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मूवी रिव्यू: होली काउ

'होली काउ'. ये एक इंग्लिश टर्म है, जिसका इस्तेमाल शॉकिंग/सरप्राइजिंग वर्ड की तरह किया जाता है. पर यहां इसका मतलब एक और है. सीधा-सा शाब्दिक अर्थ: पवित्र गाय, जो आपको आश्चर्यचकित करेगी.

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होली काउ छोटे बजट में बनी बढ़िया फ़िल्म है

छोटी मगर मोटी फ़िल्में. यानी बजट छोटा, पर क्राफ्ट के मामले में बड़ी. हालिया थिएटर में रिलीज़ हुई फ़िल्मों में RK/RKAY इस कैलिबर की मूवी थी. अब एक और मूवी 26 अगस्त को आई है. 'होली काउ'. ये एक इंग्लिश टर्म है, जिसका इस्तेमाल शॉकिंग/सरप्राइजिंग वर्ड की तरह किया जाता है. पर यहां इसका मतलब एक और है. सीधा-सा शाब्दिक अर्थ: पवित्र गाय, जो आपको आश्चर्यचकित करेगी. कैसे, बताते हैं आगे के कुछ मिनटों में. 

सलीम के रोल में संजय मिश्रा 

एक व्यक्ति हैं सलीम. कवि मिज़ाज हैं. फ़िल्मी हैं. बात-बात पर मूवी के रेफ्रेंसेज देते रहते हैं, कभी ‘आनन्द’ का, कभी मनमोहन देसाई की किसी फ़िल्म का. छोटे कस्बों और गांवों में वो लोग नहीं होते हैं, रंग-बिरंगे कपड़े पहनने वाले, चश्मा लगाकर चलने वाले, बोले तो एकदम फन्नेखां टाइप. सलीम भाई भी ऐसे ही हैं. मुंह के फटफटिया, पर मन के साफ़. राम बाबू या राम्बू उनका दोस्त है. वो भी कमोबेश सलीम जैसा ही है. दोस्त की मदद करने को हरदम तैयार. अब सलीम की गाय खो गई है, कोई खूंटा समेत उखाड़ ले गया है. चूंकि वो मुसलमान है. इसलिए लोगों को कुछ और ही लगता है. यानी गाय खोई नहीं है…आगे आप समझ ही सकते हैं. अपनी गाय खोजने और ख़ुद को मरने से बचाने के लिए सलीम कई तरह के जतन करता है. पुलिस से लेकर नेताओं तक सब जगह मदद मांगने जाता है. ऐसा ही एक मददगार लोकल पार्टी लीडर है शम्सुद्दीन. उसके लिए सलीम जलील बेड़े साहब का उदाहरण देता है कि जब उनसे शैतान के कंकड़ मारने को कहा गया, उन्होंने इनकार कर दिया. उनका दिल भर आया. अपने शम्सुद्दीन भाई भी बिल्कुल ऐसे ही हैं. पर वो कैसे हैं ये तो फ़िल्म देखकर पता चलेगा. पूरी फ़िल्म खोई हुई रुख़सार यानी सलीम की गाय के इर्दगिर्द बुनी गई है.

फ़िल्म का एक सीन 

ये आपको हंसाएगी. पर उसी के बराबर सोचने पर मज़बूर भी करेगी. जिस समाज में गाय को लेकर मुसलमानों पर शक़ किया जाता है. उस मज़हब का कोई सलीम भी गाय से प्रेम कर सकता है. कोई हिंदू भी गाय के गैरकानूनी व्यापार में शामिल हो सकता है. फ़िल्म में एक सीन है, जहां गाय चारा नहीं खा रही होती है. सलीम को पता चलता है कि वो क्या खाएगी! तो आधी रात को भी तीन सौ रुपए की चीज़ अपनी गाय के लिए एक हजार में लेकर आता है. उसे बड़े प्रेम से खिलाता है. जहां एक ओर सलीम को हिंदू से डर है. दूसरी ओर उसका हिंदू दोस्त राम्बू उसकी मदद में रात-दिन एक कर देता है. उसके लिए महामृत्युंजय का जाप करने की बात करता है. फ़िल्म की अच्छी बात है कि ये कहीं भी इस बात को स्थापित करने की कोशिश नहीं करती कि मुसलमान ही अच्छा है या हिंदू ही बुरा है. बैलेंस्ड अप्रोच के साथ चलती है. कोई मुसलमान अच्छा, कोई बुरा. कोई हिन्दू अच्छा, कोई बुरा. माने ये तो इंसान की फितरत पर निर्भर करेगा ना. उसका धर्म क्या है, फ़र्क नहीं पड़ता. वो इंसान कैसा है ये महत्वपूर्ण है.

एक सीन में संजय और तिग्मांशु 

एक मुसलमान सलीम से कराची से ट्रेनिंग करके आने की बात कर रहा है. सलीम कह रहा है: कोई और ऑप्शन ढूँढ़ो भाई, आतंकवाद नहीं. इस एक बात में बहुत पावर है. पूरी फ़िल्म ही पावरफुल है. इसके डायलॉग टू द प्वाइंट लिखे गए हैं, कहीं प्रीची नहीं लगते. आम भाषा में किरदारों के मुंह से बड़ी-बड़ी बातें कहलवाई गई हैं. इनमें कॉमेडी के साथ सटायर बुना गया है. फ़िल्म के आइडिया के साथ इसका स्क्रीनप्ले न्याय करता है. कहीं पर भी फ्लो नहीं टूटता. साई कबीर ने डायरेक्शन के साथ-साथ लेखन में भी जबर काम किया है. छोटी-छोटी चीज़ों का ध्यान रखा है. स्क्रीनप्ले लेयर्ड रखा है. उसका एक सीधा मतलब है, दूसरा पर्दे के उस पार जाकर समझने जैसा. डायलॉग्स भी इसी दर्जे के हैं. कोई भी घटना जो फ़िल्म में घटित हो रही है. बेमतलब नहीं जान पड़ती. एक आध चीज़ों को छोड़कर. जो नज़रअंदाज़ की जा सकती हैं. हर घटना को बिटवीन द लाइन्स पढ़ने की ज़रूरत है. ज़्यादा बताना सम्भव नहीं है, वरना वो स्पॉइलर की श्रेणी में आ जाएगा. फ़िल्म का स्त्री पक्ष मजबूत नहीं है. एक आध जगह पर फ़िल्म का पुरुष स्त्री पर अधिकार जमाने की कोशिश करता है. पर सम्भव है, समाज की सच्चाई दिखाने के लिए ऐसा किया गया हो. फ़िल्म का क्लाइमैक्स और बेहतर हो सकता था. इसे सांत्वना पुरस्कार ही मिल पाएगा.

फ़िल्म से एक तस्वीर.

'होली काउ' रियलिज़्म के काफ़ी क़रीब है. सिर्फ़ कहानी की सीरत में नहीं, बल्कि फिल्मांकन की सूरत में भी. असली जगहों पर शूट हुई है. कुछ सुंदर दिखाने की कोशिश नहीं की गई है. जो जैसा है, वैसा दिखाया गया है. शुरुआती कुछ शॉट्स में ट्रांजिशन अच्छे नहीं हैं. फ़िल्म सिंपल है, तो ट्रांजिशन भी सिंपल ही अच्छे लगते हैं. शूं-शा वाले अच्छे नहीं लगते. पंचायत में जा रहे सलीम वाले सीन के समय आया गाना भी खटकता है. संजय मिश्रा का वॉइस ओवर जब-जब आता है, उनकी 'आंखों-देखी' वाली आवाज़ की तस्वीर मन में बनने लगती है. 'गगन को चीरता मैं चला जा रहा हूं, ये हवा जो मेरे चेहरे को चूम रही है, ये सांय सांय की आवाज़…

पुलिस थाने में सलीम और रांबू

बहरहाल, ये फ़िल्म जिस बात के लिए सबसे ज़्यादा याद की जानी चाहिए है, वो है इसकी ऐक्टिंग. सलीम के रोल में संजय मिश्रा, ऐक्टिंग की मास्टर क्लास, कॉमिक टाइमिंग कमाल. शमसुद्दीन के रोल में तिग्मांशु धूलिया के क्या कहने! अव्वल दर्जे का काम, फ्लॉलेस. राम्बू के रोल में मुकेश भट्ट एफर्टलेस, कोई खामी निकाल नहीं सकते. सलीम की पत्नी साफ़िया के रोल में सादिया सिद्दीकी एक नम्बर.

ये थी 'होली काउ' को देखकर हमारे मन मे आई बातें. आप भी देख आइए जाकर. फिर बताइए आपके मन में क्या आया? सलाम नमस्ते.

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मूवी रिव्यू: फॉरेंसिक