एक लड़की है. नाबालिग. गैंगरेप की शिकार. पीड़ा का जहन्नुम भोगा है और लगातार भोग ही रही है. न्याय के लिए एड़ी जमाकर खड़ी है. पावरफुल लोगों के खिलाफ. ऐसे सिस्टम में जहां पुलिस-प्रशासन सब अपराधियों के पाले में खड़ा दिखता है. लड़की की तरफ अगर कुछ है, तो उसकी इंसाफ पाने की ज़िद और एक नर्वस सा वकील. क्या ये कॉम्बिनेशन, करप्ट और क्रूर सिस्टम से जीत पाएगा? लड़की के मुकद्दर में न्याय है या नर्क? ये जानना है तो आपको दृश्यम फिल्म्स की नई फिल्म 'सिया' देखनी होगी.
मूवी रिव्यू: सिया
फिल्म की एक अच्छी बात ये है कि फिल्म रेप सीन्स के ग्राफिक फिल्मांकन की बजाय इस जघन्य अपराध के इम्पैक्ट पर फोकस करती है. उसके बाद की लड़ाई को फुटेज देती है.

'आँखों देखी', 'मसान' और 'न्यूटन' जैसी कमाल की फ़िल्में प्रड्यूस कर चुके दृश्यम फिल्म्स वाले मनीष मूंदड़ा इस बार 'सिया' लेकर आए हैं. इस बार उन्होंने डायरेक्टर की कुर्सी भी संभाली है. तो कैसा है उनका पहला अटेम्प्ट, आइए जानते हैं.

उत्तर प्रदेश के देवगंज में रहने वाली सीता सिंह उर्फ़ सिया की उम्र 17 साल है. माता-पिता और छोटे भाई के साथ एक कस्बेनुमा गाँव में जैसा जीवन जिया जा सकता है, जी रही है. भारतवर्ष में लड़कियों की किस्मत में अमिट स्याही से लिखे ईव टीज़िंग वाले श्राप को भी झेल ही रही है. 17 साल की उम्र में जो जीवंतता और उल्लास झलकना चाहिए, वो उसके जीवन से नदारद है. हमें पहले ही फ्रेम से एहसास हो जाता है कि सिया की लाइफ में कुछ गड़बड़ है. वो गाँव छोड़कर भाग जाना चाहती है. दिल्ली. अपने चाचा-चाची के पास. अभी उसकी इस ख्वाहिश के पीछे का रहस्य खुला भी नहीं होता कि एक हादसा हो जाता है. सिया को दिनदहाड़े कुछ शोहदे उठा ले जाते हैं. कई दिनों तक गैंगरेप होता है. आगे की लड़ाई न्याय पाने की है. इंसाफतलबी की इसी जर्नी में कुछ और राज़ भी खुलते हैं और बेनकाब होता रहता है सिस्टम और समाज का बदसूरत चेहरा.
फिल्म देखते हुए आप डिस्कवर करेंगे कि 'सिया' की कहानी बहुचर्चित उन्नाव केस से बहुत हद तक मिलती है. इतनी ज़्यादा कि आप तमाम आने वाले इवेंट्स प्रेडिक्ट कर सकते हैं. क्लाइमैक्स समेत. इस फिल्म की अच्छी और बुरी बात एक ही है. इसका रियलस्टिक होना. असल केस से इतनी ज़्यादा समानता और घटनाओं को ज्यों का त्यों रखने के आग्रह ने इस फिल्म को कमोबेश उन्नाव केस की डॉक्यूमेंट्री में तब्दील करके रख दिया है. इस वजह से एक कहानी के तौर पर 'सिया' आपको काफी हॉन्ट तो करती है, लेकिन एक फिल्म के तौर पर ये आपसे उतना कनेक्ट नहीं कर पाती. सच्ची घटनाओं के इर्द-गिर्द बनी 'तलवार', 'नो वन किल्ड जेसिका' जैसी फ़िल्में हम देख चुके हैं. जिनमें डॉक्यूमेंट्री बनने से कामयाबी से बचा गया था. 'सिया' इस फ्रंट पर कमज़ोर पड़ती है.
फिल्म की एक अच्छी बात ये है कि फिल्म रेप सीन्स के ग्राफिक फिल्मांकन की बजाय इस जघन्य अपराध के इम्पैक्ट पर फोकस करती है. उसके बाद की लड़ाई को फुटेज देती है. समर्थों की ड्योढ़ी के परमानेंट पहरेदार बने सिस्टम के हिंसक चेहरे को रॉ ढंग से पेश करती है. बस इन सबके एग्ज़िक्युशन से कोई बेहद पावरफुल सिनेमाई एक्सपीरियंस नहीं जनरेट हो पाता. कुछेक सीन्स ऐसे ज़रूर हैं, जो आपकी संवेदनाओं को झकझोर देने का सामर्थ्य रखते हैं, लेकिन फिर वो कुछेक ही हैं. बाकी काफी कुछ सपाट ढंग से घट रहा होता है परदे पर.
एक्टिंग और कास्टिंग के फ्रंट पर 'सिया' काफी उम्दा साबित होती है. शीर्षक भूमिका के लिए पूजा पांडे बेहतरीन चुनाव साबित हुई हैं. कई सारे सीन्स ऐसे हैं, जहाँ उनको संवादों की बिल्कुल ज़रूरत नहीं पड़ती. आँखों और देहबोली से ही काम चल जाता है. एक रेप विक्टिम की जद्दोजहद उन्होंने शानदार ढंग से पोट्रे की हैं. न्याय के लिए दृढप्रतिज्ञ लड़की साकारने में भी उन्हें ज़रा मुश्किल नहीं आई है. क्लाइमैक्स से जस्ट पहले की हताशा भी उन्होंने कन्विंसिंगली पेश की है. जब वो कहती हैं, "ऐसे न्याय का क्या मतलब है, जब न्याय पाने के लिए कोई ज़िंदा ही नहीं बचेगा'. पूजा पांडे को फुल मार्क्स. वकील महेंदर के रोल में विनीत कुमार सिंह सहज और प्रभावशाली हैं. वो अपने क्राफ्ट में इतने सधे हुए अभिनेता हैं कि ऐसे किरदार अब नींद में भी कर सकते हैं. उत्तर प्रदेश की असभ्य, अतार्किक पुलिस के साथ उनकी जितनी भी बातचीत है, उन तमाम सीन्स में वो नर्वसनेस और कन्विक्शन का मिलाजुला रूप सहजता से पेश करते हैं. बाकी कास्ट भी अपना काम मुस्तैदी से कर जाती है.
'सिया' की सिनेमैटोग्राफी काफी उम्दा है. गांव-देहात को बढ़िया ढंग से कैप्चर किया गया है. BGM भी ठीक लगता है. डायरेक्टर मनीष मूंदड़ा फिल्म को रियलस्टिक रखने में कामयाब तो हुए हैं, लेकिन उसको एंगेजिंग बनाना भूल गए. इस वजह से कुछेक शॉकिंग मोमेंट्स और यहां-वहां से हासिल हुए एकाध दमदार डायलॉग के अलावा कुछ ख़ास हाथ नहीं लगता. पुलिस द्वारा जबरन अंतिम संस्कार करने का सीन हो या कस्टोडियल डेथ. या फिर विधायक की दबंगई. न्यूज़ चैनल्स के सदके ये सब हम कई-कई बार देख चुके हैं और इसके अमानवीय पहलू से सिहर चुके हैं. यही सब कुछ जब परदे पर हमारे सामने आता है, तो वो सिहरन नदारद होती है. यही बात इस फिल्म की सबसे बड़ी दिक्कत है.
ओवरऑल 'सिया' एक असली केस का उम्दा डॉक्यूमेंटेशन ज़रूर है लेकिन उसका मारक इफेक्ट आप तक पहुंचाने में थोड़ी सी कमज़ोर पड़ जाती है. चाहें तो देख सकते हैं. समय खराब तो नहीं ही होगा. बाकी OTT पर आने के इंतज़ार का ऑप्शन तो है ही.
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