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Panchayat Season 3 REVIEW: खाट पर सुस्ताती हुई कमाल वेब सीरीज़

कुछ दुष्ट गालियों को छोड़ दें तो एक ऐसी सीरीज़ जिसे आप पूरी फैमिली को रेकमेंड कर सकते हैं. नया Panchayat season 3 भी अब आ चुका है. Raghubir Yadav, Jitendra Kumar, Neena Gupta, Faisal Malik, Chandan Roy, Pankaj Jha की अमर भूमिकाओं से सजी Amazon Prime video की ये सीरीज़ कैसी है, पढ़ें हमारे इस web series review में.

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बनराकस (दुर्गेश कुमार) की वो बात जिसे सुन प्रधान जी (रघुबीर यादव) ठठाकर हंस पड़ते हैं. पंचायत सीज़न 3 का एक मज़ेदार दृश्य. (Photo: Amazon Prime Video)

     Rating: 4 Stars     
Panchayat Season 3 Web Series Review

इस अपरिभाष्य सी सीरीज़़ की कॉमेडी कैसी है, इसकी तुलना नहीं की जा सकती. ये पूरी तरह चैपलिनिस्क भी नहीं है. ये साशा बेरन कोहेन की कॉमेडी भी नहीं है. ये रोवन एटकिन्सन की मि. बीनीश कॉमेडी भी नहीं है. हां, एक ढंग में हम इसे "डंब एंड डंबर" का माइल्ड वर्जन, या एक रियलिस्टिक वर्जन कह सकते हैं. ग्राम्य जीवन का ऐसा पिछला रेफरेंस मुझे डायरेक्टर दलाल गुहा की 1975 में आई एक्शन-कॉमेडी "प्रतिज्ञा" में दिखता है. जहां एक ट्रक ड्राइवर अजीत (धर्मेंद्र) भरत डाकू से बदला लेने एक गांव में नकली थानेदार बनकर जाता है, और वहां थाना स्थापित करता है. सब शराबियों, खलिहरों, सेवकों को पुलिस में भर्ती कर लेता है. केष्ठो मुखर्जी, जॉनी वॉकर, जगदीप और धर्मेंद्र हंसा हंसाकर पटकते हैं सीटों से, उस कहानी में. कुछ वैसा ही प्यार "पंचायत" के किरदारों से हो जाता है. "प्रतिज्ञा" से या बाकी किसी भी दूसरे कॉमीडिक रेफरेंस से "पंचायत" या उसका सीज़न 3 बेइंतहा अलग है.

"पंचायत" एक स्लाइस ऑफ लाइफ कॉमेडी है. यानी जैसे लोग असल जिंदगी में आपको मिले होंगे, वैसे ही "पंचायत" सीरीज़़ में मिलेंगे. कहीं कुछ नकली नहीं होगा. जिन्हें देखते हुए आपका ध्यान ज़रा भी नहीं हटेगा. ये पात्र डंब तो नहीं हैं लेकिन इतने भोले जरूर हैं कि कुछ एक्स्ट्रीम, या ख़ून ख़राबेदार इनके बीच नहीं होता है. सीज़न 3 के अंत में कुछ सिर फूटते हैं लेकिन वो भी रियलिस्टिक ही है, या फिर कहें तो तीन साल पहले बागपत में चाट बेचने वालों के बीच जो लट्ठ मार, भरी दुपहरी में हुई थी, कुछ कुछ वैसा ही होता है. यानी ये भी रियल ही हुआ.

हालांकि "पंचायत" में कुछ कुछ कटु गालियां हैं, लेकिन फिर भी अगर फैमिली ऑडियंस रेकमेंडेशन मांगती है कि क्या कुछ ऐसा देखा जा सकता है जो हंसाने-गुदगुदाने वाला हो, हल्का फुल्का हो और परिवार के साथ बैठकर देखा जा सकता है, तो "पंचायत" और "गुल्लक" शीर्ष नाम बनकर उभरते हैं.

इसका कुछ बेहतरीन ह्यूमर याद करें.

सीज़न 1 में भुतहे पेड़ की कहानी आती है. सचिव जी, विकास को रात अपने साथ ले चलते हैं. भुतहा पेड़ का मिथक दूर करने. बाइक के पीछे बैठा भोला, ग्रामीण विकास पूरी गंभीरता से पत्नी को फोन करता है - "खुशबू... अगर हम वापस नहीं लौटे तो दूसरा शादी कर लेना. समझना हमारा तुम्हारा साथ यहीं तक था. और ऊपर वाला कमरा की पेटी में बाबा का दिया हुआ 25 चांदी का सिक्का रखा हुआ है. उसको बेच लेना. तीन चार महीना का खर्चा पानी निकल जाएगा."
सचिव कहता है - "अरे कुछ नहीं होगा."
विकास - "अरे कैसे कुछ नहीं होगा..." 
उधर बीवी फोन पर कुछ कहती है, तो विकास कहता है - "क्या... अरे हम मोटरसाइकल से नहीं कूद सकते. हमने हेलमेट नहीं पहना है न. हां. पहन के तो आना चाहिए था, पर हम भुला न गए. क्या करें, विनाश काले विपरीत बुद्धि."

या फिर वो एपिसोड जहां पंचायत भवन से कंप्यूटर का मॉनिटर चोरी हो जाता है. अंत में चोर दरवाजे पर छोड़ जाता है. साथ में चिट रखी होती है. लिखा होता है - "हमको लगा टीवी है, माफ कीजिएगा."

या जब विकास और सचिव कुछ लड़कों को स्टैंड पर खड़ी बाइक पर बैठने से मना करते हैं, लड़ाई हो जाती है. घनघोर हंसी वाली लड़ाई. अंत में सब निपट जाता है तो सचिव उस लड़के से कहता है - "बाइक सिंगल स्टैंड पर खड़ी थी, गिर जाते तो दांत टूट जाते". तो वो लड़का कहता है, "हम तो पागल हैं, बाइक पर बैठे नहीं है, ऐसे कैसे गिर जाती? इस पर सचिव गुस्से में कहता है, "अभी बताता हूं" और सिंगल स्टैंड पर खड़ी करके उस पर बैठता है और धड़ाम से गिरता है. वो लड़का और दूसरे लड़के कहते हैं, "एकदम ही पागल आदमी है बे" ... "जानवर."

सबसे निराला, सिनेमा की दुनिया का एक बेहद हिलैरियस, "जाने भी दो यारों" में द्रौपदी के चीरहरण सीन माफिक, सीन वो है जहां ओडीएफ घोषित गांव में कलेक्टर मुआयने के लिए आती हैं और बिनोद (अशोक पाठक) उनके सामने शौच करता पकड़ा जाने का मिशन लेकर सुबह निकलता है. और प्रह्लाद चा, विकास उसे पकड़ लेते हैं, जब उसकी पैंट नीचे होती है, और वो कहता है - "आज तो हम यहां हग के ही रहेंगे".

ह्यूमर की इस "पंचायत" शृंखला में दीपक कुमार मिश्रा के डायरेक्शन में सीज़न 3 आया है और कारगर है. उतना ही मुकम्मल. मज़ेदार. देखते रहने का मन होता है.

हां. इस बार किरदार आगे बढ़े हैं. उनके अंदर थोडे़ थोड़े बदलाव भी आए हैं. लेकिन कहानी जारी है और जारी रहेगी.

शहरी लड़का अभिषेक (जितेंद्र कुमार), जिसे उसके 12 लाख सीटीसी वाले दोस्त प्रतीक ने चमचमाते शॉपिंग मॉल में, दोनों हाथों में 4 शॉपिंग बैग्स लटकाए, एस्कलेटर पर चढ़ते हुए कहा होता है, कि उसकी फुलेरा ग्राम पंचायत में लगी 20 हजार रुपये महीना की सरकारी नौकरी ऐसा एडवेंचर है जो उसे नहीं छोड़ना चाहिए. कि "तुझे स्वदेश का मोहन भार्गव बनने का मौका मिल रहा है. तू मिट्टी की खुशबू छोड़कर मेरी तरह कॉरपोरेट रैट रेस में क्यों फंसना चाहता है." तो वो मोहन भार्गव दो सीज़न से इस गांव में मिट्टी की खुशबू ले रहा है. कुढ़ कुढ़ कर जी रहा है. जब जब प्रधान मंजू देवी की बेटी रिंकी से मिलता है, तब तब उसे गांव में रहना अच्छा लगता है. बाकी समय उसे समझ ही नहीं आता कि वो फुलेरा में रहना भी चाहता है या नहीं. ख़ैर, ताजा समाचार ये है कि जिस कंकरों वाली कच्ची सड़क पर अपनी बाइक चलाकर वो पहले सीज़न के पहले एपिसोड में फुलेरा पहुंचा था, वो आज भी टूटी फूटी है. ये टूटी सड़क सीज़न 3 में बड़ा मसला बनती है.

मंजू देवी (नीना गुप्ता) जो पहले सीज़न में कहती थी क्या आप लोग हर समय राजनीति की बात करते हैं, वो अब पक्की राजनीतिज्ञ बनती जा रही हैं.

भूषण (दुर्गेश कुमार), मंजू देवी के सामने अपनी पत्नी (सुनीता राजवर) को चुनाव लड़वाने का मन बना चुका है. वो एक मज़बूत विपक्ष की शक्ल में उभरता है.

प्रधान जी (रघुबीर यादव) बीच बीच में अकेले भी पड़ते हैं. उनका मन भी उचटता है. लेकिन वे भी डटे हैं. उनकी दोस्तियां भी डटी हैं.

बिनोद अब भी पहले जितना ही हिलैरियस है, लेकिन वो अब पहले जितना मूढ़ और भोला नहीं रह गया है. उसे निभाने वाले अशोक पाठक की रियल लाइफ में जो समृद्धि हुई है इस सीरीज़़ की सक्सेस के बाद, उसका एक कॉन्फिडेंस उनके द्वारा निभाए इस कैरेक्टर में भी आया है. कुछ बनराकस उर्फ भूषण (दुर्गेश कुमार) की संगत का भी असर है.

कुछ पिछले सीज़न के किरदार भी लौटे हैं. जैसे - चक्के वाली कुर्सी का जो कांड हुआ था पहले सीज़न में, जिस दृश्य में से "गजब बेज्जती है" का आइकॉनिक संवाद निकला था, वो मेहमान जी (दामाद) सीज़न 3 में लौट आए हैं.

प्रह्लाद चा, जिनकी पर्सनल लाइफ में एक ट्रैजेडी, सीज़न 2 के अंत में घटी थी. वो सीज़न 3 का इमोशनल कोर बनकर रहते हैं. वो बैरागी भी हो जाते हैं, पेसिमिस्ट भी, एंग्री यंग मैन भी, और अंत में शार्प शूटर भी.

इस सीरीज़़ में चंदन कुमार की राइटिंग के जरिए हम छोटी छोटी समस्याएं, और छोटे छोटे समाधान देखते हैं. जो जीवन के परम सत्य होते हैं.

ऋषिकेश मुखर्जी की "बावर्ची" की तरह "पंचायत" में अंत में छोटी छोटी चीजों का महत्व सिद्ध किया जाता है. 

याद करें पहले सीज़न में सचिव अभिषेक रात को पढ़ना चाहता है. पंचायत भवन में रात को लाइट चली जाती है. वो इमरजेंसी लाइट्स ही एडजस्ट करता रह जाता है. जब सहायक विकास कहता है कि पहले दिन मीटिंग का एजेंडा ही 13 जगहों पर सोलर लाइट्स लगाना है तो वो अपने तमाम ग़म भूल जाता है और महज एक सोलर लाइट पंचायत भवन के बाहर लग जाए ये संभाव्यता उसके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हो जाती है. पंचायत समिति में दीवार पर भी लिखा होता है - "ठोकर लगती है तो दर्द होता है. तभी मनुष्य सीख पाता है."

ऐसा ही एक परम सत्य सीज़न 3 में भी आता है - "सोना देके ईंट पत्थर नहीं खरीदे जाते."

दरअसल होता है ये कि गांव का एक आदमी, उसकी बीवी और उसकी मां प्रधानमंत्री गरीब आवास योजना में घर पाने के लिए एक दूसरे से अलग होने का नाटक करते हैं. लेकिन उसे सच साबित करने के लिए उन्हें सच में अलग रहना होगा. मकान अलॉट भी हो जाता है. लेकिन फिर बेटा कहता है - "मैं पूरी जिंदगी मां से दूर कैसे रह सकूंगा. मकान का क्या करूंगा." वो प्रह्लाद चा को कहता है - "मां को समझाओ". प्रह्लाद उसकी बूढ़ी मां को अपने घर ले जाता है. जिसे बुहारा नहीं गया है हफ्तों से. घर मुर्दा सा लगता है. बेटे के सेना में बलिदान के बाद से उसके जीवन में कोई नहीं बचा. जब वो और वो बूढ़ी अम्मा उसके घर के आंगन में खड़े होते हैं तो डीओपी अमिताभ सिंह का कैमरा दूर जाता है, फिर करीब आता और घूमता हुआ उनके पीछे से दूर चला जाता है, उनका एक ओवरव्यू सा देते हुए. इससे घर में उनके अकेले होने और उस घर के काट खाने का आभास दिया जाता है. पीछे अनुराग साइकिया के म्यूज़िक वाला भावनात्मक गाना चल रहा होता है, सीरीज़ के बाकी अच्छे भले म्यूज़िक की तरह.

अगले पल प्रह्लाद उन्हें खाट पर बैठाकर पैरों के पास बैठ जाते हैं. 

बूढ़ी अम्मा कहती हैं - "बाबू, तुम हमका हिहां काहे लाए हो." 
प्रह्लाद कहते हैं - "बस अम्मा, दिखाने लाए थे कि खाली घर कैसा लगता है ऐसा. बहुत, बहुत काटता है. हमारी तो मजबूरी है. आपके पास तो पूरा परिवार है. उ सब छोड़ के, काहे ये मुसीबत पाल रही हो."
बूढ़ी अम्मा - "सोचा था कि मरने से पहले बेटे जगमोहन के काम आ जाऊं."
प्रह्लाद - “और बदले में अम्मा? बदले में पूरी जिंदगी, परिवार के बिना अम्मा? इसके लिए तैयार हो का तुम. सोना देकर कोई ईंट पत्थऱ खरीदता है का अम्मा.”

प्रह्लाद चा के रोल में फ़ैसल मलिक अनुपम पल पैदा करते हैं. दुपहरी में, मैदान में, पेड़ के नीचे लेटे हुए वाकई में लगता है कि ये पात्र अकेला हो गया है. वाकई में लगता है कि इसके बैंक में 50 लाख पड़े हैं और वो छूना भी नहीं चाहता. जबकि स्क्रिप्ट में महज एक लाइन लिखी है कि उसके खाते में इतने रुपये हैं.  

एक गूढ़ सूत्र इस सीन में काम करता है. कि दूसरे के लिए कुछ करोगे तो तुम्हे भी मिलेगा. प्रह्लाद अम्मा को उसके बेटे से मिलाता है तो अम्मा उसे फिर अपने घर में पुनः रहने की प्रेरणा देती है.  

दूसरा सूत्र ये कि धन, संपत्ति, लालच जरूरी नहीं, रिश्ते जरूरी हैं, अपने जरूरी हैं. इन्हें इन सामान्य शब्दों और लकीरों से कहीं ज्यादा भावुक ढंग से ये सीरीज़़ दिमाग में धंसा जाती है.

सीरीज़़ में कुछ सीन कमाल के हैं. क्लाइमैक्स गज़ब बन पड़ता है. जब विधायक और गांव वाले आमने सामने होते हैं. फिर मार कुटाई का भी एक विरला सीन है,

दूसरा सीन वो जहां बम बहादुर नाम के नए किरदार का पैर तोड़ने के लिए दो लोगों को भेजा जाता है. वो दोनों दरअसल पहले सीज़न में भी हंसा गए थे और "होम अलोन" (1990) के हैरी और मार्व के भारतीय संस्करण लगते हैं. निरे बुद्धू.

सीज़न 3 में राइटिंग की सुगढ़ता जरा कम हुई है. एक्टर्स अपने इंप्रोवाइजेशन या लहजों से उस सुगढ़ता की भरपाई करने की कोशिश करते हैं.  

इस बात को पर्याप्त स्ट्रेस देकर नहीं कहा जाता कि रघुबीर यादव इस सीरीज़़ का आधार हैं. वे वो प्रमाणन हैं, जो इस सीरीज़ को न मिलता तो ये सीरीज़़ एक क्लासिक का दर्जा पाने की ओर न बढ़ रही होती. उनके हहंकारा करने, ऐ ससुरा - इतना कहने मात्र से संवाद बन जाता है. ऑथेंटिसिटी आ जाती है. ऐसा लगता है कि उनका ब्रज भूषण दुबे का प्रधान जी का किरदार, "लगान" के मुर्गी पालक भूरा का ही पड़पोता है. 

सीज़न 1 में उनका इंट्रो सीन याद करें. वे सुबह लोटा लेकर घूमते घामते, निबटकर शर्ट-पजामे में पंचायत सदन के सामने आते हैं, जब सचिव जी की जॉइनिंग होनी है. एक एक फ्रेम, एक एक स्टेप याद करें. इतना सहज, नेचुरल, आला ऑथेंटिक प्ले कोई एक्टर नहीं कर पाता. 

कुछ और नए पात्र जुड़े हैं सीरीज़ में और वे भी कमाल हैं. वो बूढ़ी अम्मा जैसे बोलती हैं. वे उम्दा हैं. उनका पंचायत आकर सचिव से कहना कि बेटे ने घर से निकाल दिया है प्रधानमंत्री गरीब आवास में घर चाहिए, उसे देख लगता है वे कोई नॉन एक्टर हैं और वाकई में गांव में रहती हैं.
 
विधायक चंद्र किशोर सिंह का घोड़े को बेचने वाला सीन एक्टर पंकज झा के करियर बेस्ट परफॉर्मेंसेज़ में से एक है. कहना होगा कि पंकज को इस सीरीज़़ में अपना ड्यू मिला है. उनका आकार बढ़ा है.

वो इतने ग़लीज़ और रियल विधायकों जैसे विधायक बने हैं कि कलेक्टर से लेकर पुलिस तक सब कहते हैं - "ये विधायक तो पगला आदमी है, न जाने किसका वोट पाकर जीत गया है."

वो गांव जिन्हें मानव सभ्यता पीछे छोड़ आई है, छोड़ने जा रही है, उन्हीं गावों के पेड़ों के नीचे खाट पर सुस्ताती हुई ये कमाल की हंसाने वाली सीरीज़़ है. इसके टहलते, धीमे धीमे आगे बढ़ते किरदार एक ऐसी कथा का हिस्सा है, जिसे 100 बरस भी चलाया जा सकता है. जिसमें ज्यादा कुछ होता नहीं है, और ये ज्यादा कुछ न होते हुए भी इसका यूं पसंद आते जाना, सिनेमा स्टोरीटेलिंग में एक मिस्ट्री भी है और एक अचीवमेंट भी.

ये बात यहीं तक.

Series: Panchayat Season 3 । Director: Deepak Kumar Mishra । Writer:  Chandan Kumar । Cast: Jitendra Kumar, Neena Gupta, Raghubir Yadav, Faisal Malik, Chandan Roy, Sanvikaa, Pankaj Jha, Ashok Pathak, Durgesh Kumar, Sunita Rajwar, Aasif Khan । Episodes: 8 । OTT Platform: Amazon Prime Video (28 May, 2024 Release)
 

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