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क्या दलित महिला के साथ हमबिस्तर होते वक़्त छुआछूत छुट्टी पर चला जाता है?

मराठी मूवी '72 मैल एक प्रवास' महज़ एक फिल्म नहीं है, बेचारगी का दस्तावेज़ है.

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ये फिल्म मराठी लेखक अशोक व्हटकर के जीवन की सच्ची घटना है.
हिंदी सिनेमा भले ही ढर्रे से चिपका दिखाई दे रहा हो, लेकिन रीजनल भाषाओं में बहुत बढ़िया काम हो रहा है. मराठी सिनेमा तो इस मामले में जैसे मशाल लेकर आगे चल रहा है. फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका ट्यूटोरियल हिंदी वालों को मराठी फिल्मकारों से लेना चाहिए. पिछले दशक भर में नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्मों की लिस्ट पर नज़र भर मार लीजिए. ज़्यादातर फ़िल्में मराठी की दिखाई देंगी. मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए. 
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एक औरत है. राधाक्का नाम है उसका. चार बच्चों के साथ एक निर्जन सड़क पर चली जा रही है. अचानक रास्ते में एक भयानक कोबरा नाग दिखाई पड़ता है. डर के मारे औरत उसके सामने हाथ जोड़ती है. बच्चों से भी कहती है कि हाथ जोड़ लें. उसी वक़्त पीछे से एक ट्रक आता है और नाग को कुचलता हुआ चला जाता है. छुटकारे की सांस लेती राधाक्का से एक बच्चा पूछता है,
"तूने हाथ क्यों जोड़े थे? उससे क्या वो नाग काटना भूल जाता?"
राधाक्का जवाब देती है,
"इस दुनिया की यही रीत है बाबा. जिससे भी आपको डर लगता है, उसके हाथ जोड़ना ही ठीक. बुराई से पंगा लेने के लिए उससे दस गुना ज़्यादा बुराई खुद के अंदर होनी चाहिए. और अगर वो नहीं है तो बुराई को पूजाघर में रखकर उसकी पूजा करना ही ठीक. हम गरीब-लाचार लोग, आज तक सबको हाथ जोड़ते आए हैं तभी ज़िंदा हैं."
ये सीन '72 मैल - एक प्रवास' फिल्म से है. इसका हिंदी तर्जुमा हुआ: '72 मील, एक सफ़र'. सच्ची घटना पर आधारित इस अप्रतिम फिल्म में रूह झिंझोड़ देने का माद्दा है.
खौफ़ गरीब की ज़िंदगी का मुकद्दर है.
खौफ़ गरीब की ज़िंदगी का मुकद्दर है.

ऊपर के सीन में बताए गए नाग से भी ज़्यादा ख़तरनाक एक और नाग इस फिल्म में है. फ्रेम दर फ्रेम छाया हुआ. वो है जातिवाद का नाग. इसके ज़हर से हम भारतीयों की नसों में दौड़ते लहू के अंदर कालापन घुल गया है. जो, चाहे कुछ हो जाए जाने का नाम ही नहीं लेता.
ये कहानी है 13 साल के अशोक की. अशोक बचपन से ही महा-शरारती बच्चा है. उसकी शरारतों से तंग आकर उसके घरवाले उसे बोर्डिंग स्कूल में भरती करवा देते हैं. सातारा के इस बोर्डिंग स्कूल में अशोक का बिल्कुल भी मन नहीं लगता और एक दिन वो भाग निकलता है. अपने घर कोल्हापुर बस से जाने का उसका प्लान तब हवा हो जाता है, जब कुछ शराबी उसके पैसे छीन लेते हैं. अब 72 मील का सफ़र उसे पैदल तय करना है.
राह में टकरा जाती है राधाक्का. अपने चार बच्चों के साथ. वो भी न मालूम कहां चली जा रही है. ममतामयी राधाक्का तत्काल अशोक के संरक्षक के रूप में आ जाती है. 72 मील के इस सफ़र को उन्हें एक साथ पूरा करना है. और ये सफ़र अशोक के छोटे से संसार को उथल-पुथल करके रख देने वाला है. ज़िंदगी की तमाम कड़वाहट अपनी पूरी नग्नता के साथ उसके सामने पेश होने वाली है.
अशोक के लिए राधाक्का मां से बढ़कर हो जाती है.
अशोक के लिए राधाक्का मां से बढ़कर हो जाती है.

इस फिल्म का सबसे सशक्त किरदार है राधाक्का. निपट गंवार, अनपढ़ औरत लेकिन ज़िंदगी को घोंटकर पी चुकी है. सीन दर सीन जो फलसफा उसके मुंह से निकलता रहता है, वो बड़े-बड़े विद्वानों के बस की बात नहीं है. उसके लिए ज़िंदगी से रोज़ाना की जंग ही चाहिए. जिसका जीवन ही बेचारगी का दस्तावेज़ हो और गरीबी की दाहकता ने जिसके सपनों के साथ-साथ भूत-भविष्य-वर्तमान को जलाकर रख दिया हो, उसके मुंह से निकली बातें फैंसी कोट्स नहीं, बल्कि सच्चाई का सबसे नंगा रूप होती हैं.
एक सीन में बच्चों को लेकर परेशान हाल राधाक्का रात बिताने एक छोटी सी दुकान पर आ रुकी है. भूखे बच्चों को कुछ खरीद कर देने लायक भी पैसे नहीं हैं उसके पास. ऐसे में दुकानदार उसके सामने एक प्रस्ताव रखता है. वही, जो आदिकाल से गरीब तबके की महिलाएं समर्थ पुरुषों के मुंह से सुनती आई हैं. खाने की कुछ चीज़ों के बदले शरीर. बेबसी जो न करवाए थोड़ा है. बाहर बच्चों के सामने खाना परोस कर राधाक्का अंदर किसी और भूख का सामान बनती रहती है. अशोक देख लेता है. उसके बाद का दोनों का संवाद किसी भी संवेदनशील इंसान को हिलाकर रख देगा.
राधाक्का के किरदार में स्मिता तांबे ने अपने करियर का एवरेस्ट छू लिया है.
राधाक्का के किरदार में स्मिता तांबे ने अपने करियर का एवरेस्ट छू लिया है.

राधाक्का कहती है,
"जीना इतना ज़रूरी क्यों है? क्यों खींचनी है ये ज़िंदगी की गाड़ी? आख़िर में हाथ भी क्या लगता है? मुझे खुद से नफ़रत हो रही है. सड़ चुकी ज़िंदगी से घिन आती है. इन्हीं लोगों को देख लो. दलित को पानी पिलाने में इनकी जात आड़े आती है लेकिन चमड़ी पर चमड़ी घिसते हुए नहीं."
दलित औरतों को भोगने लायक चीज़ समझने वाली मानसिकता पर ये महज़ एक टिप्पणी नहीं है. सदियों के दोगलेपन का सार है. ऐसा ही एक सीन और है. फिल्म की शुरुआत में जब अशोक अकेला भटक रहा होता है, तब एक किसान उसे अपने पास थोड़े समय के लिए टिकने देता है. उसे पानी पिलाता है. अपनी बैलगाड़ी में सफ़र के लिए बिठा लेता है. लेकिन जैसे ही अशोक का सरनेम पता चलता है, वो उसे चलती गाड़ी से धकेल देता है. इतना ही नहीं नीचे उतरकर लातों से, छड़ी से खुद के थक जाने तक पिटाई करता है. 13 साल का एक बच्चा जातिवाद के इस ज़हर को कैसे जज़्ब कर पाएगा सोचकर ही तकलीफ़ होती है.
डायरेक्टर राजीव पाटिल मराठी सिनेमा को बहुत ऊंचाई पर ले जाएंगे, इसमें कम से कम मुझे तो कोई शक़ नहीं है. मानवीय संवेदनाएं इतनी बारीकी से नोट करना और उन्हें उतनी ही कामयाबी से परदे पर उतारना विरले लोगों के ही बस की बात है. राजीव की फिल्म में रास्ता भी एक किरदार है. सशक्त किरदार.
फिल्म के कलाकारों के साथ निर्माता अक्षय कुमार.
फिल्म के कलाकारों के साथ निर्माता अक्षय कुमार.

अभिनय की बात की जाए तो राधाक्का के किरदार को स्मिता तांबे ने निभाया नहीं, जिया है. कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें कोई एक ही किरदार अपने कंधों पर कामयाबी से ढो लेता है. स्मिता वही कलाकार हैं, जिन्होंने इस फिल्म को शानदार बनाकर रख दिया है. एक ग्रामीण औरत का रहन-सहन, भाषा, आक्रोश सब उन्होंने ऐसे आत्मसात कर लिया है कि ये लगता ही नहीं कि वो राधाक्का के अलावा कुछ और भी हो सकती हैं.
एक सीन में जब उसकी बेटी उस पर वेश्या होने का आरोप लगाती है उस वक़्त राधाक्का के चेहरे पर झरझर बहते भाव कमाल की अदाकारी का नमूना है. क्या नहीं होता उस चेहरे में? दुःख. तकलीफ, अविश्वास, चिढ़, आक्रोश, घृणा सब. स्मिता तांबे बिलाशक इस फिल्म से मराठी सिनेमा को हासिल हुआ कोहिनूर है.
स्मिता ने एक ग्रामीण महिला का किरदार जीवंत करके रख दिया है.
स्मिता ने एक ग्रामीण महिला का किरदार जीवंत करके रख दिया है.

बाकी के कलाकारों का चयन भी ज़बरदस्त हैं. ख़ासतौर से अशोक का किरदार निभाते चिन्मय संत. 2013 में बनी इस फिल्म से अक्षय कुमार और ट्विंकल खन्ना ने मराठी फिल्म मेकिंग में कदम रखा था.
जैसा कि पहले भी बताया ये फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है. अशोक व्हटकर के लिखे इसी नाम के उपन्यास पर बनी है. कहानी के छोटे बच्चे अशोक ने राधाक्का की आख़िरी सीख गांठ बांध ली. खूब पढ़ाई की. लेखक बन गया. उन 72 मीलों के सफ़र को कलमबद्ध किया. राधाक्का को खोजने की भी कोशिश की लेकिन वो मिली नहीं.
अशोक व्हटकर की किताब का कवर.
अशोक व्हटकर की किताब का कवर.

अच्छी फिल्मों के शौक़ीन दर्शकों को ये फिल्म ज़रूर-ज़रूर देखनी चाहिए. त्रासदी में भी कैसे जिजीविषा ज़िंदा रहती है इसका शानदार सबूत है ये फिल्म. हो सकता है नाइंसाफियों का ये दस्तावेज़ देखकर आपके मन में भी वही ख़याल आए, जो इस फिल्म के एक गाने में बच्चे पूछते हैं,
"ऐ खुदा, इस ख़ूबसूरत दुनिया में तूने इंसान क्यों बनाया है?"



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