डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी लंबे समय से पृथ्वीराज चौहान की कहानी पर काम कर रहे थे. अपनी रिसर्च के दौरान उन्होंने चंद बरदाई का लिखा महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ पढ़ा. उस से प्रेरित होकर अपनी फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ की कहानी लिखी. कौन थे चंद बरदाई? पृथ्वीराज चौहान के दोस्त, उनके राज कवि. पृथ्वीराज के सबसे विश्वासपात्र लोगों में से एक. ऐसे ही उनके एक विश्वासपात्र थे काका कन्ह. जो पृथ्वीराज के लिए किसी भी मुसीबत से लड़ने को राज़ी थे. पृथ्वीराज चौहान का जीवन सिर्फ राजदरबार और युद्धभूमि तक ही सीमित नहीं था.
मूवी रिव्यू: सम्राट पृथ्वीराज
जब ‘सम्राट पृथ्वीराज’ का ट्रेलर आया था, तब फिल्म को बुरी तरह ट्रोल किया गया. कहा जाने लगा कि ये एक बहुत बुरी पीरीयड ड्रामा साबित होने वाली है. पर ऐसा नहीं है.
उन्होंने प्रेम भी किया. संयोगिता नाम की राजकुमारी से. वो संयोगिता, जिसके लिए कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज के स्वयंवर में न आने पर उनकी मूर्ति को माला पहना दी थी. कन्ह, चंद और संयोगिता. ये वो लोग थे जिन्होंने पृथ्वीराज को अपनी वफ़ादारी, सम्मान और प्रेम दिया. फिर आता है वो किरदार जिसने बैर किया, अफ़ग़ानिस्तान के गज़नी का सुल्तान मोहम्मद गोरी. पृथ्वीराज चौहान की मोहम्मद गोरी से जंग के बारे में बहुत कुछ कहा और सुना जा चुका है. डॉ. द्विवेदी की फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ उनके जीवन का सिर्फ वही पहलू नहीं दिखाना चाहती. वो आपको पृथ्वीराज चौहान का आइडिया देना चाहती है, उनसे परिचय करवाना चाहती है.
मेकर्स ने अपनी ज़रूरत के अनुसार ड्रामा ऐड करने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली है. इससे वो एक राजा से परे पृथ्वीराज चौहान को दिखाना चाहते थे. फिल्म में हम देखते हैं कि पृथ्वीराज चौहान अपनी सोच को अपने समय में नहीं बांधते. महिला और पुरुष को समान मानते हैं. अपनी राजगद्दी अपनी पत्नी के साथ साझा करते हैं. ताकि जो फैसले हों, उसमें दोनों की राय हो. अपने धर्म का पालन करते हैं, शरणार्थियों की रक्षा करते हैं. दूसरी तरह है मोहम्मद गोरी. जो क्रूर है. अपने दुश्मन की हिम्मत को मानता है, फिर भी छल करके युद्ध जीतने से उसे कोई दिक्कत नहीं. गोरी को एक और शौक है. हमेशा अंधेरे दरबार या कमरों में बैठने का. वहीं, पृथ्वीराज के दरबार रोशनी से लहलहाते हैं.
अक्सर हीरो और विलेन में फर्क दिखाने के लिए ऐसी लाइटिंग का इस्तेमाल होता है. हीरो ब्राइट लाइट में, और विलेन अंधेरे में. यहां भी ऐसा हुआ है. कहने का मतलब ये है कि फिल्म पूरे व्हाइट और पूरे ब्लैक में ट्रैवल करती है. यहां ग्रे एरिया को स्पेस नहीं दिया गया. जब ‘सम्राट पृथ्वीराज’ का ट्रेलर आया था, तब फिल्म को बुरी तरह ट्रोल किया गया. कहा जाने लगा कि ये एक बहुत बुरी पीरीयड ड्रामा साबित होने वाली है. पर ऐसा नहीं है. फिल्म में कई खामियां हैं, जिनके बारे में आगे बात करेंगे, लेकिन ये पीरीयड ड्रामा का एसेंस बरकरार रखती है. यश राज फिल्म्स के बैक करने का असर दिखता है. प्रॉडक्शन डिज़ाइन पर काम हुआ है. बड़े सेट तैयार किए गए, जिन्हें एक्स्ट्राज़ से भरा गया. वाइड शॉट्स लिए, ऐसे शूट किया कि सीन्स ग्रैंड दिखें.
डॉ. द्विवेदी ने फिल्म और उसके सब्जेक्ट्स पर जो रिसर्च की, वो नज़र आती है. डिटेलिंग पर खास ध्यान दिया गया, खासतौर पर पहनावे पर. फिर चाहे वो राजस्थानी कपड़े हों या पगड़ी, आप उनमें नुक्स नहीं निकाल पाएंगे. फिल्म आने से पहले कहा जा रहा था कि पृथ्वीराज चौहान बने अक्षय बेस्ट चॉइस नहीं. वो अक्षय कुमार ज़्यादा लग रहे हैं. अक्षय ने फिल्म में बाजाफाड़ काम भले ही नहीं किया, लेकिन वो अखरते भी नहीं. उनकी डायलॉग डिलीवरी एक ही टोन पर लगती है. फिल्म के वॉर सीन्स या कंफ्रंट करने वाले सीन्स में वो मिसफिट नहीं लगते. मानुषी छिल्लर ने संयोगिता का रोल निभाया. शुरुआत में उन्हें देखकर लगा कि उनका रोल सिर्फ डांस सीक्वेंसेज़ के लिए रखा गया है. हालांकि, आगे चलकर उनके हिस्से भी सीन्स आए.
जहां उन्होंने डायलॉग डिलीवर किए. बिना ज़्यादा एक्सप्रेशंस के. ये उनकी डेब्यू फिल्म है, उस लिहाज़ से देखें तो उनकी ओवरऑल परफॉरमेंस डिसेंट थी. फिर आते हैं कहानी के विलेन, मोहम्मद गोरी बने मानव विज. आप उनकी आंखों में कुछ खोजना चाहते हैं, उन्हें देखकर कोई भाव महसूस करना चाहते हैं. पर ऐसा होता नहीं. ऐसा लगता है कि उनके कैरेक्टर को काफी अंडरप्ले करवाया गया है, और उन्हें प्रॉपर स्पेस नहीं मिला. स्पेस, यही शब्द इस फिल्म के लिए सबसे घातक साबित होता है.
फिल्म की लेंथ है करीब 2 घंटे 15 मिनट. मुझे ऐसा महसूस हुआ कि अगर आप पृथ्वीराज चौहान जैसे व्यक्तित्व को परदे पर अच्छे से उतारना चाहते हैं, तो कायदे से अपना समय लीजिए. यही मेकर्स ने नहीं किया है. पृथ्वीराज की चंद बरदाई से दोस्ती, संयोगिता से प्रेम, हम इनमें से किसी की भी नींव पड़ते हुए नहीं देख पाते. बस ये चीज़ें कुछ डायलॉग्स में गुज़र जाती हैं. फिल्म को जल्दी-जल्दी करने की हड़बड़ी पूरी फिल्म में दिखती है. जिस वॉर सीक्वेंस के लिए बिल्ड अप बनाया जाता है, वो पलक झपकने से पहले ब्लैक आउट हो जाता है. फिल्म की सारी अच्छी बातों को उसकी ये लेंथ कवर कर लेती है.
आप पृथ्वीराज चौहान की कहानी में इंवेस्ट होना चाहते हो, लेकिन जब सब इतनी जल्दी निकल जाए, तो ऐसा लगता है कि आप किसी किताब को सरसरी तौर पर बस पन्ने पलटकर पढ़ रहे हैं. आपको अंदर कुछ महसूस नहीं होता. जब स्क्रीन पर प्रेम चल रहा हो तो आंखें खिलखिला नहीं उठती. न ही ट्रैजडी होने पर वो नम होती हैं. कहानी को दो घंटे टाइप विंडो में फिट करने की जगह उसे बहने देना चाहिए था. ‘सम्राट पृथ्वीराज’ का ट्रेलर देखकर मैं बहुत निराश हुआ था. कम से कम फिल्म देखने पर वैसा हाल नहीं हुआ. ये फिल्म खुद को एक बेहतरीन और बुरी पीरीयड ड्रामा के बीच में कहीं पाती है.
वीडियो: मूवी रिव्यू - 14 फेरे