अक्षय कुमार माने फ़िल्म बनाने की फैक्ट्री. लोग उन्हें कितना भी क्रिटिसाइज करें, वो अपना काम करने में लगे रहते हैं. उसी का नतीज़ा है कि वो साल की चौथी फ़िल्म लेकर हाज़िर हैं. नाम है 'कठपुतली'. ये तमिल मूवी 'रतसासन' का रीमेक है. 2 सितंबर से हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही है. देखते हैं कैसी है 'कठपुतली'?
मूवी रिव्यू : कठपुतली
फ़िल्म में अक्षय कुमार ने अर्जन सेठी का रोल निभाया नहीं घसीटा है. अद्भुत काम है. अक्षय कुमार ने ख़ुद की एक्टिंग बहुत उम्दा तरीके से की है. उनकी वही पुरानी बीमारी!

अर्जन सेठी को फिल्ममेकर बनना है. साइको सीरियल किलर्स उसका पसंदीदा सब्जेक्ट है. जब उसकी फ़िल्म में कोई पैसा लगाने को तैयार नहीं होता, वो अपनी बहन के कहने पर पिता की मौत से खाली हुई पुलिस की नौकरी जॉइन कर लेता है. अपने जीजा की मदद से कसौली में पोस्टिंग मिल जाती है. वहां स्कूली लड़कियों का लगातार मर्डर हो रहा है. चूंकि अर्जन को साइकोपैथ सीरियल किलर्स की ठीकठाक जानकारी और समझ है, इसलिए वो इन्वेस्टिगेशन में मदद करता है. किलर को पकड़कर अपने हीरोइज़्म का नमूना पेश करता है.
हिमाचल के पहाड़ों में सेट होने की वज़ह से 'कठपुतली' का सेटअप हालिया दौर में आई दो वेब सीरीज़ से काफ़ी सिमिलर लगता है, 'अनदेखी' और 'आरण्यक'. दोनों ही पुलिसिया ड्रामा हैं. इसलिए समानता और ज़्यादा नज़र आती है, ख़ासकर आरण्यक से. 'कठपुतली' में भी किलर की तलाश हो रही है, 'आरण्यक' में भी. दोनों ही क्राइम थ्रिलर्स हैं. पर एक बात 'कठपुतली' में खटकती है. ये क्राइम थ्रिलर सिर्फ़ कागज़ पर है. यहां क्राइम है, थ्रिल का कोई नामोनिशान नहीं. इसे देखते हुए आपके मन में क्रिमिनल को जान लेने की जिज्ञासा नहीं जगती. बेहद सपाट तरीके से कहानी कही गई है. लगातार मर्डर होते रहते हैं. पर फ़िल्म में किसी तरह की इंटेसिटी नहीं है. क्या सिर्फ़ हर 15 से 20 मिनट में एक मर्डर दिखा देना ही, क्राइम थ्रिलर का अहम हिस्सा होता है?

रंजीत तिवारी का अद्भुत डायरेक्शन है. क्राइम ही क्राइम, थ्रिल नदारद. एक समय के बाद आप बोर होने लगते हैं. एक क्राइम थ्रिलर का सबसे मजबूत पक्ष होता है उसकी स्पीड. वही 'कठपुतली' से ग़ायब है. बिना मतलब के सीक्वेन्स घुसेड़े गए हैं. शुरू का आधा घंटा कहानी बिल्डअप में ही चला जाता है. सवा दो घण्टे की बजाय ये डेढ़ या पौने दो घण्टे की मूवी होती तो शायद और ग्रिपिंग होती. असीम अरोड़ा की राइटिंग बहुत ज़्यादा कमजोर है. डायलॉग तो इतने टिपिकल हैं कि क्या कहने! अक्षय किलर के लिए कहते हैं: 'वो जो भी है, जहां भी है, एक ग़लती ज़रूर करेगा.' ऐसे न जाने कितने डायलॉग्स हैं, जो आपने सैकड़ों दफा हिंदी फ़िल्मों में सुने होंगे. इसकी स्क्रिप्ट और मेहनत मांगती थी. कहानी पहले से पकी पकाई थी, बस स्क्रीनप्ले लिखना था. सम्भव है, राइटर और डायरेक्टर को भी अक्षय की तरह जल्दी काम निपटाने की आदत हो.
फ़िल्म में एक समस्या और है. दर्शकों की स्पून फीडिंग की गई है. थोड़ा दिखाइए, बाक़ी दर्शकों पर छोड़ दीजिए. पर ऐसे कैसे चलेगा जी! जैसे कहानी का एक अहम हिस्सा है कि किलर जिसे मारता है उसके घर या आसपास गिफ्ट पैक छोड़ता है. उसमें गुड़िया का सिर होता है. जब भी वो डिब्बा दिखता है, उसे खोला जाता है और उससे गुड़िया निकालकर दर्शकों को दिखाई जाती है. जब डिब्बा दिखा दिया है, बार-बार गुड़िया का सिर दिखाने का क्या तुक? करना क्या चाहते हो भाई? अगर गुड़िया दिखाने वाले शॉट्स ही कम कर देते, कुछ नहीं तो 5 मिनट फ़िल्म ऐसे ही छोटी हो जाती.
फ़िल्म में अक्षय कुमार ने अर्जन सेठी का रोल निभाया नहीं घसीटा है. अद्भुत काम है. अक्षय कुमार ने ख़ुद की एक्टिंग बहुत उम्दा तरीके से की है. उनकी वही पुरानी बीमारी! आप एक पल के लिए भी नहीं भूल पाते कि अक्षय कुमार स्क्रीन पर हैं. ऐसा लगता है अर्जन सेठी ने अक्षय कुमार का रोल निभाया है. हीरोगिरी अक्षय कुमार बनने में नहीं, ऐक्टिंग करने में है. हां, पुलिस की यूनिफार्म उन पर जंचती है. पर यूनिफार्म पहनते ही तनकर चलने लगना नहीं जंचता. फ़िल्म के शुरू में तो वो ऐसा तनाव महसूस करते हैं कि दाएं-बाएं भी नहीं देखते. रकुल प्रीत ने स्कूल टीचर के रोल में ठीक काम किया. उनसे जो करवाया गया, उन्होंने किया है. चंद्रचूड़ सिंह ने बढ़िया अभिनय किया है. एसएचओ के रोल में सरगुन मेहता कुछ-कुछ जगहों पर चौंकाती हैं. उनमें अच्छी अदाकारा बनने का पोटेंशियल है. बाक़ी सभी कलाकारों ने भी अपने हिस्से का काम ठीक ढंग से किया है.
अब मैंने बता तो दिया ही है, फ़िल्म कैसी है! मन हो देख डालिए. वरना कोई आग्रह नहीं है.
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