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Sky Force - मूवी रिव्यू

कैसी है Akshay Kumar और Veer Pahariya की फिल्म Sky Force, जानने के लिए पढ़िए रिव्यू.

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'स्काय फोर्स' असली घटना पर आधारित है.

Sky Force (2025)
Director: Sandeep Kewlani & Abhishek Anil Kapur
Cast: Akshay Kumar, Pahariya, Sara Ali Khan, Nimrat Kaur
Rating: 3 Stars (***) 

Akshay Kumar, Veer Pahariya, Sara Ali Khan और Nimrat Kaur की फिल्म Sky Force साल 1965 की जंग में एयर फोर्स के मिशन पर आधारित है. इंडियन एयर फोर्स ने पाकिस्तानी एयर फोर्स के खिलाफ ‘स्काय फोर्स’ नाम का मिशन लॉन्च किया था. वीर पहाड़िया ने इस फिल्म से डेब्यू किया है. उनका किरदार स्क्वॉड्रन लीडर A.B. देवैया पर आधारित है. मेकर्स ने क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुए उनके किरदार का नाम T.K. विजया कर दिया. 

फिल्म की कहानी साल 1971 से शुरू होती है. दिखाया जाता है कि पाकिस्तानी एयर फोर्स ने इंडियन एयर बेस पर हमला कर दिया. इस हमले में इंडियन एयर फोर्स एक पाकिस्तानी पायलट को पकड़ लेती है. फिर वहां से कहानी फ्लैशबैक लेती है 1965 में. हम स्क्वॉड्रन लीडर T.K. विजया से मिलते हैं. टैबी उनका निकनेम है. फिल्म बहुत जल्दी एस्टैब्लिश कर देती है कि टैबी में देशभक्ति का जज़्बा कूट-कूट के भरा है. वो रिस्क लेने से नहीं कतराता. उसका प्लेन हवा से ऐसी बातें करता है कि देखने वाले घबरा जाएं. टैबी के इस रवैये को बहुत लोग जवानी का जोश कह सकते हैं, वहीं दूसरी ओर उसके सीनियर्स का मानना है कि वो रेक्लेस है. बस उसके विंग कमांडर आहूजा उसे रेक्लेस समझकर खारिज नहीं करते. अक्षय ने विंग कमांडर आहूजा का रोल किया. एयर फोर्स के ‘टाइगर्स’ की टीम एक मिशन के लिए पाकिस्तान जाती है और टैबी वापस नहीं लौटता. आगे आहूजा इसी सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं कि टैबी के साथ क्या हुआ. यही फिल्म की कहानी है. 

देशभक्ति पर बनने वाली बहुत सारी फिल्मों के साथ एक मसला होता है. कि वो एक पॉइंट पर आकर Self-Indulgent हो जाती हैं. यानी अपनी पॉलिटिक्स, अपनी मैसेजिंग के बाहर नहीं निकल पातीं. कुछ किरदार और उनकी दुनिया की कहानी दिखाना बंद कर देती हैं. दूसरी प्रॉब्लम ये होती है कि क्विक रिएक्शन की चाह में ऐसी फिल्में Chest Thumping वाला रास्ता पकड़ लेती हैं. कि दूसरे देश को दुश्मन बताकर बस उन्हें नीचा दिखाया जाए. देशभक्ति वाली फिल्म होने के नाते ‘स्काय फोर्स’ भी इन पहलुओं को छूती है, मगर फिल्म बहुत जल्दी इनसे बाहर भी आ जाती है. फिल्म चाहे एक पॉइंट पर भले ही एक देश बाप और दूसरा देश बेटा टाइप फालतू की एनेलॉजी का इस्तेमाल करती हो. लेकिन इसका अंत ऐसी मैसेजिंग पर नहीं होता. वो उस आर्क को बहुत ढंग से पूरा करती है. आपको फिल्म के अंत तक समझ आता है कि ये लोग एक-दूसरे को लेकर जो सोचते थे, अब उसमें तब्दीली आई है. दोनों आगे बढ़े हैं. 

क्लाइमैक्स की बात करें तो ये फिल्म का सबसे मज़बूत पॉइंट था. ये कहानी जिस तरह से खत्म होती है, वो आपको आकर हिट करती है. एक किरदार स्क्रीन से बाहर निकलकर आपके साथ रह जाता है. आप उसके लिए कुछ महसूस करते हैं. ऐसा नहीं है कि फिल्म की राइटिंग के साथ सब चंगा सी. एक तो ये अपने पॉइंट पर पहुंचने में बहुत समय लेती है. फिल्म का मेजर प्लॉट ये है कि कैसे अक्षय का किरदार आहूजा, टैबी से जुड़े सच का पता लगाने की कोशिश करता है. उसकी सबसे बड़ी चुनौती हवा में नहीं है. बल्कि अधिकारियों से डील करने में है जो टैबी का पता लगाने में इच्छुक नहीं हैं. यहां फिल्म आपको एंगेज कर के रखती है, लेकिन ये हिस्सा इंटरवेल के बाद आता है. 

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फिल्म के एरियल सीक्वेंसेज़ के VFX पर सही काम हुआ है.  

दूसरी दिक्कत ये है कि फिल्म इन एयर फोर्स ऑफिसर्स की एयर फील्ड से बाहर की दुनिया को ठीक से एक्सप्लोर नहीं कर पाती. उनकी पत्नियों के किरदार सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि वो उनसे जुड़ी हुई हैं. उन्हें पर्सनल टच दिया जा सकता था. बाकी एक्टिंग के स्तर पर यहां अक्षय कुमार और शरद केलकर का काम ही तारीफ के काबिल है. कई सीन्स देखकर लगेगा कि अक्षय ने फिल्म को अपने कंधों पर उठाया हुआ है. दूसरी ओर शरद केलकर कितने ईमानदार एक्टर हैं, इसका एक नमूना देते हैं. शरद को अपने पहले सीन में अक्षय के किरदार से मिलना है. आपके दिमाग में ये चल रहा है कि कैमरा के रोल करने से पहले ये दोनों एक्टर अपने लाइनें याद कर के बैठे हैं. इनको विदित है कि एक-दूसरे के किरदार का क्या नाम है. 

अक्षय उनसे बातचीत करते हैं. फिर जब शरद बोलना शुरू करते हैं तो अपने पॉज़ेस का पूरा इस्तेमाल करते हैं. उन्हें ओवर-डू नहीं करते. आंख के एक हल्के से इशारे से अक्षय की छाती की राइट साइड देखते हैं, और फिर उनके किरदार का नाम लेते हैं. आप समझ जाते हैं कि उन्होंने नेम प्लेट से आहूजा का नाम पढ़ा है. ये बहुत हल्का-सा जेस्चर था. पलक झपकाने में गायब भी हो जाए. मगर शरद ने अपने रोल को for granted पर नहीं लिया. जितनी भी स्पेस मिली, वो शाइन करते हैं. वीर पहाड़िया का काम बहुत औसत किस्म का है. उनकी डायलॉग डिलीवरी सुनते हुए लगता है कि वो बस याद किए हुए डायलॉग सुनाकर आगे बढ़ जा रहे हैं. सब एक टोन में चलता है. बाकी ये उनकी पहली फिल्म है, उम्मीद है कि आगे उनका काम बेहतर होता जाएगा.

‘स्काय फोर्स’ के साथ कई मसले हैं. राइटिंग से लेकर साउंड डिज़ाइन तक. लेकिन ये कई मौकों पर आपको एंगेज भी कर के रखती है.                  
       
   
 

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