The Lallantop

मूवी रिव्यू: राम सेतु

एक तबका है जो अक्षय कुमार के नाम पर फ़िल्म खारिज कर देगा. पर ये बिना देखे, ख़ारिज की जा सकने वाली फिल्म नहीं है.

post-main-image
आर्यन के रोल में अक्षय

मैं धर्म, भगवान और किसी ऐसी चीज़ में नहीं मानता, जिसका कोई प्रमाण न हो.

'राम सेतु' का नायक यानी आर्यन कुलश्रेष्ठ, जिसे अक्षय कुमार ने निभाया है, ये बात कहता है. मैं भी यही कहता हूं. किसी बात को अच्छा या बुरा तब तक नहीं कहा जा सकता, जब तक उसे आपने जाना-समझा न हो और आपके पास उसके पुख़्ता सुबूत न हों. मैंने देख ली है 'राम सेतु'. मैंने इससे क्या जाना-समझा? क्या प्रमाण मिले? आइए बताते हैं.

आर्यन कुलश्रेष्ठ एक आर्कियोलॉजिस्ट है. वो अपनी टीम के साथ ये साबित करने की कोशिश कर रहा है, कि राम सेतु इंसानों ने नहीं प्रकृति ने बनाया है. फिर उसे इसके उलट साक्ष्य मिलते हैं. उसे लगने लगता है कि राम सेतु इंसानी कारनामा है. वो अब राम सेतु के रामकालीन होने के प्रमाण जुटाने के लिए काम करता है. इस बीच उसके सामने कई तरह की अड़चने आती हैं. इन अड़चनों से पार पाने के लिए उसे कई लोग सहारा देते हैं. सैंड्रा से लेकर एपी और कहीं-कहीं उसकी पत्नी भी उसे गाइड करती है. कुलमिलाकर इतनी ही कहानी है. जिसके बीज अन्य दिशाओं में भी फैले हुए हैं. कैसे? बताते हैं.

फ़िल्म इसी जगह से शुरू होती है

फ़िल्म के तीन लक्ष्य हैं

फ़िल्म शुरू होती है एक लक्ष्य से. राम सेतु एक मैनमेड स्ट्रक्चर नहीं है, इस बात को साबित करने से. शुरुआती कुछ आधे घण्टे इसी ढर्रे पर मूवी आगे बढ़ती है. फिर कुछ सुबूत मिलते हैं कि राम सेतु मैनमेड स्ट्रक्चर ही है. ये सब आप ट्रेलर में देख चुके हैं. फ़िल्म का नाम भी इसी ओर इशारा करता है. पर यहां दो मुद्दे और उठाए गए हैं. पहला ये कि रामायण महाकाव्य नहीं बल्कि इतिहास है. दूसरा ये कि श्री राम कोई काल्पनिक किरदार नहीं है. अतीत में उनका अस्तित्व सच में था. रावण भी हमारे इतिहास का हिस्सा है. इन्हीं बातों को प्रूव करने के लिए डायरेक्टर अभिषेक शर्मा ने इतना बड़ा तामझाम बिठाया है. पर इसमें एक समस्या भी है. यदि बात राम सेतु की थी, तो इसे राम सेतु तक सीमित रखा जाना चाहिए था. रावण, राम और रामायण के अस्तित्व, उसकी असलियत को साबित करने की ख़ास ज़रूरत नहीं थी. अब आप ये भी कहेंगे कि राम सेतु की बात हो रही है तो राम और रामायण की बात तो होगी ही. एक तरह से देखा जाए तो आप सही भी हैं. पर मेरा अपना टेक है. क्या? आइए देखते हैं.

चलो अशोक वाटिका घूमकर आते हैं

जहां लगता है फ़िल्म अतार्किक हुई, धड़ाम से एक फैक्ट आपके सिर पर गिरता है

फ़िल्म तार्किकता की नाव पर रहते हुए ही, एक पैर अतार्किकता की नाव में रखने की कोशिश करती है. पर सिर्फ़ ठक से छूकर वापस आ जाती है. 'राम सेतु' शुरू में लॉजिकल लगती है. फिक्शन होने के बावजूद इसे ऐसे रचाबुना गया है कि आपको इसके सच होने का यक़ीन होने लगता है. पर बिना बात के कहानी अचानक श्रीलंका पहुंच जाती है. वहां ये कुछ-कुछ जगहों पर लॉजिक खोती है. चूंकि फ़िल्म 'राम सेतु' से जुड़ी है इसलिए श्रीलंका वाला पार्ट थोड़ा अतार्किक लगता है. पर इसे राम सेतु से अलग करके देखते हैं, तो ये हिस्सा भी तार्किक लगता है. 'राम सेतु' जैसी फिल्मों के साथ सबसे बड़ी समस्या होती है, भावनाओं का अतिरेक. पर ये फ़िल्म कहीं-कहीं पर ही उस अतिरेक छूती है. बहुत बड़े स्तर पर ख़ुद की भावनाएं नहीं छलकाती. क्लाइमैक्स और कोर्ट वाले सीन में भावनाएं उफनती हैं. पर वहां भी कई मौकों पर अभिषेक शर्मा और डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी की बैलेंस्ड डायलॉग राइटिंग इसे सम्भाल लेते हैं.

ये मस्त चीज़ है भीडू

जैसे ही लगता है अब फ़िल्म एक प्रोपेगेंडा बनती जा रही है. वहीं 'राम सेतु' फैक्चुअल हो जाती है. फैक्ट्स को आप ऊपर नीचे कह सकते हैं. उनको मानक की कसौटी पर रखकर देख सकते हैं. पर फैक्ट्स ही पूरी फ़िल्म का टोन सेट करते हैं. तथ्यात्मकता ही फ़िल्म की जान है. मेकर्स एक और चालाकी करते हैं, फ़िल्म में नायक को नास्तिक दिखाया गया है. वो ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा नहीं करता. पर उसे प्रमाण मिलते हैं, इसलिए अंत में वो राम के अस्तित्व को स्वीकारता है. इसके लिए किसी दूसरे बॉलीवुड हीरो की तरह कोर्ट में लड़ता भी है. आर्कियोलॉजिस्टिक, श्रीराम का वकील बन जाता है. 'राम सेतु' वर्तमान परिदृश्य को कहानी और संवादों में पिरोने की कोशिश भी करती है. रामजन्मभूमि का मसला हो, भारत-पाक सम्बंध की बात हो या तालिबान और बुद्ध की मूर्ति का मसला हो. फ़िल्म खुलती ही अफगानिस्तान से है. बहुत अच्छी ओपनिंग है. पर जैसे ही तालिबानी पुरातत्व वालों पर हमला करते हैं. ये एक औसत ऐक्शन फ़िल्म लगने लगती है. जहां-जहां ऐक्शन आता है, ये किसी दूसरी एवरेज बॉलीवुड फ़िल्म की तरह बिहेव करती नज़र आती है. असीम मिश्रा की सिनेमैटोग्राफी बहुत अच्छी है. रामेश्वर भगत की एडिटिंग भी अच्छी है. विजुअल इफेक्ट्स भी सही हैं. एकाध जगह को छोड़कर कहीं पर भी बनावटी नहीं लगते. कुलमिलाकर टेक्निकल डिपार्टमेंट ने बढ़िया काम किया है.

बहुत दिन लौटे हैं अक्षय हैं

बहुत दिन बाद अक्षय स्क्रीन पर ठीक लगे हैं

अक्षय का अभिनय ठीक है. वो लाउड नहीं हैं. लगता है कोई अनुभवी अभिनेता काम कर रहा है. बस एक जगह जहां उनके और प्रवेश राणा के किरदार के बीच फाइटिंग सीक्वेंस है, वहां वो मात खा जाते हैं. प्रवेश राणा ने भी सही अभिनय किया है. जैकलीन अपने कैलिबर के अनुसार ऐक्टिंग करती दिखती हैं. नुसरत भरूचा ने औसत काम किया है. एपी बने सत्यदेव सभी कलाकारों के बीच निखरकर आए हैं.

एक तबका है जो अक्षय कुमार के नाम पर फ़िल्म खारिज़ कर देगा. पर ये बिना देखे, ख़ारिज की जा सकने वाली फिल्म नहीं है. एक और तबका है, जो 'राम सेतु', को प्रोपेगेंडा फ़िल्म बताकर नकार देगा. उन्हें ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए. हमेशा से सिनेमा एक सॉफ्ट पावर के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है. आजकल के सिनैरियो में यहां भी ऐसा हुआ है. राम सेतु कोई घोर कमर्शियल फ़िल्म नहीं है. ये एक वेल रिसर्च्ड  मूवी है. बस इसके तर्क का तराजू कहीं-कहीं एक ओर झुका हुआ है.

अक्षय कुमार की फिल्म राम सेतु के पोस्टर में जो पत्थर दिख रहा है उसका रामायण से क्या कनेक्शन है?