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कोक स्टूडियो के दीवानों के लिए मंटों का म्यूज़िक एल्बम एक ट्रीट है

एल्बम काले रंग से बनी उम्मीद की खूबसूरत तस्वीर है.

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मुझसे नासमझ हैं, दुगने मेरी एज के, एक पैर कब्र में, ये भूखे हैं दहेज के.

बेटियों को मारते, बेटियां न पालते, बेटियों पे, दूसरों की, नजरें गंदी डालते.

इस स्टोरी को लिखते वक्त भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहा क्रिकेट मैच अपने पूरे शबाब पर है. क्रिकेट के अलावा कुछ और चीज़ें भी हैं जो एक दूसरे के दुश्मन कहे जाने वाले इन दोनों देशों को भी यूं जोड़ देती हैं कि आलिम, फाज़िलों का भी इन्हें अलग करना नामुमकिन हो जाता है. सबसे अव्वल आता है म्यूज़िक, जिसकी बात हम इस स्टोरी में करने जा रहे हैं. वहां का कोक स्टूडियो हो या अताउल्ला खान या नुसरत फतेह अली, या फिर यहां का सोनू निगम या मुहम्मद रफी, ये सारे ही दोनों देशों में बराबर पसंद किए जाते हैं. एक और चीज़ है जो दोनों को फेविकॉल वाले मज़बूत जोड़ से जोड़ देती है. उसकी बात भी हम अपनी इस स्टोरी में करेंगे. उसक शै का नाम है सआदत हसन मंटो की मंटोईयत. मंटो आज़ादी से पहले के यूनाइटेड इंडिया, बंटवारे के बाद के भारत और साथ ही पाकिस्तान में भी रहे थे. वे उस दौर में दोनों मुल्कों के द्वारा बराबर नापसंद और वक्त के साथ-साथ बराबर पसंद किए जाने लगे. उनको नकारने और उनको दिल से लगा लेने के बीच की इस पूरी प्रक्रिया में दोनों ही देशों के बाशिंदों में से कोई भी उन्नीस साबित न हुआ. अब आलम ये है कि जहां पाकिस्तान में मंटो को लेकर एक आला दर्ज़े की टीवी सीरीज़ चलाई जाती है, वहीं अपने मुल्क में भी नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और नंदिता दास जैसे कलाकार बड़े पर्दे पर मंटो को सेलिब्रेट करते हैं. इस वीकेंड आप ये फ़िल्म देखने जा सकते हैं. लेकिन इस दौरान इंतज़ार करते हुए आप इसके गीतों का लुत्फ़ उठाइए. कम बजट में अच्छी फिल्म कैसे बनाई जाए और उसका म्यूज़िक कैसे कमाल का रखा जाए ये आप या तो अनुराग कश्यप से जाकर पूछें या फिर अब नंदिता दास से. और क्या ही संयोग है कि दोनों ने म्यूज़िक डायरेक्शन के लिए कम से कम एक बार उस टैलेंटेड लड़की को चुना जो पंजाब के किला रायपुर में होने वाले मेले के शोर शराबों से तक टुंग-टुंग दा सुपरहिट सोंड बना देती है.'ओय लक्की लक्की ओय' से लेकर 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' तक का सतरंगी म्यूज़िक इसी म्यूज़िक डायरेक्टर के दिमाग की उपज है और इस कंपोज़र का नाम है - स्नेहा खानवलकर.

(1)

अब क्या बताऊं मैं तेरे मिलने से क्या मिला, इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे, दिल का पता मिला.

मंज़िल मिली,मुराद मिली मुद्द'आ मिला, सब कुछ मुझे मिला जो तेरा नक़्श-ए-पा मिला.

*इरफ़ान-ए-ग़म = दुःख का एहसास, *नक़्श-ए-पा = फुट-प्रिंट्स

ये सीमाब अकबराबादी की लिखी ग़ज़ल के दो मिसरे हैं. इस ग़ज़ल को लगभग उसी दौर में लिखा गया था जब मंटो थे, और मंटोईयत पैदा हो रही थी. अब अगर आप 'मंटो' एल्बम में इसे सुनें तो आपको लगेगा कि 1950 का कोई गीत सुन रहे हैं, वो भी रेडियो में. और इसलिए अब क्या बताऊं स्नेहा के म्यूज़िकल मास्टरपीसेज़ में से एक बन जाता है. एक टाइम मशीन है ये, जैसे शंकर एहसान लॉय का 'वो लड़की है कहां' या शांतनु मोइत्रा का 'कैसी पहेली ज़िंदगानी' या अमित त्रिवेदी का 'संवार लूं' या शायद ये गीत इन सबसे भी बेहतर है. बेशक इस ग़ज़ल को 'बैलड' फॉर्मेट में कंपोज़ किया गया है लेकिन इंटरल्यूड (दो अंतरों के बीच) में बजता ट्रंपेट, लुईस आर्मस्ट्रांग के क्लासिक जैज़ की भी याद करवा देता है - व्हाट अ वंडरफुल वर्ल्ड!
आजकल जो गीतों के 'अनप्लग्ड' वर्ज़न आ रहे हैं, जिसमें वाद्य यंत्रों के साथ कोई तार/इलेक्ट्रिसिटी नहीं कनेक्टेड रहती. जो आवाज़ आती है वादकों की मेहनत से आती है, न कि बिजली से एंप्लीफाई होकर. और यूं ये अनप्लगड गीत पुराने गीत सरीखे लगते हैं. इसलिए 'अब क्या बताऊं' भी आपको कभी-कभी एमटीवी के स्टूडियो के किसी अनप्लग्ड गीत को रिमाइंड करवाता है. इला अरुण इस गीत के वीडियो में दिखती हैं, ऑडियो में नहीं. बतौर गायिका नहीं अदाकारा. और ग्रेसफुल दिखती हैं. गायिका शुभा जोशी ने उर्दू की मिठास को बहुत खूबी से बरता है. मीटर का ख्याल रखते हुए 'मुद्द'आ' को मुद्द'आ ही गाया गया है 'मुद्दा' नहीं. यही छोटी-छोटी डिटेलिंग किसी भी गीत को परफेक्शन के करीब, और करीब लाती हैं. और हां, इस गीत को जिस फ्लैट टोन और अनुनासिक से गाया है वो भी इसे, 'प्री-लता' युग का गीत बनाने में बड़ा योगदान देता है.

(2)

मर्द तब बनेगा जब तू औरतें दबाएगा, सोच ये रहेगी तो देश डूब जाएगा!

मंटो का ऑरा इतना संक्रामक है कि उसके ऊपर बनी फिल्म के लिए रफ़्तार तक का लिखा और गाया हुआ गीत दर्शन के मामले में रेने देकार्त और सरोकारों के मामले में अगस्त कोम्त सरीखा लगता है. होने को अगर आप इस गीत (मंटोईयत) को सुनना चाहते हैं तो 'गाना' या 'अमेज़न म्यूज़िक' जैसे म्यूज़िक-एप्स में ये गीत एल्बम में नहीं बल्कि 'सोलो' या अलग से मिलेगा. इस गीत की एनर्जी कमाल की है. 'रैप' फॉर्मेट में होने के कारण ये सुबह का अलार्म सरीखा लगता है, जो आपको गहरी नींद से जगाता है, जो समाज को गहरी नींद से जगाता है, या जगाने की एक ईमानदार कोशिश करता है.
लिरिक्स लिखने में ज़्यादा दिमाग नहीं लगाया गया है इसलिए विचारों का फ्री फ्लो लुभाता है और गीत म्यूज़िक के साथ ब्लेंड होकर उसे सरल बनाता है. यू ट्यूब में गीत के डिस्क्रिप्शन ही नहीं टाइटल में भी 18+ लिखा हुआ है. यानी गीत में कुछ लफ्ज़ आपको 'नाकाबिले बर्दाश्त' लग सकते हैं. बीच-बीच में नवाज़ुद्दीन की आवाज़ में मंटो के वन लाइनर सोने पे सुहागा है. मुलाईज़ा फरमाएं -
# अगर आप मेरी कहानियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि ये ज़माना ही नाकाबिले बर्दाश्त है. # मैं काली तख़्ती पर सफ़ेद चौक इस्तेमाल करता हूं, ताकि काली तख़्ती और नुमायां हो जाए.
इस गीत को लिखा, गाया और धुनों से भी रफ़्तार ने ही सजाया है.

(3)

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है, जिस्म ओ ज़बां की मौत से पहले. बोल कि सच ज़िंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है कह ले.

इस म्यूज़िक एल्बम का सबसे बड़ी यूएसपी हो सकती थी फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म - बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, लेकिन हो न सकी. इसका कारण है इसे कंपोज़ करते वक्त इसकी फील को मिस-जज कर जाना. जहां ये नज़्म एक क्रांति है वहीं इसकी धुन छायावादी लगती है. अगर श्रोता इस गीत को सुनकर मोटिवेट नहीं हो रहे हैं तो यकीनन म्यूज़िक देने वाले कहीं चूक कर गए हैं. होने को हर फ़िल्म की और जिस सिचुएशन में गीत पिक्चराईज़ हुआ है उसकी एक रिक्वायरमेंट होती है, और हो सकता है कि फिल्म की थीम के साथ ये फिट बैठता हो लेकिन चूंकि हम केवल एल्बम की बात कर रहे हैं तो, युवाओं की क्रांति की एंथम बन चुकी ये नज़्म उदास धुन में अप्रभावित करती है.
खासतौर पर तब, जबकि इसके कई कवर यू-ट्यूब से लेकर म्यूज़िक एप्स तक में बिखरे पड़े हैं. इससे मेलोडियस लेकिन इसी के बराबर 'सॉफ्ट' वर्ज़न कोक स्टूडियो में शफ़क़त अमानत अली गा चुके हैं. यूं इसे बार-बार एक्सप्लोर करना समझ से परे है. कम से कम तब तक तो नहीं ही किया जाए जब तक कि आपके पास इस नज़्म की थीम से मैच करती कोई धुन न हो. कुछ वैसी धुन जैसी इंडियन ओशन ने एक दूसरे पाकिस्तानी नज़्मकार नून मीम राशिद की नज़्म 'ज़िंदगी से डरते हो' को कंपोज़ करते हुए दी थी.

(4)

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर, घर का रस्ता भूल गया, क्या है तेरा क्या है मेरा, अपना पराया भूल गया.

क्या भूला कैसे भूला क्यूं पूछते हो बस यूं समझो, कारन-दोष नहीं है कोई, भूला भाला भूल गया.

कैसे दिन थे कैसी रातें कैसी बातें घातें थीं, मन बालक है पहले प्यार का सुंदर सपना भूल गया.

मुहम्मद सनाउल्ला सनी दार, अपने तखल्लुस या पेन नेम ‘मीराजी’ नाम से फेमस हैं. और ये गीत जो उन्होंने लिखा है ‘नगरी नगरी फिरा मुसाफिर’ ये उनकी ‘शॉर्ट बायोग्राफी’ कही जा सकती है. कमोबेश ऐसा ही बंजारा जीवन था उनका. नगरी-नगरी घूमना. बज़्मों और महफ़िलों से दूर. हिंदू दर्शन से बहुत ज़्यादा प्रभावित रहने वाले ‘मीराजी’ के गीतों नज़्मों को सुनकर उनका धर्म पता लगाना मुश्किल है. जिन नून मीम राशिद की बात ऊपर की थी वो उनके अच्छे मित्रों में से एक थे. प्रेम, शराब और बिजली के झटकों के बीच बड़े दर्द के साथ मर गए. हम इनकी इतनी बात इसलिए कर रहे हैं क्यूंकि अव्वल तो शायरों को और उनके दर्द को जानने के कम मौके मिलते हैं, साथ ही नज़्मों की गंगा दर्द के किस हिमालय से निकली ये भी अंदाज़ा लग जाता है.
बहरहाल इसकी कंपोजिशन भी कमोबेश ‘अब क्या बताऊं’ सरीखी है. रेट्रो. जिसे सुनते ही बेल बॉटम, गोल वाला माइक, बड़े कॉलर और रेडियो ट्रांजिस्टर ज़ेहन में आने लगते हैं. वैसे एक और समानता है इन दोनों गीतों में, दोनों नज़्में या गीत नहीं ग़ज़लें हैं. लेकिन ये वाली ग़ज़ल दार्शनिक है जिसे शंकर महादेवन की गायकी और रूहानी बनाती है.

कुल मिलाकर इन चार गानों में, और इन चार गानों से जुड़ा इतना कुछ है जानने, बताने को कि न-न करते हुए भी इतना लंबा लिख गया. लेकिन अगर एक लाइन में इस एल्बम का रिव्यू करना हो तो इसमें दुःख है, उस दुःख से उपजी उम्मीद है, दिल दुखता है लेकिन टूटता नहीं है – ये एल्बम काले रंग के अलग-अलग शेड्स से बनी उम्मीद की एक खूबसूरत तस्वीर सरीखी है.


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फिल्म रिव्यू: मनमर्जियां: