04 अप्रैल की सुबह खबर आती है कि Manoj Kumar का निधन हो गया. वो 87 साल के थे. देशभर से लोग उन्हें याद करने लगे. उन्हें श्रद्धांजलि देने लगे. Hansal Mehta के लिए मनोज कुमार वो इंसान थे जो उनके दादा के यहां उपचार के लिए आते. ‘नमस्ते लंदन’ बनाने वाले Akshay Kumar ने उनसे सीखा कि अपने देश पर गर्व करने का इमोशन क्या होता है. किसी को उन्होंने सिखाया कि ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम’. किसी के लिए वो उस मीठी याद की तरह होंगे जिसके इर्द-गिर्द लता मंगेशकर का ‘लग जा गले’ सजा हुआ है. तो कोई बच्चा उनका शुक्रगुज़ार होगा, कि आपकी वजह से अंताक्षरी में ‘प’ वर्ण का गाना तपाक से याद आ जाता है. इसी गाने में मनोज कुमार और जया भादुड़ी के किरदार पूछते हैं, ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा’.
मनोज कुमार की कहानी: रेफ्यूजी कैम्प में रहे, 3 लाख रुपये के लिए हीरो बने
Manoj Kumar ने हिन्दी सिनेमा को 'भारत कुमार' दिया. उनकी फिल्म Poorab Aur Paschim ने इंग्लैंड में ऐसा रिकॉर्ड बनाया जिसे 23 साल तक कोई फिल्म नहीं तोड़ सकी.

अधिकांश लोगों का मनोज कुमार से पहला परिचय ‘भारत’ के ज़रिए हुआ. किसी का भारत घूमने वाली टेबल-कुर्सी पर अपने देश का गुणगान कर रहा था. तो किसी भारत के लिए देश की धरती में ही सोना, हीरे-मोती सब थे. मनोज कुमार भारत थे, लेकिन सिर्फ भारत नहीं थे. मनोज कुमार वो लड़के थे जिसने परदे पर दिलीप कुमार को देखा और अंदर कुछ बदल सा गया. खुद को अपने हीरो के नाम कर दिया. उसका नाम ले लिया. उससे पहले मनोज वो बच्चे थे जिसके दो साल की पढ़ाई विभाजन की भेंट चढ़ गई. रेफ्यूजी कैम्प में रहे. लेकिन सबसे ज़रूरी, मनोज कुमार वो बच्चे भी थे जिसके प्यारे कंचों का डिब्बा एबटाबाद की किसी गली में गुम हो गया.
# एबटाबाद, विभाजन और रेफ्यूजी कैम्प
पाकिस्तान का एबटाबाद. 24 जुलाई 1937 को हरिकिशन गिरी गोस्वामी नाम के लड़के का जन्म होता है. उसके मनोज कुमार बनने तक की कहानी में बहुत कुछ घटना था. हरिकिशन बड़े हो रहे थे और इंडिया का भूगोल हमेशा के लिए बदल रहा था. महज़ दस साल की उम्र में उन्हें अपना घर, अपना मोहल्ला छोड़ना पड़ा. उस कच्ची उम्र पर इन घटनाओं का क्या असर हुआ, उसका नमूना बताते हैं. मनोज कुमार अपने आखिरी के इंटरव्यूज़ में उस कंचे के डिब्बे को याद करते थे जो एबटाबाद में ही कहीं छूट गया. मनोज कुमार कहते थे कि उनकी कहानियों का इमोशनल हिस्सा उसी समय के अनुभव की देन है.
हरिकिशन और उनका परिवार पाकिस्तान से इंडिया आया. छत के नाम पर खुला आसमान था. दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित एक रेफ्यूजी कैम्प में रहने की जगह मिली. दिन गिनते-गिनते दो साल में तब्दील हो गए. रेफ्यूजी कैम्प से निकलकर परिवार दिल्ली में बस गया. माली हालत बहुत तंग थी. पिता का हाथ बंटाने के लिए हरिकिशन ने भी काम शुरू कर दिया. वो एक साइकिल पर सवार होकर मशीन की बॉडी बेचने के काम करते. जिस फैक्ट्री के लिए काम करते, वो बुरी तरह शोषण करती. समय पर पैसा नहीं देती. उस समय हीरो बनने का सपना पालना भी बहुत महंगा शौक था. हालांकि सिनेमा उनके जीवन में दस्तक दे चुका था.

मामा प्यारे उन्हें फिल्म दिखाने लेकर गए. नाम था ‘जुगनू’. पोस्टर पर एक सुंदर से नौजवान की शक्ल चस्पा थी. मामा से पूछा कि ये कौन है तो जवाब मिला, ‘दिलीप कुमार’. हरिकिशन का दिलीप कुमार से ये परिचय सिर्फ ढाई घंटे तक का ही था. क्योंकि उस बच्चे ने देखा कि ‘जुगनू’ के अंत में उसका हीरो मर चुका है. मन में यही दुख लिए घर आ गए. फिर कुछ दिन बाद एक और फिल्म के पोस्टर से वास्ता पड़ा. यहां भी वही सुंदर नौजवान था. हरिकिशन को समझ नहीं आया कि ये चल क्या रहा है. उनकी समझ में तो ये हीरो ‘जुगनू’ में मर चुका था. फिर से ज़िंदा कैसे हो गया? हीरो ने उस बच्चे के मन में सिर्फ इस सवाल का बीज नहीं छोड़ा था. बल्कि बिना मिले उसके जीवन की दिशा हमेशा के लिए मोड़ दी थी. ‘जुगनू’ ने जिस दीवानेपन की नींव रखी थी, साल 1949 में आई ‘शबनम’ उसे एक कदम आगे ले गई. वो बच्चा हरिकिशन बनकर फिल्म देखने घुसा था, बाहर आया तो वो मनोज कुमार था.
# तीन लाख रुपये के लिए हीरो बने
साल 1955 में शम्मी कपूर, बलराज साहनी और निरुपा रॉय की फिल्म ‘तांगेवाली’ आई थी. दिल्ली में फिल्म का प्रीमियर होना था. डायरेक्टर लेखराज भाकरी समेत फिल्म की टीम दिल्ली पहुंची. लेखराज, मनोज के कज़िन थे. मनोज तब कॉलेज में पढ़ रहे थे. लेखराज उनसे मिले. कहा कि तुम तो हीरो जैसे दिखते हो. मनोज ने तपाक से कहा, “तो मुझे हीरो बना दो”. इस बातचीत के दो महीने बाद मनोज अपने पिता से आशीर्वाद ले रहे थे. वो हीरो बनने के लिए मुंबई जा रहे थे. पिता ने सिर्फ एक बात कहकर बेटे को रवाना किया, ‘My blood can never commit blunders, only mistakes’. मनोज ने अपने कई इंटरव्यूज में इस बात का ज़िक्र किया कि वो हीरो क्यों बनना चाहते थे. उनका कहना था कि उन्हें शोहरत की लालसा नहीं थी. वो बस तीन लाख रुपये कमाना चाहते थे. इसमें से एक-एक लाख रुपया वो अपने माता-पिता को देते. और बाकी बचा एक लाख रुपया अपने दोनों भाई-बहन के सुपुर्द कर देते.
लेखराज भाकरी ने ‘फैशन’ नाम की फिल्म बनाई. यहां मनोज ने छोटा-सा रोल किया. उनका किरदार स्क्रीन पर आकर गाता है, ‘माटी को लजाना नहीं, मेरा देश है महान’. अनजाने में यहां भी देशभक्ति वाला एंगल आ गया. खैर ‘फैशन’ फ्लॉप रही. इसने फिल्म इंडस्ट्री में मनोज कुमार के लिए कोई दरवाज़े नहीं खोले. उसके बाद आईं ‘सहारा’, ‘हनीमून’, ‘कांच की गुड़िया’ और ‘पिया मिलन की आस’ का भी यही हश्र हुआ. मुंबई आने के पांच साल बाद उन्हें पहली कामयाबी नसीब हुई. ये फिल्म थी साल 1962 में आई ‘हरियाली और रास्ता’. उसी साल आईं ‘शादी’ और ‘गृहस्थी’ ने भी बॉक्स-ऑफिस पर अच्छी कमाई की. मगर वो ब्रेकथ्रू वाली बात अभी भी नदारद थी.
गुरु दत्त के शिष्य रहे राज खोसला ने ये कमी पूरी की. मनोज कुमार को उनके करियर की पहली सुपरहिट फिल्म दी. इस फिल्म का नाम ‘वो कौन थी’ था. मनोज कुमार और साधना लीड रोल में थे. फिल्म के गाने ‘लग जा गले’ और ‘नैना बरसे रिमझिम’ टाइमलेस बने. हाल ही में आई सलमान खान की फिल्म ‘सिकंदर’ में भी ‘लग जा गले’ को रीक्रिएट किया गया. वो बात अलग है कि इन दोनों फिल्मों में ज़मीन-आसमान का अंतर था.
# कलाई घड़ी के लिए क्रांतिकारी पर फिल्म बनाई
साल 1965 मनोज कुमार के लिए टर्निंग पॉइंट था. इस साल ने उन्हें स्टार बनाया. एक बैंकेबल हीरो में तब्दील कर दिया. इसकी शुरुआत की थी ‘शहीद’ ने. केवल कश्यप कई सेलेब्रिटीज़ का काम देखते थे. इसमें शंकर-जयकिशन और ओ.पी. नय्यर जैसे नाम शामिल थे. मगर एक पॉइंट के बाद केवल इस काम से खपने लगे थे. अब वो प्रोड्यूसर बनना चाहते थे. उन्होंने मनोज कुमार से बात की, कि मैं आपकी फिल्म प्रोड्यूस करना चाहता हूं. मनोज के पास उस समय सिर्फ एक ही सब्जेक्ट था. वो भगत सिंह पर एक फिल्म लिख रहे थे. उन्होंने केवल को इस बारे में बताया. केवल फौरन राज़ी हो गए. मगर मनोज को आपत्ति थी. उन्होंने कहा कि ये टिपिकल फिल्म नहीं है. यहां कोई हीरोइन नहीं है. चलने की संभावना बहुत कम है. लेकिन केवल अपनी राय बदलने को तैयार नहीं थे. मनोज ने भी फिल्म पर काम शुरू कर दिया.
हालांकि उन्होंने मज़ाक में एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें कलाई घड़ी का बहुत शौक था, इसलिए ये फिल्म की. मनोज ने बताया था कि उन्होंने चार साल तक इस कहानी पर रिसर्च की. ये पहला मौका नहीं था जब वो फिल्म के लिए लिख रहे हों. ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ‘वो कौन थी’ के लिए भी कुछ डायलॉग और सीन लिखे थे. साल 1963 में ‘शहीद’ की शूटिंग शुरू हुई. मनोज कुमार भगत सिंह बने. वहीं प्रेम चोपड़ा और अनंत पुरुषोत्तम मराठे, सुखदेव और राजगुरु के रोल्स कर रहे थे. 1965 में ये फिल्म बनकर रिलीज़ हुई. ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’, ‘ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम’ और ‘सरफरोशी की तमन्ना’ जैसे गाने जनता की रगों में खून बनकर बहने लगे. फिल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई.
लेकिन मेकर्स को सबसे यादगार तारीफ भगत सिंह की मां विद्यावती से मिली. फिल्म में कामिनी कौशल ने उनका रोल किया था. विद्यावती को उनका काम बहुत पसंद आया था. साल 1966 में ‘शहीद’ को नैशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. ये हिन्दी सिनेमा में पहला मौका था जब किसी एक्टर को राइटिंग के लिए नैशनल अवॉर्ड मिल रहा था.
# लाल बहादुर शास्त्री और ‘भारत’ का जन्म
‘शहीद’ का प्रीमियर रखा गया. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी फिल्म देखने पहुंचे थे. फिल्म के बाद उन्होंने मनोज को मिलने के लिए बुलाया. उन्होंने कहा कि मेरा ‘जय जवान जय किसान’ का नारा है. आप उस पर कोई फिल्म बनाइये. शास्त्री जी से विदा लेकर मनोज मुंबई के लिए निकले. ट्रेन में उनके पास पेन और डायरी थी. कहा जाता है कि जब तक ट्रेन मुंबई पहुंची, उनके पास उस फिल्म की पूरी कहानी तैयार थी. इस फिल्म को वो ‘उपकार’ के टाइटल से बनाने वाले थे. फिल्म में एक्टिंग करने के साथ-साथ उन्होंने डायरेक्शन की ज़िम्मेदारी भी संभाली. ये बतौर डायरेक्टर उनकी पहली फिल्म थी. हालांकि ऐसा बताया जाता है कि ‘शहीद’ के समय भी मनोज कुमार ने घोस्ट डायरेक्शन किया था.
‘उपकार’ में एक सीन है. यहां आर्मी मेजर, मनोज कुमार के किरदार भारत से आकर मिलता है. वो भारत के हल पर अपनी बंदूक रखता है. कहता है,
बंदूक मेरा विश्वास है और हल तुम्हारा विश्वास है, और आज ये दोनों इस देश का विश्वास हैं.

इस एक लाइन में फिल्म का सार है. ‘उपकार’ हिट हुई. इस फिल्म ने हिन्दी सिनेमा को ‘भारत कुमार’ नाम का नायक दिया. एक ऐसा युवा जिसे अपने देश की परंपराओं पर, उसके इतिहास, उसकी बोली पर गर्व था. वो इस भावना को बाजुओं पर पहनकर घूमता था. आगे आई ‘पूरब और पश्चिम’ और ‘रोटी कपड़ा और मकान’ जैसी फिल्में भी इसी फॉर्मूला पर बनीं और कामयाब हुईं. ‘पूरब और पश्चिम’ ने सिर्फ देशभर में ही तगड़ी कमाई नहीं की, बल्कि इंग्लैंड के बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा बिज़नेस किया. ये फिल्म 50 हफ्ते तक लंदन में चली. अब तक ऐसा किसी हिन्दी फिल्म ने नहीं किया था. आगे चलकर सलमान खान की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ ने ये रिकॉर्ड तोड़ा.
# अपनी फिल्म से फेवरेट हीरो की वापसी करवाई
साल 1976 में मनोज कुमार के पसंदीदा हीरो दिलीप कुमार की फिल्म ‘बैराग’ आई थी. उसके बाद उन्होंने एक्टिंग से ब्रेक ले लिया. अच्छे ऑफर का सूखा पड़ने लगा था. मनोज ने पांच साल बाद उनका कमबैक करवाया. वो ‘क्रांति’ नाम की फिल्म बनाने वाले थे. सलीम-जावेद की जोड़ी को फिल्म लिखने की ज़िम्मेदारी दी गई. वो बात अलग है कि जो फिल्म बनकर रिलीज़ हुई, सलीम-जावेद उसे अपना काम नहीं मानते.
‘क्रांति’ को मनोज कुमार ही डायरेक्ट कर रहे थे. शूटिंग के वक्त वो परवीन बाबी से परेशान हो रहे थे, तो उनके किरदार को जल्दी मार डाला. कुल मिलाकर वो फिल्म के हर पहलू को कंट्रोल कर रहे थे. बताया जाता है कि इसी रवैये के चलते उनकी दिलीप कुमार से भी बहस हो गई थी. ‘क्रांति’ रिलीज़ हुई. क्रिटिक्स ने इसे हल्की फिल्म कहा. लेकिन ऑडियंस को इससे कोई मतलब नहीं था. बड़ी तादाद में लोग थिएटर्स में जमा हुए. ‘क्रांति’ से पहले दिलीप कुमार की आखिरी हिट फिल्म 11 साल पहले आई ‘गोपी’ थी. एक वक्त पर दिलीप कुमार ‘क्रांति’ नहीं करना चाहते थे. मनोज कुमार के लाख मनाने पर वो राज़ी हुए. फिल्म को मिले रिस्पॉन्स ने उनके मन के भीतर मौजूद सभी आशंकाओं को हवा कर दिया. इस फिल्म ने उन्हें करियर की दूसरी पारी शुरू करने की हिम्मत दी.
# शाहरुख ने घर आकर माफी मांगी
डेक्कन हेराल्ड को दिए पुराने इंटरव्यू में मनोज कुमार ने बताया था कि उनके 50 साल से ज्यादा के करियर में सिर्फ दो मौकों पर ही अनबन हुई. साल 1999 में आई फिल्म ‘जय हिन्द’ पहला मौका बनी. ये फिल्म 1993 में रिलीज़ होनी थी. मनोज ने इस छह साल की देरी का दोष फिल्म की एक्ट्रेस मनीषा कोइराला को दिया. वो फिल्म के प्रोड्यूसर थे. मनोज का कहना था कि मनीषा की वजह से फिल्म की शूटिंग खिंचती चली गई और रिलीज़ के वक्त तक फिल्म का सब्जेक्ट पुराना हो गया.
दूसरा मौका था फराह खान की फिल्म ‘ओम शांति ओम’. फिल्म के एक सीन में शाहरुख का किरदार मनोज कुमार की मिमिक्री कर के थिएटर में घुस जाता है. फिर दिखाया जाता है कि एक किरदार थिएटर में जाने की कोशिश करता है. वो कहता है कि उसका नाम मनोज कुमार है. मगर सिक्योरिटी उसे बाहर निकाल देती है. मनोज कुमार इस सीन पर बिगड़ गए. उन्होंने मेकर्स के खिलाफ 100 करोड़ रुपये के मानहानि का दावा कर दिया. बाद में शाहरुख उनके घर उनसे मिलने पहुंचे. माफी मांगी और कोर्ट के बाहर इस केस को सेटल कर लिया.
साल 1957 में आई फिल्म से मनोज कुमार का करियर शुरू हुआ था. अपने 52 साल के करियर में उन्होंने एक्टिंग, राइटिंग, एडिटिंग, डायरेक्शन सब कुछ किया. यहां तक कि गाने भी लिखे. हिन्दी सिनेमा में उनका योगदान अद्वितीय है. मनोज कुमार लंबे समय उम्र संबंधी बीमारियों से जूझ रहे थे. पिछले दिनों उनकी तबीयत बिगड़ गई, जिसके बाद उन्हें मुंबई के कोकिलाबेन धीरूबाई अंबानी अस्पताल में भर्ती करवाया गया. उनके बेटे कुणाल गोस्वामी ने एक स्टेटमेंट जारी करते हुए बताया कि 4 अप्रैल की सुबह 3:30 पर मनोज कुमार ने अपनी अंतिम सांसें लीं. 5 अप्रैल को मुंबई में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.
वीडियो: 'है प्रीत जहां की रीत' वाले एक्टर मनोज कुमार का 87 साल की उम्र में निधन
