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वेब सीरीज़ रिव्यू: इंडियन प्रेडेटर- मर्डर इन अ कोर्टरूम

एक डॉक्यूमेंट्री को फ़िक्शन की तरह ट्रीट करने के चक्कर में कुछ-कुछ चीज़ें छूट गई हैं.

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'इंडियन प्रेडेटर: मर्डर इन अ कोर्टरूम'

क़रीब 100-200 लोगों की भीड़ कोर्ट रूम में घुसती है. सुनवाई के लिए लाए गए बदमाश का क़त्ल कर देती है. ऐसा भयानक क़त्ल कि रूह कांप उठे. अंतड़ियां बाहर लटक आती हैं. जिसे जो मिला पत्थर, छूरी, कटार सबने उससे प्रहार किए. कचहरी में कटघरे के सामने लाश पड़ी है. पास में ही आयरनी भी लहूलुहान खड़ी है. ख़ून बहकर दरवाज़े तक जा रहा है. क़त्ल करने वाले लोग रिक्शा पकड़ते हैं. अपने घर पहुंच जाते हैं. अगले दिन अख़बार में छपता है. महिलाओं ने कुख्यात अपराधी अक्कू यादव का कोर्ट में मर्डर कर दिया. आज हम नेटफ्लिक्स पर आई जिस सीरीज़ का रिव्यू कर रहे हैं, वो इसी अपराधी की कहानी है- Indian Predator: Murder In A Courtroom

नेटफ्लिक्स पर आई डॉक्यू सीरीज़ का पोस्टर.

इससे पहले इंडियन प्रेडेटर फ्रैंचाइज़ के दो सीज़न आ चुके हैं. 'द बुचर ऑफ डेल्ही' और 'द डायरी ऑफ अ सीरियल किलर'. इसे इस सीरीज़ की तीसरी किस्त बुलाया जा सकता है. हालांकि ऐसा कोई औपचारिक ऐलान नहीं हुआ है कि ‘मर्डर इन अ कोर्टरूम’ तीसरा सीज़न है. इससे पहले जो दो इंडियन प्रेडेटर आए, वो इस वाले से बिल्कुल अलग थे. ये डॉक्यू-सीरीज़ आज यानी 28 अक्टूबर से नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. आइए देखते हैं, कैसी है?

तीन एपिसोड की ये सीरीज़ अक्कू यादव के मर्डर को रेफ्रेंस पॉइंट के तौर पर उठाती है. उसी के सहारे उसके आगे-पीछे की कहानी बयान करती है. अक्कू, कई हत्याएं, मर्डर और रेप का आरोपी था. उसको कैसे मारा गया? ऐसा क्या हुआ कि भीड़ ने उसका मर्डर करने का फ़ैसला किया? महिलाओं ने ही मारा या ये कोई गैंगवार था? इन सबकी पड़तालनुमा पेशकश है 'इंडियन प्रेडेटर: मर्डर इन अ कोर्टरूम'.

अक्कू यादव के रोल में हैप्पी

सीरीज़ कई नैरेटिव्स को उठाने की कोशिश करती है. पहला है महिलाओं की मुखरता. सीरीज़ देखने वाले इसे ऐसे भी कह सकते हैं, महिलाओं पर अत्याचार. पर मैं कहूंगा उनकी मुखरता. साथ ही सिस्टम से हारकर चिढ़ में ये कहना कि 'न्याय का अंतहीन इंतज़ार हम नहीं करेंगे.' सीरीज़ का पहला फ्रेम ही आग जलने से खुलता है. साथ ही एक रैपनुमा गाना आता है: 'चल चक्का जामकर, खुलेआम कर'. यहीं सीरीज़ का टोन सेट हो जाता है. इसके बोल बढ़िया हैं. 

दूसरा नरेटिव बिल्ड किया गया है, दलितों के शोषण से उपजे आक्रोश का. शुरू में गाने का फिल्मांकन ऐसा है कि उसमें आपको अंबेडकर और बुद्ध दिख जाएंगे. आप वहीं से इस बात का अंदाज़ा लगा लेते हैं. पर ये वाला नरेटिव बहुत ढीला है. ऐसे ही भाषाई विभेद को भी छूने का प्रयास भर हुआ है. चूंकि ये सीरीज़ महाराष्ट्र में सेट है. साथ ही इसकी ओरिजनल लैंग्वेज भी मराठी है. तो मराठी और हिंदी वाला ऐंगल दिखाने की कोशिश हुई है. ऐसे ही तमाम पहलू हैं. इसमें मीडिया के टीआरपी खेल को छूने की भी कोशिश नज़र आती है. कुल मिलाकर सबकुछ थोड़ा-टच करने का प्रयास किया गया है. पर मुख्य मुद्दा है अक्कू यादव और पीड़ित महिलाएं. इनके बीच जो कुछ हुआ, वही इस सीरीज़ की नींव है. 

‘चक्का जाम कर, खुलेआम कर’

तीनों एपिसोड्स की पेस धीमी लगती है. और ये भी लगता है शायद कहानी में कहने के लिए बहुत कुछ था नहीं. ऐसा लगा जैसे सीधी-सपाट न्यूज़ रिपोर्ट की तरह इसे पेश कर दिया गया. बस यहां डिटेलिंग थोड़ी ज़्यादा नज़र आती है. कई पहलुओं को ढंग से दिखाने की ज़रूरत थी. महिलाओं का पक्ष मज़बूती से रखा गया है. अक्कू यादव वाला पक्ष कमज़ोर है. साथ ही कानून को हाथ में लेने वाले पॉइंट को थोड़ा और एक्सप्लोर करने की ज़रूरत थी. वहां के सामाजिक ताने-बाने को और ढंग से एक्सप्लोर करते. दोनों पक्षों से इतर न्यूट्रल लोगों को और ज़्यादा जगह दी जाती. इन सबमें सीरीज़ पूरी तरह से ऊपर-ऊपर की बात करती लगती है. ना अक्कू यादव और ना ही विक्टिम के मन के भीतर झांकती है. मेंटल स्टेट पर भी और ज़्यादा बात की जानी चाहिए थी.

हां, एक बात है सीरीज़ सिस्टम की खामियों को ढंग से दिखाने की कोशिश करती है. साथ ही बस्ती के अंदर के माहौल और अक्कू के कारण व्याप्त दहशत को भी दिखाती है. नाट्य रूपांतरण अच्छे हैं. कास्टिंग बहुत अच्छी है. ऐक्टर्स रियल लगते हैं. अक्कू यादव बने हैप्पी कालिजपुरिया(Happy Kalizpuria) का काम अच्छा है. आशा भगत बनी स्नेहलता तगड़े (Snehalata Tagde) समेत सभी ऐक्टर्स ने बढ़िया काम किया है.

आपबीती बताती महिलाएं

बाक़ी के लगभग सभी डिपार्टमेंट्स में भी ठीक काम ही हुआ है. चाहे निधि गिरीश सालियान की रिसर्च हो. या फिर इंटरव्यू शेड्यूल में दीप्ति गुप्ता का डीओपी के तौर पर काम. नाट्य रूपांतरण वाले हिस्से में सविता सिंह की सिनेमैटोग्राफी बेहतरीन है. कुछ-कुछ pov शॉट्स काफ़ी अच्छे हैं. मोनिषा बलदावा (Monisha Baldawa) की एडिटिंग भी ठीक है. बीच-बीच में अचानक आने वाले शू-शां टाइप्स मोंटाज ठीक नहीं हैं. साथ ही एकाध जगह लिप सिंक गड़बड़ है. ख़ासकर एडवोकेट प्रकाश जैसवाल की बाइट में. कलरिस्ट नवीन शेट्टी की अलग से तारीफ़. बहुत सुंदर कलर ग्रेडिंग है. मंगेश धाकड़े (Mangesh Dhakde) का संगीत भी सही है. उमेश विनायक कुलकर्णी का डायरेक्शन और बेहतर हो सकता था. उनसे एक डॉक्यूमेंट्री को फ़िक्शन की तरह ट्रीट करने के चक्कर में कुछ-कुछ चीज़ें छूट गई हैं.  लब्बोलुआब ये है कि सीरीज़ मुझे ख़ास जमी नहीं. बाक़ी आपलोग भी बताइए कैसी लगी?

अंत में एक माफ़ी यदि सीरीज़ से जुड़े किसी भी डिपार्टमेंट के किसी व्यक्ति का नाम लिखने में ग़लती हो गई हो, तो उसके लिए माफ़ी.

कैसी है नेटफ्लिक्स की सीरीज़ 'इंडियन प्रेडेटर : द डायरी ऑफ अ सीरियल किलर'?