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मूवी रिव्यू: वो तीन दिन

संजय मिश्रा ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वो एक बेहतरीन ऐक्टर हैं.

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संजय मिश्रा ने इस फ़िल्म में फोड़ दिया है

अभी कुछ दिनों पहले प्रकाश झा की 'मट्टो की साइकिल' रिलीज़ हुई थी. अद्भुत फ़िल्म थी. एक दिहाड़ी मजदूर की ज़िंदगी का बेहतरीन फ़िल्मांकन. बताया गया कि ये आर्ट सिनेमा है. अब एक और फ़िल्म आई है संजय मिश्रा की 'वो तीन दिन'. इसे भी आर्ट सिनेमा कहा जा रहा है.

'वो तीन दिन' का पोस्टर.

‘वो तीन दिन’ की कहानी क्या है? 

राम भरोसे रिक्शा चलाकर अपने परिवार को पाल रहा है. उसके परिवार में पत्नी के अलावा उसकी एक बेटी है. वो ग्रैजुएशन कर रही है. उसने 6 महीने से कॉलेज की फीस नहीं दी है. राम भरोसे पर कर्जा है. ऐसे में उसे एक आदमी मिलता है, जो खुद को वॉल्टर वाइट बताता है. वो रिक्शा चलाने के लिए तीन दिन के तीन हजार देने का वादा करता है. अपने दोस्त के कहने पर राम भरोसे उसके साथ जाने को राज़ी हो जाता है. पर वॉल्टर अंतिम दिन पैसे दिए बिना अचानक ग़ायब हो जाता है. अब एंट्री होती है पुलिस इंस्पेक्टर दयानन्द की. वो राम भरोसे की उस व्यक्ति को ढूंढने में मदद करता है. ताकि उसके तीन हजार रुपए दिलवा सके. क्या वो व्यक्ति मिलता है? मिलता है, तो क्या पैसे वापस करता है? पूरी फ़िल्म की कहानी इसी के चारों ओर भ्रमण करती है.

‘वो तीन दिन’ के तीन मुख्य किरदार.

समाज के हाशिए पर पड़े व्यक्ति की ज़रूरत है फ़िल्म

एक रिक्शावाले के लिए तीन हजार रुपए कितना मायने रखते हैं. फ़िल्म अपने सिनेमाई चरम पर जाकर दिखाती है. कुछ-कुछ जगहों पर ये भी दिखाने की कोशिश करती है कि उसके काम से कैसे समाज किसी व्यक्ति को जज करता है. जब राम भरोसे अपनी बेटी के कॉलेज जा रहा होता है, तो उसका दोस्त उससे कहता है: 

‘’रिक्शा यहीं छोड़ दो, नहीं तो सब तुम्हारी बेटी को रिक्शेवाली की बेटी कहेंगे. जो तुम्हें पसंद नहीं आएगा.''

फ़िल्म की अच्छी बात है कि ये सिर्फ़ रिक्शा और तीन हजार पर नहीं टिकती. बीच-बीच में छोटे-मोटे व्यंग्य भी करती है. समाज की सोच को उजागर करती है. एक ग़रीब घर में रह रही स्त्री और उसकी बेटी की तकलीफ़ों को भी दिखाती है.

राम भरोसे को इन्हीं साहब से अपने पैसे वसूलने है.

फ़िल्म देखने के दौरान 10 मिनट का पावर नैप भी ले सकते हैं

फ़िल्म थ्रू आउट राम भरोसे के इमोशन के साथ ट्रैवल करती है. मगर कई जगहों पर थोड़ी बहुत सस्पेंस थ्रिलर बनने की कोशिश भी करती है. पर आप इस मामले में ठगा हुआ महसूस करते हैं. डायरेक्टर राज आशू इसके कुछ-कुछ शॉट्स ऐसे कम्पोज़ करते हैं, जैसे अभी आगे कुछ होगा. मगर फ़िल्म सपाट चलती है. बिना मतलब के माहौल बनाने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं थी. 'वो तीन दिन' कई इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल से होकर आई थी. एकाध जगह इसे अवॉर्ड भी मिले. इसके ट्रेलर में इस बात का प्रचार भी किया गया. पर उस दर्जे की फ़िल्म ये है नहीं. सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि ये फ़िल्म कम, प्ले ज़्यादा लगती है. हालांकि इसमें कोई बुराई नहीं है. पर ऐसे में दृश्य लेयर्ड होने चाहिए थे. जो कहा जा रहा है, उसके भीतर भी कुछ और कहा जाना चाहिए था. एकदम सीधे-सपाट बेमतलब के कुछ-कुछ सीक्वेंस आपको बोर करते हैं. बार-बार एक व्यक्ति राम भरोसे के घर आकर उसकी पत्नी से पैसे मांगता है. वहां दिखता है कि इसे फिलर के तौर पर इस्तेमाल किया गया है. फ़िल्म ऐसी है कि आप 10 मिनट की पावर नैप भी ले सकते हैं. कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा.

इंस्पेक्टर साहब इंवेस्टिगेशन कर रहे हैं 

तकनीकी पक्ष भी कमजोर है

कहानी सपाट हो, तो ट्रीटमेंट जोरदार होना चाहिए. स्क्रीनप्ले और डायलॉग फेविकोल सरीखे होने चाहिए. यहीं पर फ़िल्म मुंह के बल गिरती है. कुछ-कुछ जगहों पर जिगर खान की सिनेमैटोग्राफी अच्छी है. नदी वाले दृश्य हों. ड्रोन शॉट्स हों या फिर मोंटाज में इस्तेमाल किए गए कुछ शॉट्स. एक शॉट जिसमें राम भरोसे और वॉल्टर मेज पर बैठे हैं और कैमरा मेज के नीचे रखा हुआ है. बढ़िया शॉट कंपोजिशन है. 'डगमग मग डग' गाना भी बढ़िया है. इसे ख़ुद संजय मिश्रा ने गाया है. बैकग्राउंड म्यूजिक भी ठीक है. टेक्निकल पक्ष थोड़ा कमज़ोर है. कई जगहों पर संभवतः जहां रिक्शावाले शॉट्स कम पड़ गए होंगे. उन जगहों पर अलग से दिखता है कि पीछे ग्रीनस्क्रीन लगाकर उन्हें फ़िल्माया गया है.

ये आदमी फ़िल्म की जान है 

संजय मिश्रा को देखना ट्रीट है

संजय मिश्रा ने एक बार फिर दिखाया है कि वो एक बेहतरीन ऐक्टर हैं. उन्होंने रिक्शेवाले की मनोदशा और देहदशा दोनों ढंग से आत्मसात की है. पुलिस इंस्पेक्टर बने राजेश शर्मा भी मंझे हुए कलाकर हैं. उन्होंने इसका नमूना पेश भी किया है. चंदन सान्याल ने भी ठीक काम किया है. पर ऐसा लगता है कि उनके डायलॉग लिखे हुए नहीं थे. वो फ़िल्म में कुछ भी बोल रहे हैं. हालांकि उनका किरदार भी ऐसा है. संजय के दोस्त बने राकेश श्रीवास्तव ने भी सही काम किया है. राम भरोसे की पत्नी के रोल में पूर्वा पराग बहुत लाउड हैं. उन्होंने ठीक काम नहीं किया है. बाक़ी के जितने ऐक्टर हैं, लगभग सब ही बहुत लाउड है. ज़रूरी नहीं कि वो आवाज़ से लाउड हों. उनकी एक्टिंग ही लाउड है. चाहे आंखें चमकाना हो या हाथ मटकाना. हर जगह थिएटर वाली ऐक्टिंग दिखती है, कैमरे वाली नहीं.

फ़िल्म अच्छी हो सकती थी. बढ़िया मौक़ा था. पर 'वो तीन दिन' उस दर्जे की नहीं है जिसको आप आर्ट सिनेमा के नाम पर सराह सकें. बोरिंग फ़िल्म है. 

वीडियो: मूवी रिव्यू - अतिथि भूतो भव