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Sunflowers...: भारतीय डॉक्टर की बनाई वो फिल्म जो ऑस्कर्स में आग लगाने वाली है!

एक मुर्गे की चोरी पर बनी इस फिल्म ने दुनियाभर की दो हज़ार से ज़्यादा फिल्मों को पछाड़कर Cannes Film Festival में अवॉर्ड जीता था.

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चिदानंद नायक ने चार दिन में ये फिल्म शूट की थी.

रात का घनघोर अंधेरा. कर्नाटक का कोई गांव. समय काल याद नहीं. कुएं की मुंडेर पर से दो आकृतियां अंदर की ओर झांक रही हैं. एक आदमी की है जिसके चेहरे पर भले ही रोशनी नहीं पड़ रही, मगर इतना साफ है कि दिन भर के काम की थकन अब तक माथे पर जमा है. कद में उसके पेट तक आते बच्चे को ऐसी बातों से कोई सरोकार नहीं है. हल्के हाथ का झटका लेकर वो बच्चा कुएं में एक पत्थर फेंकता है. भीषण गर्जना होती है. अंधियारे में शय पाने वाले तमाम कीट-पतंगे हरकत में आ जाते हैं. छोटे पत्थर की चोट से पानी पर जमी गाढ़ी काई पटने लगती है. पानी सांस लेकर सूर्य की आकृति बना रहा है. वो सूर्य जो कुएं की मुंडेर पर खड़े दोनों पिता-बेटे के साथ उनके पूरे गांव को नसीब नहीं हो रहा. 

ये एक कन्नड़ा शॉर्ट फिल्म का सीन है. नाम है Sunflowers Were The First Ones To Know. इसे Chidananda S Naik ने डायरेक्ट किया है. हाल ही में खबर आई कि ये फिल्म 2025 में होने वाले Oscar Awards के लिए क्वालीफाय कर गई है. 15 मिनट की ये फिल्म लाइव एक्शन शॉर्ट फिल्म की कैटेगरी में नॉमिनेट हुई है जहां ये दुनियाभर की बेस्ट शॉर्ट फिल्मों के साथ कम्पीट करेगी. ये पहला मौका नहीं है जब इस फिल्म को इस लेवल पर पहचान मिली हो. मई 2024 में इस फिल्म को प्रतिष्ठित Cannes Film Festival में भी स्क्रीन किया गया था. वहां इस फिल्म ने ला सिने (La Cinef) कैटेगरी में फर्स्ट प्राइज़ जीता था. चिदानंद नायक बस एक कन्नड़ा कहानी सुनाना चाहते थे, और आज वो ग्लोबल स्टेज तक पहुंच चुकी है. उनका ये सफर किसी भी तरह से नॉन-फिल्मी नहीं था. ये एक डॉक्टर की कहानी है जिसने पत्थर घिसकर दो लौह जलाई, पहली अपने दिल में और दूसरी वो आग जिससे ये फिल्म बनी. 

# डॉक्टर से फिल्ममेकर बनने की कहानी 

बहुत समय पहले की बात है... चिदानंद की फिल्म और उनकी लाइफ इसी लाइन से शुरू होती है. बचपन में किसी बड़े-बुजुर्ग ने एक लोककथा सुनाई थी. नाम था ‘अज्जीया जम्बा’. कहानी एक बुजुर्ग महिला के बारे में थी जिसे लगता है कि गांव के मुर्गे की बांग की वजह से ही सुबह होती है. इसलिए वो उस मुर्गे को चुरा लेती है. हर लोककथा की तरह यहां भी एक सीख थी. मगर वो नन्हें चिदानंद के दिमाग में कभी जगह नहीं बना पाई. याद रही तो बस एक लाइन, कि बुजुर्ग महिला मुर्गा चुरा लेती है और हमेशा से लिए अंधकार छा जाता है. मैसूर के रहने वाले चिदानंद के ज़ेहन में ये कहानी रची-बसी रही. मगर उनके हिसाब से ये कहानी ऐसी नहीं थी जो चार लोगों को जमा कर के सुनाई जाए, क्योंकि कर्नाटक का हर बच्चा ये कहानी सुनकर बड़ा हुआ था. 

खैर समय का पहिया चलता रहा. घर में पढ़ाई पर ज़ोर देने वाला माहौल था. पिता कभी किराये पर DVD ले आया करते और इस तरह पूरे परिवार को एक साथ समय बिताने का मौका मिलता. चिदानंद पढ़ते रहे. साल 2013 में मायसोर मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट से MBBS की पढ़ाई शुरू की. साल 2019 में उनके नाम के आगे डॉक्टर का टाइटल जुड़ चुका था. बस चिदानंद ने कभी अपनी प्रैक्टिस शुरू नहीं की. मन भले ही डॉक्टरी में था, लेकिन दिल कहीं और लग चुका था. वो फिल्में बनाना चाहते थे. खुद से एक शॉर्ट फिल्म भी बनाई. उसका टाइटल Whispers and Echoes था. लेकिन वो अपनी फिल्म एजुकेशन सिर्फ यहीं पर नहीं रोकना चाहते थे. पुणे में स्थित Film and Television Institute of India (FTII) के लिए तैयारी शुरू कर दी. साल 2022 में चिदानंद ने FTII की TV विंग के एक साल के कोर्स में एडमिशन ले लिया. 

# “आपकी फिल्म कान में सिलेक्ट हो गई है”

FTII से डायरेक्शन की पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स को अपने कोर्स के अंत में एक शॉर्ट फिल्म बनानी होती है. ये परंपरा हमेशा से चलती आई है. विधु विनोद चोपड़ा ने अपने FTII के दिनों में An Encounter With Faces नाम की शॉर्ट डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी जो आगे चलकर ऑस्कर्स में नॉमिनेट हुई थी. खैर अब चिदानंद को अपनी डिप्लोमा फिल्म जमा करनी थी. यहां डायरेक्शन, एडिटिंग, सिनेमैटोग्राफी और साउंड के स्टूडेंट्स को मिलकर ये फिल्म बनानी थी. एडिटिंग डिपार्टमेंट के स्टूडेंट मनोज और चिदानंद दोस्त थे. दोनों एक ही राज्य से आते थे. चिदानंद की तरह मनोज को भी ‘अज्जीया जम्बा’ के बारे में पता था. 

बचपन से जो कहानी दिल में दबी थी, चिदानंद अब उसे पूरी दुनिया को सुनाना चाहते थे. उन्होंने मनोज के सामने इच्छा ज़ाहिर की कि वो एक कन्नड़ा फिल्म बनाना चाहते थे. ये सुनकर मनोज भी उत्साहित थे. टीम इकट्ठा करने का काम शुरू हुआ. सूरज ठाकुर फिल्म के सिनेमैटोग्राफर थे और अभिषेक कदम ने साउंड पर काम शुरू कर दिया. फिल्म की कहानी पुराने समय में घटती है. अभिषेक अपने इंटरव्यूज़ में बताते हैं कि उन्होंने कहानी के काल के हिसाब से म्यूज़िक बनाना शुरू किया. तमाम मॉडर्न इंस्ट्रूमेंट्स को टाटा-बायबाय कर दिया. 

FTII में फिल्म बनाते वक्त आपको कुछ खास बातों का ध्यान रखना पड़ता है. जैसे सिर्फ कैम्पस के 50 किलोमीटर के दायरे में रहकर आप शूट कर सकते हैं. और शूट करने के लिए सिर्फ चार दिन मिलेंगे. चूंकि चिदानंद कन्नड़ा फिल्म बना रहे थे, उन्होंने कन्नड़ा एक्टर्स को जमा करना शुरू किया. पुणे के पास पानशेत नाम के गांव को शूटिंग लोकेशन के तौर पर फाइनल किया गया. चिदानंद की कहानी शुरू होती है एक बूढ़ी महिला से, जो गांव के मुर्गे को चुराकर कहीं चली जाती हैं. इस एक कदम से पूरी व्यवस्था बिगड़ जाती है और उस गांव में सूरज ही नहीं उगता. सब कुछ अंधेरे में डूब जाता है. 

पूरी फिल्म को रात में शूट करना था. ऐसे में मेकर्स के सामने बड़ी मुश्किल थी. रात में लाइटिंग के लिए उन्हें भारी-भरकम लाइट्स की ज़रूरत थी. वो ऐसे इलाके में शूट कर रहे थे जहां ठीक से बिजली और इंटरनेट नहीं पहुंचे थे. ऊपर से कॉलेज ने सिर्फ एक दिन के लिए ही जनरेटर दिया. बाकी के तीन दिन का शूट निकालने के लिए आसमान के नीचे मौजूद तमाम जुगाड़ अपनाए गए. चांद की रोशनी से सीन्स को लाइट किया गया. आग जलाकर एक्टर्स के चेहरे पर रोशनी डाली गई. फिल्म में रात अपने आप में एक किरदार थी, कि वो कैसे किरदारों की मनोदशा पर असर डालती है. ये पॉइंट पूरी तरह से स्थापित हो पाया. फिर चाहे भले ही उसके लिए चार रातों की नींद कुर्बान हुई. 

कहानी फिर से कुछ समय आगे बढ़ती है. एक सुबह चिदानंद के फोन पर मैसेज आया, ‘आपकी फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल में सिलेक्ट हो गई है’. सामने वाले शख्स ने कहा कि वो कान के आर्टिस्टिक डायरेक्टर हैं. चिदानंद को लगा कि कोई फिरकी ले रहा है. उन्होंने FTII से बात की. पता चला कि कॉलेज ने अपनी तरफ से उनकी फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में भेज दिया था. कान फेस्टिवल की कैटेगरी ‘ला सिने’ में दुनियाभर की फिल्म स्कूलों में बनी फिल्मों को सबमिट किया जाता है. इस कैटेगरी में दुनियाभर की फिल्म स्कूल्स से 2263 फिल्मों को भेजा गया. इनमें से फाइनल लिस्ट में सिर्फ 18 शॉर्ट फिल्म्स अपनी जगह बना पाईं. चिदानंद की फिल्म Sunflowers Were The First Ones To Know उनमें से एक थी. ये सिर्फ शॉर्टलिस्ट नहीं हुई, बल्कि अवॉर्ड भी घर लेकर आई. 

चिदानंद ने सूरजमुखी का जो फूल उगाया, उसके बीजों ने अपना रास्ता बनाकर दुनियाभर की धूप खींच ली. पहले उनकी फिल्म कान में जीती, फिर उसे ऑस्कर्स में भेजा गया. किसी भी शॉर्ट फिल्म को ऑस्कर्स में भेजने के लिए कुछ नियम हैं. पहला तो ये कि अमेरिका के चुने हुए छह इलाकों में आपकी फिल्म को सात दिन के लिए स्क्रीन किया जाए. हर दिन कम-से-कम एक शो होना चाहिए और इनकी टिकट लगनी चाहिए. उसके बाद जो नियम है वो कहता है कि अगर आपकी फिल्म दुनियाभर के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स में जीती है तो आप उसे सीधा ऑस्कर्स में भेज सकते हैं. लेकिन इस लिस्ट में बहुत चुनिंदा फिल्म फेस्टिवल्स हैं. कान फिल्म फेस्टिवल भी उनमें से एक है. उसी के अंतर्गत Sunflowers... को जमा किया गया. ऑस्कर की वेबसाइट पर अकैडमी स्क्रीनिंग रूम का ऑप्शन है. फिल्म को वहीं सबमिट करना होता है. उसके साथ फिल्ममेकर को अपनी और क्रू की पूरी डिटेल्स भी जमा करनी होती है. इस प्रक्रिया के लिए कोई पैसा चार्ज नहीं किया जाता.                                                                  

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