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"एक्टिंग के बहुत सारे स्कूल ढकोसला हैं, सिखाते कुछ नहीं, बस गानों पर नचवाते हैं" - नसीरुद्दीन शाह

नसीर ने आगे कहा कि ऐसे एक्टिंग स्कूल कोढ़ की तरह फूट रहे हैं. जहां एक्टिंग के अलावा तमाम तरह की चीज़ों पर ध्यान दिया जाता है.

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नसीर ने कहा कि आजकल एक्टिंग स्कूलें कोड़ की तरह फूट रही हैं.

एक कलाकार जिससे हम सीखते हैं, प्रेरित होते हैं, उससे क्या जान सकते हैं. ये कि बड़े स्टार्स की पार्टी में क्या होता है, कौन कैसा है, कैसा नहीं आदि बातें. जावेद अख्तर कहते हैं कि लोगों को लेकर की जाने वाली बातचीत सबसे हल्के स्तर की होती है. अगर किसी कला के धनी से साक्षात्कार होने का मौका मिले, तो बात होनी चाहिए विचारों पर. कैसे वो अपनी कला को देखता है. परदे पर जो चमत्कार उभरता है, उस तक पहुंचने का रास्ता कैसा दिखता है. हाल ही में ‘द लल्लनटॉप’ के एडिटर सौरभ द्विवेदी ने नसीरुद्दीन शाह से मन को समृद्ध कर देने वाली बातचीत की. नसीर से उनके एक्टिंग प्रोसेस के बारे में पूछा. बहुत सारे एक्टिंग स्कूलों का फंडा समझा.

इंटरव्यू में नसीर से पूछा गया कि क्या वो एक्टिंग करते वक्त अपने व्यक्तिगत अनुभवों का इस्तेमाल करते हैं. आमतौर पर एक्टर्स में धारणा बनी रहती है कि कोई सीन करते वक्त वों अपने यादों के गलियारों में झांकते हैं. वहां से कुछ निकालकर लाते हैं. जैसे किरदार के साथ ट्रैजडी हुई, तो वो दिखाने के लिए अपने किसी ऐसे अनुभव को याद करना. क्या नसीर भी ऐसा करते हैं. इस पर उनका जवाब था,

पर्सनल एक्सपीरियेंस काम आते हैं. बल्कि पर्सनल एक्सपीरियेंस नहीं वो जो निशान छोड़ गए हैं, वो काम आते हैं. अक्सर एक्टर्स की ट्रेनिंग में एक गलत चीज उनसे करवाई जाती है ,जो ढकोसला है. जो कि एक्टिंग स्कूल में भी होता है, कि सिखाते कुछ नहीं उनको नचवाते हैं हिंदी फिल्मी गानों पर. किसी हीरो से हाथ मिलवा देंगे और उनसे हजारों रुपये लेकर कह देंगे कि जाओ तुमने सीख लिया है.  

नसीर ने अपने एक्टिंग प्रोसेस के बारे में कहा,

शुरू में मेरा ये खयाल था कि किसी किरदार को गहराई में समझना बहुत जरूरी है और जितने उस किरदार के नज़दीक जा सको, वो जाना ज़रूरी है. धीरे-धीरे, करते-करते, तजुर्बा पाते-पाते, जब मुझे महात्मा गांधी का रोल मिला थियेटर में करने को या ग़ालिब का रोल मिला, या आइंस्टाइन का रोल मिला तो मैं सोचता था कि मैं इन किरदारों को समझ कैसे सकता हूं. गांधीजी को मैं समझने निकलूंगा! गालिब को मैं समझने की कोशिश करूंगा. या आइंस्टाइन को. ये तो बिल्कुल बेकार की बात है. तो मैं मानता हूं कि एक कैरेक्टर प्ले करने के लिए आपको उसे समझने की जरूरत नहीं है. उसका साइको एनालिसिस करने की जरूरत नहीं है. वो कर क्या रहा है उस पर गौर करना चाहिए. क्योंकि सारे जज़्बात जो पैदा होते हैं, वो बरास्ते इससे होते हैं कि वो क्या कर रहा है. तो जो गलत काम करते हैं ये एक्टिंग स्कूल कि स्टूडेंट से कहते हैं कि अपनी जिंदगी का कोई वाकया बताओ, जो तुम्हे अभी भी याद है और जिससे तुम्हें बहुत अफसोस हुआ था. तो कोई बेचारा अपने चाचा की मौत का बताता है, कोई अपने नाना की, कोई अपनी नानी की बीमारी, और वो ज़ाहिर है कि रोने लगते हैं. और टीचर उनसे कहता है कि अब ये याद रखो. जब इस तरह के जज़्बात चाहिए तो ये ही करना, उस पुराने वाकये को याद करना. जो मेरी नजर में बकवास है. उस वाकये को याद नहीं करना चाहिए उस जज़्बे को याद करना चाहिए. वो आपके साथ रहना चाहिए. 

नसीर ने आगे कहा कि ऐसे एक्टिंग स्कूल कोढ़ की तरह फूट रहे हैं. जहां एक्टिंग के अलावा तमाम तरह की चीज़ों पर ध्यान दिया जाता है. उन्हें भी ऐसे स्कूल्स में पढ़ाने के ऑफर आते हैं. लेकिन वो इन सब से दूर रहना ही पसंद करते हैं.                   
 

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