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फिल्म रिव्यू- मिशन रानीगंज

बड़ा बजट, बेमतलब का एक्शन, फर्ज़ी का गाना-बजाना देखकर पक गए हैं, तो एक रियलिस्टिक सा सिनेमा देख सकते हैं.

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'मिशन रानीगंज' के एक सीन में अक्षय कुमार.

Akshay Kumar की नई फिल्म Mission Raniganj: The Great Bharat Rescue थिएटर्स में लगी है. ये एक बायोग्राफिकल फिल्म है. जो कि रियल लाइफ हीरो जसवंत सिंह गिल के जीवन पर आधारित है. 80 के दशक के आखिर में वेस्ट बंगाल के रानीगंज की एक कोयला खदान में भयानक हादसा हुआ. माइन में ब्लास्ट की वजह से तेज़ रफ्तार से पानी भर गया. कई सालों से ये पानी पत्थरों के बीच फंसा हुआ था. मगर माइन वर्कर्स की लापरवाही की वजह से वो पानी माइन में घुस गया. अधिकतर माइन वर्कर्स वहां से निकल गए. मगर 65 लोग अंदर ही फंसे रह गए. एक अनोखे कैप्सूल का निर्माण करके जसवंत सिंह गिल ने उन्हें वहां से बाहर निकाला. ये फिल्म इसी घटना को थोड़ी-बहुत क्रिएटिव लिबर्टी के साथ फिल्म के रूप में साकार करती है.

अक्षय कुमार भारतीय सिनेमा के वो सुपरस्टार रहे हैं, जिन्होंने हमेशा छोटी फिल्मों में काम किया. कॉन्टेंट ड्रिवन सिनेमा किया. कल्ट कॉमेडीज़ का हिस्सा रहे. इन फिल्मों ने उन्हें धीरे-धीरे बहुत बड़ा कर दिया. इतना बड़ा कि वो उन्हीं छोटी फिल्मों पर भारी पड़ने लगे. इसकी वजह से उन्हें अपना सिनेमा बदलना पड़ा. इसके बाद उन्होंने 'सम्राट पृथ्वीराज' जैसी बिग बजट पीरियड फिल्में की. मगर उस तरह के सिनेमा ने उन्हें स्वीकार नहीं किया. या यूं कहें कि जनता ने उन्हें उस किस्म की फिल्मों में स्वीकार नहीं किया. इसलिए अब वो वापस अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं. OMG 2 और 'मिशन रानीगंज' जैसी फिल्मों के साथ.

'मिशन रानीगंज' रूटीन सिनेमा है. वही ढांचागत सिनेमा, जिसकी कहानी तो थोड़ी अलग है. मगर उसे बरता बिल्कुल रेगुलर तरीके से जाता है. अगर वैसे देखें, तो 'मिशन रानीगंज' नियर परफेक्ट सिनेमा है. एक असल कहानी, जिसके लिए आपको नायक गढ़ने की ज़रूरत नहीं थी. कहानी ही नायक थी. अक्षय उस फिल्म को स्टारपावर देते हैं. मगर स्टार होने को कहानी के रास्ते में बाधा नहीं बनने देते. अगर आप कोई अंजान एक्टर लाकर भी जसवंत सिंह गिल के किरदार में डाल देते, तो उससे 'मिशन रानीगंज' अलग फिल्म नहीं हो जाती. बस अभिनय का कांटा थोड़ा-बहुत ऊपर नीचे हो जाता. मुझे निजी तौर पर लगता है कि इस फिल्म के बनने का सबसे बड़ा हासिल यही रहेगा.

'मिशन रानीगंज' की कहानी एकदम सरल है. ऐरॉन सॉर्किन कहते हैं कि किसी फिल्म को कैसे लिखा जाता है. राइटर एक मंज़िल तय करता है. उस तक पहुंचने में नायक को कितनी अड़चनों का सामना करना पड़ता है, उसी से एक कहानी तैयार होती है. 'मिशन रानीगंज' के पास ये चीज़ें दुरुस्त हैं. एक नायक है. जिसका मक़सद है लोगों की जानें बचाना. इस प्रक्रिया में उसे कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है. कई बार पॉलिटिक्स फंसाती है. कई बार लोगों की कमजर्फी. कई बार आपको ये पता चलता है कि इस देश में इंसानी जान की कीमत कितनी कम है. हर अड़चन आपको समाज की एक कमज़ोरी से रूबरू करवाती है. इसलिए आप एक साधारण कहानी देखते हुए भी असाधारण चीज़ें महसूस करते हैं. यहीं पर सिनेमा माध्यम अपनी मजबूती सिद्ध करता है.

'मिशन रानीगंज' देखते वक्त आपको थ्रिल का भाव महसूस होता है. क्योंकि यहां रेस अगेंस्ट द टाइम चल रहा है. यानी समय कम है और काम ज़्यादा. आपका दिमाग घड़ी के कांटे से तेज़ चल रहा है. अगर कोई फिल्म आपके दिमाग की इतनी वर्जिश करवा रही है, तो वो ठीक ठाक काम है. 'मिशन रानीगंज' ऐसा कर ले जाती है. एकदम एज ऑफ द सीट थ्रिलर तो नहीं कहेंगे. क्योंकि ये असल कहानी है. सबको पता है कि ये खत्म कैसे होती है. बावजूद इसके आपका रक्त धमनियों में तेज़ी से बहता रहता है. 'मिशन रानीगंज' देखते हुए सिर्फ जसवंत सिंह गिल ही नहीं, आप भी चाहते हैं कि सबकुछ ठीक से हो जाए, तो शांति से बैठकर गहरी सांस लें.  

'मिशन रानीगंज' में खामियां भी हैं. शुरुआत में ये फिल्म कोशिश करती है कि गांव के हर किरदार के साथ आपका एक भावनात्मक संबंध स्थापित हो जाए. मगर उसके लिए समय देने को तैयार नहीं है. मगर इसके पीछे फिल्म का मक़सद ये है कि जब गांव के ये लोग मुश्किल में फंस जाएं, तो आप भी उनके लिए कुछ फील करें. यहां फिल्म सफल नहीं हो पाती. हमारे यहां जब असल घटनाओं से प्रेरित फिल्में बनती हैं, तो बाकी सब को नालायक घोषित कर दिया जाता है. फिल्म का हीरो इकलौता इंसान होता है, जो सबकी बेहतरी चाहता है. 'मिशन रानीगंज' भी ये चीज़ करती है. मगर ग्रैंडर स्कीम ऑफ थिंग्स में आपको ध्यान इनसे हट जाता है.

अक्षय कुमार के अलावा इस फिल्म में परिणीति चोपड़ा, कुमुद मिश्रा, जमील खान, रवि किशन, बरुण बडोला और दिब्येंदु भट्टाचार्य जैसे एक्टर्स ने भी काम किया है. परिणीति बमुश्किल फिल्म के तीन-चार सीन्स और एक गाने में दिखती हैं. अक्षय के अलावा जमील खान इकलौते एक्टर हैं, जिन्हें थोड़ा बहुत कौशल दिखाने का मौका मिलता है. वो अच्छे एक्टर हैं. उन्हें 'बदमाश कंपनी' और 'बेबी' जैसी फिल्मों में देखा गया है. मगर दुर्भाग्य ये है कि आज तक उनके किरदार की लंबाई नहीं बढ़ी. कुमुद मिश्रा फिल्म में हर मौके पर हाथ में सिगरेट पकड़े नज़र आते हैं. कहीं भी कन्विंस नहीं कर पाते कि वो सिगरेट पीते हैं. इसलिए एक समय बाद उनका वो कैरेक्टर ट्रेट चिढ़ पैदा करने लगता है.

'मिशन रानीगंज' को देखने का कुल जमा अनुभव ये है कि पिक्चर ठीक है. बड़ा बजट, बेमतलब का एक्शन, फर्ज़ी का गाना-बजाना देखकर पक गए हैं, तो एक रियलिस्टिक सा सिनेमा देख सकते हैं. बाकी हमें जो लगा हमने बता दिया, अपने विवेक से फैसले लें.  

वीडियो: फिल्म रिव्यू: घूमर