The Lallantop

'फुले' के डायरेक्टर बोले, "तमिल ब्राह्मणों को मांस खाते देखा, शराब पीते, मेरा सारा भ्रम टूट गया"

Phule एक्टर Pratik Gandhi और डायरेक्टर Anant Mahadevan ने जाति प्रथा का सारा भेद खोलकर धर दिया.

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फुले में सेंसर बोर्ड ने करवाए थे 12 बदलाव. इसके चलते फिल्म 11 के बजाय 25 अप्रैल को रिलीज़ हुई.

समाज सुधारक Jyotiba Phule और उनकी पत्नी Savitribai Phule के जीवन पर बनी फिल्म Phule 25 अप्रैल को थिएटर्स में रिलीज़ हो चुकी है. रिलीज़ से पहले फिल्म के लीड एक्टर Pratik Gandhi और डायरेक्टर Anant Mahadevan The Lallantop के ख़ास कार्यक्रम Cinema Adda में आए. जातिगत भेदभाव को रेखांकित करती इस फिल्म के बारे में बात करते हुए दोनों एक्टर्स ने जीवन का वो वाकया सुनाया. जब उन्होंने जाति को, क्लास सिस्टम को पहली बार महसूस किया था. 

इस बातचीत के दौरान डायरेक्टर अनंत महादेवन से पूछा गया कि उन्होंने पहली बार जाति को कब महसूस किया. इस पर उन्होंने कहा,

"मैं केरल में पैदा हुआ था. त्रिशूर में. वहां पे एक माली आता था काम करने. मेरी नानी कहती थीं कि उनको पीने का पानी देना है, तो रख दो. उनको हाथ में नहीं देते हैं. उस वक्त मैं सोच रहा था कि ऐसा क्यों? क्या फर्क है? उस वक्त मुझे पहली बार ये महसूस हुआ था कि समाज में क्लास डिफरेंस है. चूंकि हम लोग टैम ब्रैम्स (तमिल ब्राह्मण) थे, जो खुद को सबसे आला दर्जे के सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण मानते हैं. हालांकि बाद में मेरा ये भ्रम पूरी तरह से टूट गया, जब ये सारे तमिल ब्राह्मण मांस खा रहे थे. शराब पी रहे थे. सिगरेट पी रहे थे. अपने मां-बाप से छिपकर वो ये सब कर रहे थे. ऐसा पाखंड देखा मैंने. या तो आप किसी बात को मानते हो, या आप उसे नहीं मानते हो. पाखंडी मत बनो. मुझे समझ आ गया कि ये सब दिखावा था, जो हमने हमारे लिए खुद ही रचा था." 

अनंत महादेवन ने सालों पहले किए गए सामाजिक वर्गीकरण को सिरे से नकारा. उन्होंने कहा कि ये सब सिर्फ ताक़त के लिए किया गया है. मगर असल में बेमानी है. वो बातचीत में आगे जोड़ते हैं,

"अछूत और खुद को उच्च जाति का बताने वाले, ज़रूरत पड़ने पर एक-दूसरे को ख़ून दे सकते हैं. बायोलॉजिकली वो दोनों के लिए एक ही तरह से काम करेगा. जब बायोलॉजिकली हम सब एक जैसे हैं, तो सोशली हम अलग क्यों हैं? ये क्लास डिफरेंस हमने खुद बना लिया है. और वो इसीलिए बनाया गया है क्योंकि हर किसी को ख़ुद को ऊपर रखना है. हर एक को ताक़त चाहिए. हम लोगों का किया गया ये पूरा वर्गीकरण सिरे से ग़लत है."

अनंत महादेवन ने केरल से मुंबई आने के बाद उनके परिवार की मानसिकता में अचानक आए बड़े बदलाव के बारे में भी बताया. उन्होंने कहा,

"जब बम्बई आए तो क्या हुआ? वही लोग आपके घर पर आ रहे थे. वही लोग काम कर रहे थे. वही लोग आपका खाना बना रहे थे. अचानक से सब कुछ स्वीकार्य हो गया. उस वक्त आप इन लोगों को ख़ुद से दूर रख सकते थे. जैसे ही आप दूसरी जगह गए, सब बदल गया. ये सब पूरी तरह से बेमानी है. वो लोग कहते थे, हमारी गाय के मूत्र से अपने घर को पवित्र करेंगे. लेकिन हमारे पास नहीं आएंगे. ये हास्यास्पद है."

वो जातियां जो मैला ढोने का काम करती थीं, उन्हें लोगों ने अस्पृश्य कर दिया. प्रतीक ने बताया कि उन्होंने ये भेदभाव पहली बार कब महसूस किया? वो बोले,

“पहली बार जब इसने मुझे हैरान किया तब मैं कॉलेज में था. वो जो फॉर्म देते हैं ना भरने के लिए, नाम नंबर पता उम्र जेंडर सब... उसमें धर्म और जाति भी लिखा रहता है. और मैं सोच रहा हूं कि इसका क्या करेंगे ये लोग? इस डेटा से क्या करेंगे? ना मैं राशन कार्ड बना रहा हूं. ना मैं वोटर कार्ड बना रहा हूं. सेंसस में इसकी ज़रूरत नहीं है. यहां तक कि जब मैंने ऑफिस जॉइन किया, तब वहां के फॉर्म में भी ये डीटेल भरना थी. क्यों पूछते हो जाति? करते क्या हो इसका? मैंने एक किताब में पढ़ा था कि जितना आप किसी चीज़ को लिखते हो, वो उतना ही आपके दिमाग मे गहरी बैठती जाती है. मुझे लगता है ये बिल्कुल सही बात है. बार-बार जाति लिखना आपको बार-बार याद दिलाता है कि कास्ट सिस्टम है. ये बात मानसिकता पर बहुत गहरा असर करती है."

'फुले' 25 अप्रैल को रिलीज़ हुई. पहले ये फिल्म 11 अप्रैल को रिलीज़ होने वाली थी, मगर सेंसर बोर्ड की तरफ से इसमें 12 बदलाव सुझाए गए थे. बोर्ड का कहना था कि इसमें कई संवाद और शब्द ऐसे हैं जो जातिवाद को बढ़ावा देते हैं. बोर्ड ने इन्हें हटाने के लिए कहा था. हिस्टॉरिकल रेफरेंस और सबटाइटल में भी बदलाव करने को कहा गया था. फिल्म में पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले का किरदार निभाया है. ज्यातिबा फुले बने हैं प्रतीक गांधी. नेशनल अवॉर्ड विनिंग फिल्ममेकर अनंत नारायण महादेवन ने इसे डायरेक्ट किया है. 

वीडियो: तारीख: कहानी ज्योतिबा फुले की जिनकी वजह से औरतों को अधिकार मिलने शुरू हुए