव नहीं था. दूसरों को देखकर, निराले एक्सपेरिमेंट कर के खुद को सिखाना शुरू किया. ट्रॉली, ट्रैकिंग जैसे बड़े सेटअप का पैसा नहीं था तो कैमरा को साइकिल पर बांधकर पूर्ति की गई. नासीर ने इसी तरह ‘मालेगांव के शोले’ नाम की फिल्म बनाई. बेसिकली ये ‘शोले’ की पैरडी थी. ये वो फिल्म थी जो मालेगांव को दुनियाभर में नहीं लेकर गई, बल्कि पूरी दुनिया को खींचकर मालेगांव लाई. आगे नासीर ने और भी पॉपुलर फिल्मों की पैरडी बनाई. वो जब ‘मालेगांव का सुपरमैन’ बना रहे थे, तब फैज़ा और उनकी टीम ने उन पर अपनी डाक्युमेंट्री बनाई.
फैज़ा की डाक्युमेंट्री ने दिखाया कि नासीर और उनके दोस्त किस दुनिया से आते थे. उन्होंने किन मुश्किलों के पार जाकर अपनी फिल्में बनाई. ये डाक्युमेंट्री दुनियाभर के फिल्म फेस्टिवल्स में घूमी. इसी डाक्युमेंट्री से प्रभावित होकर रीमा कागती ने अपनी फिल्म ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ बनाई है. इस फिल्म को वरुण ग्रोवर ने लिखा है. आदर्श गौरव ने नासीर का रोल किया. उनके अलावा शशांक अरोड़ा, विनीत कुमार सिंह, सकीब आयूब, अनुज सिंह दुहान और पल्लव सिंह ने बाकी दोस्तों के रोल किए हैं. जब ‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ के बनने की खबर आ रही थी, उस समय से ही मेकर्स के सामने एक बड़ा सवाल था. इस कहानी पर एक मुकम्मल डाक्युमेंट्री बन चुकी है. पूरी दुनिया देख चुकी है कि नासीर और उसके दोस्तों ने क्या रचा. ऐसे में इस फिल्म में ऐसा नया क्या दिखाया जाएगा. रीमा कागती और उनकी टीम ने इस सवाल को समझा और उस पर काम भी किया.
‘सुपरबॉयज़ ऑफ मालेगांव’ ने सिर्फ उस पहलू को जगह नहीं दी कि नासीर ने फिल्म कैसे बनाई. उसके साथ ही फिल्म इस बात को एक्सप्लोर करने में इच्छुक थी कि ये लोग कौन हैं, इनका आम और खास क्या है, ये किससे और कैसे प्यार करते हैं, किन छोटी बातों पर इनकी आंखें खुशी से चमक उठती हैं, और किन बातों पर इनका दिल दुखता है. ये लोग जो एक भाषा से जुड़े हैं, मगर अपने आप में हर कोई एक नई दुनिया है, ये किन हालात में फिल्म बनाने के लिए साथ आए. फिल्म उनकी निजी ज़िंदगी के मतभेद यानी Conflict को जगह देती है. जैसे नासीर बड़े भाई के ताने सुनकर उकता चुका, उसे अपना वीडियो पार्लर भी चलाना है, अपनी स्थिति से ऊपर उठने के लिए वो फिल्म बनाने की ओर मुड़ता है. दूसरी ओर फ़रोग एक राइटर है. खुद की कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहता है. घरवालों की तरफ से भी कोई प्रोत्साहन नहीं. एक सीन में उसके पिता और सौतेली मां ताना मारते हैं. जवाब में फ़रोग कहता है कि वो एक अदीब है. पिता चुटकी लेते हुए कहते हैं कि तुम अदीब नहीं, अजीब हो. ऑडियंस में बैठकर इस सीन को देख रहे आपके चेहरे पर हल्की हंसी छूटती है. लेकिन तुरंत फ़रोग को देखकर समझ जाते हैं कि उसके लिए ये शब्द किसी शूल के भांति थे.
फिल्म में नासीर और उसके दोस्तों की कहानी दिखाने के साथ-साथ मेकर्स ने अपनी कमेंट्री भी जोड़ी है. लेकिन किसी भी पॉइंट पर वो थोपी हुई नहीं लगती है. जैसे एक सीन में नासीर और फ़रोग का झगड़ा होता है. ‘राइटर बाप होता है’, ये कहते हुए फ़रोग वहां से निकल जाता है. इस सीन में जो तूफान फटा वो नासीर और उसके बाकी दोस्तों को हैरान कर देने वाला था, कि इसे अचानक से क्या हो गया. मगर ऑडियंस को बहुत पहले से इसके हिंट दिए जाते हैं. जैसे जब ये लोग अपनी पहली फिल्म बना रहे होते हैं तो नासीर, फ़रोग से जूस लाने को कहता है. ‘लेकिन मैं राइटर...’ से शुरू हुआ जवाब कभी पूरा नहीं हो पाता. हम देखते हैं कि फिल्म के लिए सबसे ज़रूरी इंसान को धीरे-धीरे सबसे पीछे धकेल दिया जाता है. और ऐसा कोई भी जानबूझकर नहीं कर रहा होता, ना ही किसी के मन में कोई मैल था. बस ये सिस्टम ऐसा बना हुआ है और बाकी किरदार उसी में ढले जा रहे थे.

बाकी ऐसा भी नहीं है कि फिल्म की राइटिंग अपने आप में कोई खामी नहीं छोड़ती. अकरम और नासीर के बीच मतभेद आ जाता है. फिर एक मिनट के सीन में दोनों गले मिलते हैं सब कुछ भुला देते हैं. उस पॉइंट पर फिल्म में काफी कुछ चल रहा होता है, मगर इसे जगह दी जा सकती थी. बहरहाल अपने रिव्यू को समेटने से पहले दो Observations साझा करना चाहता हूं. एक सीन है जहां नासीर पहली बार सभी दोस्तों को फिल्म बनाने के आइडिया के बारे में बताता है. फ़रोग चाहता है कि वो उसकी लिखी कहानी पर फिल्म बनाए मगर नासीर इस पर सहमत नहीं. दूसरी ओर बाकी दोस्त विस्मय से भरे नासीर की बात सुन रहे हैं. इस सीन की ब्लॉकिंग ऐसी है कि एक शॉट में नासीर अकेला दिखता है, दूसरे में फ़रोग अकेला है, और तीसरे में बाकी दोस्त एक साथ बैठे हैं. फ्रेमिंग और किरदारों की ब्लॉकिंग से आपको समझा दिया जाता है कि कैसे फ़रोग, नासीर से पूरी तरह सहमत नहीं है, और बाकी के दोस्त एक ही टीम में हो गए हैं.
एक्टिंग की बात करें तो फिल्म में सभी ने अच्छा काम किया है. बस कुछ जगह बोलने का लहजा दखल देता है. आप नोटिस करते हैं कि एक्टर्स की उस लहजे पर से पकड़ भी ऊपर-नीचे हो जाती है. लेकिन आप कहानी में इतना इंवेस्टेड हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं. फिल्म का क्लाइमैक्स चल रहा होता है.‘मालेगांव का सुपरमैन’ परदे पर चल रही है. सभी किरदार एक साथ बैठकर फिल्म देख रहे हैं. इस सीन में कोई डायलॉग नहीं है. बस एक्टर्स के एक्स्प्रेशन और बहते हुए बैकग्राउंड म्यूज़िक ने सब कुछ कह दिया. इस सीन से पहले इन किरदारों के जीवन में बहुत कुछ घट चुका होता है. ये सीन इतना सम्मोहक है कि चलते-चलते कब स्क्रीन ब्लैक आउट कर जाती है, इसका आपको आभास ही नहीं होता. आप बस उसी नज़र के साथ स्क्रीन को देख रहे होते हैं. कुछ कहने की इच्छा महसूस नहीं होती, रिएक्शन देना ज़रूरी नहीं लगता.
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