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मूवी रिव्यू - मैं अटल हूं

Pankaj Tripathi ने अपने किरदार के मैनरिज़्म को पूरी फिल्म में बरकरार रखा. लेकिन फिल्म की राइटिंग सब पर पानी फेर जाती है.

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'न्यूड' और 'बालक पालक' जैसी फिल्में बना चुके रवि जाधव ने ये फिल्म डायरेक्ट की है.

फिल्म- मैं अटल हूं 
डायरेक्टर- रवि जाधव 
कास्ट- पंकज त्रिपाठी, पीयूष मिश्रा, पायल नायर   
रेटिंग- ** (2 स्टार)

साल 1977. 21 महीने लंबी चली इमरजेंसी खत्म हुई थी. देश की राजनीति पर से अनिश्चित्ता के बादल छंटे. विपक्षी दल के नेता जो उस वक्त जेल गए, वो लोग साथ आए. ‘जनता दल’ के नाम से पार्टी बनाई. चुनाव जीता और इंदिरा गांधी की सरकार को बाहर का रास्ता दिखाया. ये इतिहास का हिस्सा है. अब आगे जो आप पढ़ेंगे वो एक फिल्म का सीन है. जीत के बाद जनता दल के लोग हर्षोल्लास के साथ संसद परिसर के अंदर चले जाते हैं. उन सभी में से आगे अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वो दीवारों को देखते हुए चल रहे हैं. एकाएक उनकी नज़र एक जगह रुकती है. दीवार पर मिट्टी के निशान से एक फ्रेम गढ़ा हुआ है. वहां कभी एक तस्वीर हुआ करती थी. पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की. अटल वहां किसी से पूछते हैं कि वो फोटो क्यों निकलवा दी. जवाब आता है कि वो तो आपके विपक्ष में थे ना. अटल बने पंकज त्रिपाठी कहते हैं, 

विपक्ष में तो हम थे, वो तो देश के पहले प्रधानमंत्री हैं. उनका पोर्ट्रेट लगवाइए.

‘मैं अटल हूं’ के इस एक सीन से अटल बिहारी वाजपेयी की शख्सियत की पोरी तस्वीर निखार कर सामने आती है. वो कैसे नेता थे और उससे भी ज़रूरी, वो कैसे इंसान थे. बस मलाल ये है कि फिल्म बाकी हिस्सों में इतनी ईमानदारी नहीं बरत पाती. रवि जाधव के निर्देशन में बनी ‘मैं अटल हूं’ की कहानी की शुरुआत और समापन कारगिल युद्ध पर होती है. उस बीच हम उनका बचपन देखते हैं. RSS में बिताए दिनों से परिचित होते हैं. उन्हें बड़ा होते हुए देखते हैं. उन्मुक्त हुए भारत को मीठी हवा में सांस लेते हुए देखते हैं. युद्ध देखते हैं. प्रधानमंत्री बदलते देखते हैं. फिल्म हर प्रमुख घटनाक्रम दिखाने की कोशिश करती है. और यही इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी में तब्दील होती है. 

फिल्म के प्रमोशन मटेरियल से लगा था कि मेकर्स अटल के व्यक्तित्व पर फोकस रखेंगे. उन घटनाओं पर ज़ोर देंगे जिन्होंने ग्वालियर के ‘अटला’ को देश का अटल बनाया. लेकिन मेकर्स ऐसा नहीं कर पाए. फिल्म में दो चीज़ें बीच-बीच में आती रहती हैं – अटल की कविताएं और नैरेशन. बस हमें ये नहीं पता चलता कि इस कहानी का सूत्रधार कौन है. सूत्रधार पर लेबल लगने से ये स्पष्ट हो जाता है कि हम ये दुनिया किस चश्मे से देख रहे हैं. सुनने पर लगता है कि शायद लाल कृष्ण आडवाणी अटल की कहानी सुना रहे हैं. मगर कोई ठोस जवाब नहीं मिलता. खैर होता ये है कि फिल्म सब कुछ लपेटने की कोशिश करती है. उस वजह से किसी भी हिस्से को ठहराव के साथ नहीं दिखा पाती. खट-खट कर के घटनाएं आती हैं और चली जाती हैं. उनका अटल पर क्या असर पड़ा. उस घटना ने उन्हें कैसे बदला. उस घटना में शामिल व्यक्ति विशेष से उनका इतना अटैचमेंट क्यों था. फिल्म की लिखाई इन बातों का संतोषजनक जवाब नहीं देती.

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फिल्म का VFX नकली नहीं लगता.

ऐसी घटनाएं चलती जाती हैं. आप एक के बाद एक उन्हें आते-जाते देखते हैं. आपको कुछ भी दिल के अंदर तक जाकर लगता नहीं है. इंटरवेल आता है. सेकंड हाफ शुरू होता है. फिर आती है एक बड़ी घटना. बाबरी मस्जिद के ढांचे को गिराए जाने की घटना. फिल्म राम मंदिर वाले हिस्से पर आकर ब्रेक लगाती है. उसे अच्छा-खासा फुटेज देती है. आपको याद आता है कि उससे चंद सीन पहले इमरजेंसी वाला हिस्सा निकला है. वो वक्त जब सरकार ने ज़बरदस्ती अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं को जेल में डाल दिया था. ‘मैं अटल हूं’ उस घटना को montage में निकाल देती है. जेल ने उनके मनोबल पर क्या असर डाला. वो लोग अत्याचार कर रही कांग्रेस सरकार से कैसे लड़े, ये नैरेशन में निपट जाता है. फिल्म उसकी जगह राम मंदिर पर फोकस करना ज़रूरी समझती है. इससे कोई ऐतराज़ नहीं. लेकिन आपको फिर याद आता है कि ये एक पॉलिटिकल फिल्म है. जिस माहौल में रिलीज़ हो रही है, ऐसे वक्त में मेकर्स ने जानबूझकर राम मंदिर वाले हिस्से पर ज़्यादा ज़ोर क्यों दिया, इससे मेकर्स की मंशा पर सवाल उठता है. अगर आपको लगे कि ये बात लिखने वाला सिनिक हो रहा है, तो एक और उदाहरण देते हैं. फिल्म के खत्म हो जाने के बाद हम अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं सुनते हैं. उनकी तस्वीरें स्क्रीन पर चल रही हैं. उनकी उपलब्धियों के बारे में लिखा हुआ आ रहा है. ये लिखा हुआ टेक्स्ट जल्दी-जल्दी स्क्रीन से हटता है. फिर लिखा हुआ आता है कि राम मंदिर का निर्माण अटल जी का एक बड़ा सपना था. सफेद रंग का ये टेक्स्ट स्क्रीन पर ठहरा रहता है. फिर भगवा रंग का हो जाता है. फिल्म पर परदा पड़ जाता है. 

फिल्म के साथ एक और मसला था कि ये अपने किरदारों को इंसानों की तरह नहीं दिखाती. या तो कोई अच्छा ही है या फिर बुरा. मतलब मामला एकदम ब्लैक या व्हाइट. बीच का कुछ है ही नहीं. हम एक ही पक्ष से रूबरू होते हैं – फिर चाहे वो अटल का हो या इंदिरा गांधी का. ऐसे में आप उन्हें इतिहास के किरदारों की तरह ही देखते हैं. उनसे रिलेट नहीं कर पाते. शुरुआत में हम अटल के परिवार से मिलते हैं. देखते हैं कि कैसे पिता (पीयूष मिश्रा) ने बेटे के कॉलेज में ही दाखिला ले लिया. उन्होंने कहा कि मेरे दोस्त बनकर रहो. यहां आपको अटल और उनके परिवार वाले अपने जैसे लगने लगते हैं. लेकिन थोड़ी देर बाद कहानी आगे बढ़ती है. फिल्म इस पहलू को छूती तक नहीं कि उनके परिवार के साथ क्या हुआ. जो पहलू आपके किरदार को उसकी मानवीयता दे रहा था, वो अचानक से गायब हो जाता है. और आपके हाथ में कोई जवाब नहीं. रवि जाधव ने ऋषि विरमानी के साथ मिलकर ये फिल्म लिखी है. राइटिंग के एंड से रवि का काम उस लेवल का नहीं रहा. दिख रहा था कि वो यहां सेफ खेलने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने अपने डायरेक्शन में कुछ एलिमेंट्स फिल्म में बरकरार रखे. जैसे दो किरदार किसी बारे में बात कर रहे हैं. पहला कुछ पूछता है. उसका जवाब दूसरा शख्स नहीं देता. बल्कि जवाब से अगला शॉट खुलता है. एक जगह अटल भारतीय जनता पार्टी की नींव रखते हैं. आडवाणी से कहते हैं कि दलों के दलदल के बीच कमल खिलाना होगा. अगले शॉट में बारिश हो रही है और तालाब के बीच कमल नज़र आता है. रवि ने कई मौकों पर ऐसे सिम्बॉलिज़्म का इस्तेमाल किया. 

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फिल्म अपने किरदारों को ब्लैक या व्हाइट में ही पेश करती है. 

फिल्म के कैमरा वर्क पर भी बात होनी ज़रूरी है. सिनेमैटोग्राफर लॉरेंस डी कुन्हा ने कुछ सीन ऐसे कैप्चर किए हैं जहां किरदार को अपनी मनोदशा बोलकर बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती. उसी में बढ़िया एडिटिंग भी पिरोई हुई है. एक सीन है जहां अटल पहली बार संसद में इलेक्ट होकर पहुंचते हैं. हॉल में अंधेरा है. एक सोर्स से रोशनी आती दिखती है. शायद ऊपर कोई बड़ा रोशनदान है. ये देखने में वैसा लगता है कि स्कूल में किसी बच्चे का पहला दिन है. और वो उत्साह में बाकी क्लास से पहले पहुंच गया है. बस आंखें बड़ी कर के अपने आसपास देख रहा है. लाइटिंग उस कमरे को पहली नज़र में पूरी तरह उजागर नहीं करती. अटल सीट पर बैठते हैं. अपनी आंखें बंद करते हैं. चंद सेकंड बाद उनकी आंखें खुलती है. अचानक से हम देखते हैं कि संसद भवन में बाकी नेता भी मौजूद हैं और बहस चल रही है. देखने में ऐसा लगता है कि अटल किसी ट्रांस में थे.     

अटल के जूतों में कदम रखने वाले पंकज त्रिपाठी ने उनके मैनरिज़्म को समझा और काफी हद तक आत्मसात भी किया. एक सीन से ये समझ आता है. अटल बिहारी वाजपेयी की एक स्पीच बहुत वायरल होती है जहां वो कहते हैं कि सरकारें आएंगी और जाएंगी, लेकिन ये देश रहना चाहिए. उस सीन में भाषण देते वक्त पंकज जिस तरह से उंगलियां मोड़ते हैं. अपने शब्दों के बीच पॉज़ लेते हैं. उसे देखकर समझ आता है कि उन्होंने अपने किरदार पर काम किया है. उन्होंने कुछ हद तक अपने किरदार को खुद से ह्यूमनाइज़ करने की कोशिश भी की. जैसे एक जगह गोलगप्पे खाने के बाद वो छोटी उंगली से दांत साफ करते हैं. ये छोटी-छोटी चीज़ें ही किसी महापुरुष को इंसान के लेवल पर लाकर खड़ा कर देती हैं. 

बहरहाल पंकज ने जितनी भी कोशिश की, फिल्म की राइटिंग ने उनसे पूरा बैर निकाला है. फिल्म अपने चश्मे को थोड़ा साफ कपड़े से रगड़कर दिखाती तो ये फिल्म कुछ और हो सकती थी. एक बेहतर बायोपिक हो सकती थी.       
 

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