हिंदी सिनेमा भले ही ढर्रे से चिपका दिखाई दे रहा हो, लेकिन रीजनल भाषाओं में बहुत बढ़िया काम हो रहा है. मराठी सिनेमा तो इस मामले में जैसे मशाल लेकर आगे चल रहा है. फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका ट्यूटोरियल हिंदी वालों को मराठी फिल्मकारों से लेना चाहिए. पिछले दशक भर में नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्मों की लिस्ट पर नज़र भर मार लीजिए. ज़्यादातर फ़िल्में मराठी की दिखाई देंगी. मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघू या' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.
दिमाग. इंसानी जिस्म की सबसे पेचीदा मशीनरी. जितनी उलझी हुई उतनी ही नाज़ुक. न सिर्फ शरीर को बल्कि तमाम एहसासों को नियंत्रित करने वाला आला. अगर उसी में कोई नुक्स आ जाए तो! दुनिया तो पागल कहकर पल्ला झाड़ लेती है लेकिन जो भुगत रहा होता है वो किस सूरतेहाल से जंग लड़ रहा होता है? कौन जानता है? या फिर इससे बड़ा सवाल कौन जानना चाहता है?
पागलपन को एक डिसएबिलिटी के तौर पर तो बहुत बार देखा-दिखाया गया है लेकिन उस मनोदशा के अंदर उतरकर देखने की ईमानदाराना कोशिशें कितनी बार हुई हैं? 'देवराई' ऐसी ही एक बेहद ईमानदार कोशिश है. इतनी सच्ची कि आप उस छटपटाहट को महसूस कर पाते हैं. स्किज़ोफ्रेनिया को लेकर अवेयरनेस भले ही बढ़ रही हो लेकिन अभी भी भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो किसी भी तरह की मानसिक कमज़ोरी को पागलपन का लेबल लगाकर तुरंत नज़रअंदाज़ कर देते हैं. जबकि ज़रूरत होती है स्किज़ोफ्रेनिया को एक बीमारी समझकर उस शख्स की मदद करने की. 'देवराई' इसी मदद का तरीका बताती है.

अतुल कुलकर्णी के करियर का एक और नगीना है ये फिल्म.
'ये फिल्म एक स्किज़ोफ्रेनिक मरीज़ शेष देसाई के दिमाग में उतरती है. महाराष्ट्र में कुदरती ख़ूबसूरती से नहाए कोकण के एक गांव में शेष की रिहाइश है. पिता बचपन में ही गुज़र चुके हैं. घर में मां और छोटी बहन सीना. इतना सा परिवार. और कल्याणी. कल्याणी शेष के मामा की लड़की है. उन्हीं के घर रहती आई है. शेष उसी से सबसे ज़्यादा करीब है. और देवराई के. देवराई यानी घर के आसपास का वो छोटा सा जंगल जिसे पवित्र माना जाता है. अंग्रेज़ी में जिसे सेक्रेड ग्रोव कहते हैं. इस जंगल को तोड़ा नहीं जा सकता. देवराई से शेष को इश्क है. उसका सबसे बड़ा शगल देवराई में घंटों भटकना है. यही इश्क आगे चलकर उसका दिमाग कब्ज़ा लेता है.

कल्याणी और देवराई, यही शेष की दुनिया है.
बचपन त्यागकर जवानी में कदम रखते शेष में एक अजीब बदलाव आ रहा है. बेहद तेज़ दिमाग शेष धीरे-धीरे चिड़चिड़ा होता जा रहा है. अकेले में खोए रहने की उसकी आदत ने उसे दुनिया से दूर कर दिया है. सिर्फ कल्याणी ही उसकी दुनिया में कदम रख पाती है. कल्याणी से उसकी करीबियत को उसकी मां पचा नहीं पाती और जवान लड़की की ज़िम्मेदारी उठाने से घबराकर उसे उसके पिता के पास भेज देती है. मां का ये कदम शेष के लिए डिजास्टर साबित होता है.
साइंटिस्ट बनने का तमन्नाई शेष टूटकर रह जाता है. और भी अंतर्मुखी होता जाता है. उसे तमाम दुनिया दुश्मन दिखाई देने लगती है. उसकी दुश्मन, कल्याणी की दुश्मन, देवराई की दुश्मन. घर के नौकर शम्भू की शादी हो गई. जो लड़की वो ब्याह कर लाया न जाने कैसे उसका संबंध शेष देवराई से जोड़ लेता है. उसे पार्वती ही देवराई लगने लगती है. जैसे देवराई ने इंसानी शक्ल धारण कर ली हो. उधर देवराई को नष्ट करके रास्ता बनाने का सरकारी काम शुरू होने वाला है. ये तमाम मकड़जाल उसके दिमाग को छिन्नभिन्न करके रख देता है. ऐसे में सीना इकलौती है जिसने उसका हाथ पकड़कर उसे संभाले रखना है.

एक्टिंग करते वक़्त ये एक्टिंग है ये न लगने देना सोनाली ने साध्य कर लिया है.
'देवराई' ने एक बार फिर साबित किया है कि अतुल कुलकर्णी मराठी सिनेमा में एवरेस्ट जितना बड़ा नाम हैं. स्किज़ोफ्रेनिक शख्स की ज़िंदगी को वो जीते दिखाई देते हैं. भीड़ में शामिल होने की असहजता, एहसासेकमतरी, लोगों से नज़र मिलाने से बचना, बातचीत करते वक़्त अटकना ये सब उन्होंने इतना बाखूबी निभाया है कि आपको शेष ही दिखता है, अतुल नहीं. असली ज़िंदगी और खयाली दुनिया के मिक्सअप से जो ज़हनी बिखराव पैदा होता है, उसे परदे पर उतारना हर एक के बस में न हो शायद. अतुल के है. 'मेरे दिमाग में कुछ तो हो रहा है' कहते शेष की असहायता आपको सन्न करके रख देती है. अपने से डरते भांजे को यकीन दिलाने की कोशिश करता शेष कि वो हिंसक आदमी नहीं है, आपको करुणा से भर देता है.
एक सीन है. बीमारी से जूझता शेष कुछेक लम्हों के लिए सामान्य है. ऐसे दुर्लभ पल में बहन सीना का हाथ पकड़ कर लड़खड़ाती ज़ुबान में कहता है, "कितनी परेशानी तुमको... मां भी नहीं है... मैं कहां जाऊं?" इस लम्हे शेष की हताशा को सीना के साथ-साथ दर्शक भी भोगते हैं.

अतुल निसंदेह मराठी सिनेमा के ध्रुव तारा हैं.
'देवराई' जितनी अतुल कुलकर्णी की फिल्म है उतनी ही सोनाली कुलकर्णी की भी. शेष की छोटी बहन कब उससे बड़ी बन जाती है, पता ही नहीं चलता. बहन से मां तक का सीना का सफ़र बिल्कुल एफर्टलेस है. उसे भाई की बीमारी भी देखनी है, बेटे की पढ़ाई भी और पति की नाराज़ियां भी संभालनी हैं. इन तमाम उलझनों को बेहद उम्दा तरीके से पेश किया है सोनाली ने. एक सीन में शेष उससे पार्वती का ख़ून होने की बात कहता है. सीधी-सादी घरेलु सीना मर्डर के ज़िक्र भर से भयानक अस्वस्थ हो जाती है. वो अस्वस्थता सोनाली के चेहरे से टप-टप टपकती देखी जा सकती है. अपने पति से लिपटकर उसका ये आर्तनाद करना कि 'देखो ना ये कैसी बातें कर रहा है' आपकी संवेदनाओं को थप्पड़ मारकर जगाता है. उसका डर, उसकी चिंता, उसकी बेबसी सब आप तक पहुंचता है.

ये इस फिल्म का सबसे अप्रतिम सीन है.
कल्याणी के रोल में देविका दफ्तरदार एक और प्लस पॉइंट है फिल्म का. एक तरफ शेष और एक तरफ बड़ी मुश्किल से खड़ी की हुई खुद की दुनिया. मोड़ वो आया है कि एक चुनना ही होगा. इस चुनाव में उलझी कल्याणी देविका दफ्तरदार के करियर का हाई-पॉइंट है. वेटरन एक्टर मोहन आगाशे के लिए ये रोल टेलर मेड था. शेष का इलाज कर रहे डॉक्टर का रोल निभाते मोहन आगाशे खुद भी एक मनोचिकित्सक हैं. इसलिए जब-जब भी वो पेशंट की बहन को बीमारी और उसके उपायों के बारे में बताते नज़र आते हैं, वो सीन स्किज़ोफ्रेनिक मरीज़ों के रिश्तेदारों के लिए क्लासरूम का रूप ले लेता है.
पार्वती का ज़िक्र किए बगैर गुज़र जाना अन्याय होगा. 'रमन-राघव' के बाद अमृता सुभाष को भले ही दुनिया पहचानने लगी हो, 'देवराई' से पता चलता है कि वो हमेशा से इतनी ही टैलेंटेड रही हैं. शेष के ख़यालों की देवराई अमृता ने महज़ अपने हावभाव से साकार की है.

'रमन-राघव' में नवाज़ की बहन के रोल के बाद अमृता को हिंदी बेल्ट में काफी सराहना मिली है.
'देवराई' फिल्म कई मामलों में मील का पत्थर है. ये स्किज़ोफ्रेनिक मरीज़ों की महज़ हालत दिखाने पर नहीं रुकती. ये प्रक्रिया और उपायों की बात करती है. ये न सिर्फ ये बताती है कि ऐसे लोगों को कैसे सामान्य बीमार की तरह ट्रीट करना है, बल्कि उससे आगे बढ़कर वो रास्ता सुझाती है जिस पर चलकर ऐसे लोगों का जीना बेहतर किया जा सकता है.
ये सिर्फ अतुल और सोनाली की फिल्म नहीं है. ये लेखिका सुमित्रा भावे की भी फिल्म है. जिन्होंने अप्रतिम कहानी, संवाद लिखे हैं. ये उस डायरेक्टर जोड़ी की फिल्म है जिसने मराठी सिनेमा को बहुत से नगीने दिए हैं. सुमित्रा भावे और सुनील सुकथनकर का इंडियन सिनेमा हमेशा एहसानमंद रहना चाहिए इतना उम्दा काम है उनका. कोई हैरानी नहीं कि इस फिल्म ने 2004 के तमाम प्रमुख अवॉर्ड हासिल किए. पर्यावरण पर बनी बेस्ट फिल्म का नेशनल अवॉर्ड भी हासिल हुआ इसे.
देखने के शौक़ीन इसे अमेज़न प्राइम और नेटफ्लिक्स पर देख सकते हैं. यूट्यूब पर भी इसे महज़ 50 रुपए खर्च करके देखा जा सकता है. लिंक ये रहा:
https://www.youtube.com/watch?v=llNKz6K91TQ
कुछ फ़िल्में रोशनी की तरह होती हैं. देवराई निसंदेह उनमें से एक है.
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