Shyam Benegal. करीब से जानने वाले श्याम बाबू बुलाते थे. इंडियन पैरेलल सिनेमा के स्तम्भ. मिडल सिनेमा कहने पर बिगड़ पड़ते थे. 23 दिसम्बर की शाम श्याम बेनेगल का निधन हो गया. वो 90 साल के थे. दुनिया की समझ आने के बाद जितनी भी सांस भरी, सभी के कण में सिनेमा रचा-बसा था. श्याम बाबू ने जितना सिनेमा, जितनी कहानियां इस समाज को दी, उन सभी ने हमें समृद्ध बनाया है. हमें धन के परे अमीर बनाया है. उनकी कुछ ऐसी फिल्मों के बारे में बताएंगे, जिन्हें आपको खोजकर देखना चाहिए.
इंडियन सिनेमा के उस्ताद श्याम बेनेगल की वो 8 फिल्में जिनके आगे मास सिनेमा भूल जाएंगे
Shabana Azmi, Naseeruddin Shah जैसे दिग्गज कलाकारों ने अपने करियर का बेहतरीन काम Shyam Benegal के साथ किया.

#1. अंकुर (1974)
श्याम बाबू का सिनेमा उन लोगों की आवाज़ था, जिन्हें समाज अपने लिए बोलने की जगह नहीं देता. ‘अंकुर’ ने इस बात को पुख्ता कर दिया था. शबाना आज़मी ने अपनी परफॉरमेंस के लिए नैशनल अवॉर्ड जीता था. उन्होंने फिल्म में एक दलित महिला का रोल किया जिसे गांव के मुखिया के बेटे से प्रेम हो जाता है. जातिवाद का विष कैसे इस समाज की जड़ों को ज़हरीला बना रहा है, उससे उपजने वाला भेद कैसे लोगों को कुचल रहा है, फिल्म ऐसे सभी पॉइंट्स पर चोट करती है.
#2. निशांत (1975)
चार ज़मींदार भाइयों से पूरा गांव खौफ खाता है. वो जबरन किसी की ज़मीन पर अपना अधिकार घोषित कर देते हैं. किसी महिला को उसके घर से अगवा कर लेते हैं और उनका बाल बांका करने वाला कोई भी नहीं. ये सब तक बदलता है जब उनमें से दो भाई गांव के स्कूल टीचर की पत्नी को अगवा कर लेते हैं. उसके बाद गांववालों के दिलों में ऐसी भीषण अग्नि धधकती है जो अपने आप में क्रांति की शक्ल ले लेती है. ये फिल्म जितनी असहज कर देने वाली है, दुर्भाग्यवश उतनी ही हमारे लिए ज़रूरी भी है.
#3. मंथन (1976)

डॉक्टर वर्गीज़ कुरियन की लाई श्वेत क्रांति इस फिल्म के लिए प्रेरणा बनी. ये भारत की पहली क्राउड-फंडेड फिल्म थी जहां पांच लाख किसानों ने दो-दो रुपये दिए थे. साल 2024 के कान फिल्म फेस्टिवल में इसका रिस्टोर्ड वर्ज़न को स्क्रीन किया गया था. ये नई जानकारी नहीं है. फिर ‘मंथन’ को क्या रेलेवेंट बनाता है? जवाब है इसकी थीम, इसकी सधी हुई सोशल कॉमेंट्री. ये फर्क की कहानी है, पूंजीपतियों और आम नागरिकों के बीच का फर्क. एक शहर से आए पढे-लिखे आदमी और गांव में अपना घर चलाने वाली लड़की का फर्क. कैसे ये फर्क किसी को उसके हक की रोटी नहीं खाने देता. कैसे ये फर्क मन में उमड़ते प्रेम को, कामुकता को वर्जित बना देता है. आज से 50 साल पहले श्याम बाबू का स्टैंड इतना क्लियर था कि उन्होंने किसी कथित ऊंची बिरादरी से आने वाले पुरुष को गांववालों का तारणहार नहीं बनने दिया. उन्हें अंत में अपनी कमान अपने हाथ में ही लेनी पड़ी.
#4. भूमिका (1977)
फिल्म की कहानी मराठी थिएटर और सिनेमा की एक्ट्रेस हंसा वाड़कर के जीवन पर आधारित थी. स्मिता पाटील ने उषा नाम की एक्ट्रेस का रोल किया. ये उस समय की कहानी है जब फेमिनिज़्म इस समाज के फैबरिक का हिस्सा नहीं था. फिल्म देखते हुए आपको एहसास होता है कि पितृसत्ता ने सबसे पवित्र चीज़ प्रेम को भी नहीं छोड़ा. कैसे पुरुष प्रधान समाज में प्रेम का आइडिया बदला है. क्या होता है जब ऐसे समाज में एक महिला अपने जीवन को प्रेम के रंगों से भरने की कोशिश करती है, और अंत में उसके हाथों में सिर्फ उदासी और अकेलेपन का नीला रंग रह जाता है. ये स्मिता पाटील के करियर के सबसे बेहतरीन सिनेमा में से एक है. उनकी बहन मान्या पाटील सेठ ने फिल्मफेर को दिए एक हालिया इंटरव्यू में कहा कि स्मिता उषा जैसी ही थी. वो उसी समाज के खिलाफ बगावत करती थीं जिसमें उन्हें अपनी जगह बनानी थी. वो अपने लिए एक पारंपरिक जीवन चाहती थीं लेकिन उसमें उनका दम भी घुटता था.
#5. जुनून (1978)

इस फिल्म के हर पहलू पर क्लासिक लिखा है. रस्किन बॉन्ड की कहानी A Flight of Pigeons पर आधारित फिल्म. ‘अर्ध सत्य’ और ‘द्रोहकाल’ जैसी फिल्में बनाने वाले गोविंद निहलानी इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफर थे. उनके हाथ का करिश्मा आप उस सीन में देख सकते हैं जहां पूरे डिनर सीन की लाइटिंग सिर्फ मोमबत्तियों से की गई है. किसी आर्टिफिशियल लाइट का इस्तेमाल नहीं हुआ. फिल्म की कहानी अंग्रेज़ों के विरुद्ध हुई पहली क्रांति के समय घटती है. इसके केंद्र में जावेद खान (शशि कपूर) है. उसकी पत्नी फ़िरदौस (शबाना आज़मी) इसी इंतज़ार में रहती है कि वो उसे प्यार भरी नज़र से देखे. मगर जावेद किसी भी कीमत पर रूथ नाम की ब्रिटिश लड़की को पाना चाहता है. फिल्म में शशि कपूर, शबाना आज़मी, जेनिफर केंडल, नफीसा अली और नसीरुद्दीन शाह जैसे एक्टर्स ने एक्टिंग की मास्टरक्लास पेश की है. ऊपर से वनराज भाटिया का बैकग्राउंड स्कोर है जो आपको किसी पाश की भांति जकड़कर रखता है.
#6. कलयुग (1981)

महाभारत को अलग-अलग तरह से सिनेमा में अडैप्ट किया गया है. श्याम बेनेगल की ‘कलयुग’ सबसे बुलंद अडैप्टेशन में से एक है. कहानी दो बिज़नेस परिवारों के बीच की दुश्मनी पर केंद्रित है. कैसे वो सरकारी टेंडर, ट्रेड यूनियन के भरोसे, पैसे और पावर के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं. इस लड़ाई में कैसे सभी लाइन ब्लर होने लगती हैं, कैसे सही और गलत का अंतर क्षीण पड़ने लगता है. शशि कपूर, रेखा, अनंत नाग, राज बब्बर, कुलभूषण खरबंदा जैसे एक्टर्स ने मज़बूत काम किया है.
#7. मंडी (1983)
श्याम बाबू ने एक इंटरव्यू में कहा था कि इस फिल्म को शूट करना उनके करियर का सबसे मज़ेदार अनुभव था. उन्होंने प्लान किया था कि इसे 45 दिनों के शेड्यूल में शूट किया जाएगा. लेकिन 28 दिनों में ही फिल्म की शूटिंग पूरी हो गई. कहानी एक ब्रॉथल की है. कैसे जिस्मानी हवस और पावर के नशे में चूर लोग उसे देखते हैं. फिल्म में ब्रॉथल अपने आप में एक किरदार बनकर उभरता है. शबाना आज़मी, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, रत्ना पाठक शाह और नीना गुप्ता जैसे एक्टर्स इस यूनिवर्स का हिस्सा थे.
#8. ज़ुबैदा (2001)
एक्ट्रेस ज़ुबैदा बेगम पर बनी फिल्म. करिश्मा कपूर ने उनका रोल किया था. ज़ुबैदा के बेटे खालिद मोहम्मद ने फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले लिखे थे. पूरी दुनिया के लिए वो एक्टर थीं. लेकिन सारे शोर से दूर वो बस एक लड़की थीं जिसकी शादी बड़े घराने में हुई. वो लड़की जो दुनिया की बंदिशों के साथ-साथ खुद के भीतर उमड़ रहे तूफान से भी उन्मुक्त होना चाहती थी. लेकिन उसे आज़ादी की महंगी कीमत चुकानी पड़ी. फिल्म में मनोज बाजपेयी ने करिश्मा के पति का रोल किया था.
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