विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘खुफिया’ नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हो गई है. तबू और उनकी जोड़ी फिर साथ आई है. तबू ने कृष्णा मेहरा नाम का किरदार निभाया है, जिसे लोग KM भी बुलाते हैं. बाकी तबू के अलावा वामिका गब्बी, अली फज़ल और नवनीन्द्र बहल जैसे एक्टर्स ने काम किया है. विशाल की ये फिल्म अमर भूषण की किताब Escape To Nowhere पर आधारित है. कैसी है फिल्म, अब बात उस पर.
मूवी रिव्यू: खुफिया
'खुफिया' विशाल भारद्वाज की बेस्ट फिल्मों में से नहीं है. फिल्म का थ्रिलर वाला पक्ष जितना हल्का पड़ता है, उसका ड्रामा उतना ही असरदार है.

कहानी साल 2004 से शुरू होती है. हमें बताया जाता है कि कारगिल युद्ध के बाद से इंडिया और पाकिस्तान की इंटेलिजेंस एजेंसीज़ एक-दूसरे पर नज़र रख रही हैं. हर मुमकिन कोशिश कर आगे निकलने में लगे हुए हैं. R&AW अपने एक एजेंट को मिशन पर भेजती है. उसकी जानकारी लीक होने के चलते एजेंट को मार दिया जाता है. एजेंसी की अधिकारी कृष्णा मेहरा को पता चलता है कि उनकी अपनी टीम में एक जासूस छुपा हुआ है. जो सीक्रेट जानकारी दूसरे देशों तक पहुंचा रहा है. ट्रेलर में हमने देखा कि इस जासूस का नाम रवि मोहन है. उसके परिवार की हर गतिविधि को ट्रैक किया जाता है. क्या खेल सिर्फ उस तक सीमित है, या कहानी पूरी तरह कुछ और है, यही आगे खुलता है.

फिल्म का टाइटल ‘खुफिया’ सिर्फ जासूसों की दुनिया के लिए नहीं. कृष्णा अपना सच खुफिया रखती है. उस सच को सेंसिबल ढंग से दिखाया गया. फिल्म में उसके और एक किरदार के बीच आपको सेक्शुअल टेंशन महसूस होगी. वो किसी भी पॉइंट पर भद्दा या वल्गर नहीं लगता. ‘खुफिया’ विशाल भारद्वाज की महानतम फिल्मों में से नहीं. ये मुझे एवरेज किस्म की फिल्म लगी. जब भविष्य में विशाल भारद्वाज की बेस्ट फिल्मों की स्क्रीनिंग होगी, तब ‘खुफिया’ को बाहर रखा जाएगा. तमाम खामियों के बावजूद ‘खुफिया’ अपनी औरतों को सही से ट्रीट करना नहीं भूलती. मेरी राय में विशाल भारद्वाज इंडिया के चुनिंदा फिल्ममेकर्स में से हैं, जो औरतों को किसी रहस्यमयी देवी या लुभाने वाली लड़की की तरह नहीं दिखते. बल्कि एक इंसान की तरह देखते हैं.
‘खुफिया’ दो हिस्सों में बंटी है. पहला है जासूसी वाला पक्ष और दूसरा उन जासूसों की अपनी ज़िंदगियां, अपनी कश्मकश. पहला हिस्सा थ्रिल से भरा होना चाहिए था, जो आपको कुर्सी के कोने पर रखे. कुछ मौकों पर ये ऐसा कर पाता है पर आगे पकड़ छूटती चली जाती है. विशाल भारद्वाज ने पुराने हिंदी सिनेमा के रेफ्रेंस छिड़के, जिससे आपको श्रीराम राघवन याद आएंगे लेकिन वो उतना सटीक नहीं बैठ पाते. फिल्म की इस भाग-दौड़ से इतर उसका सबसे रोचक हिस्सा है आम ज़िंदगी. कोई अपने बेटे का पसंदीदा प्ले देखने नहीं पहुंच पा रहा. कोई अपने देश और बच्चे को चुनने के बीच पीस रहा है. ये आम से लगने वाले पहलू ही फिल्म को खास बनाते हैं.

फिल्म का दुर्भाग्य है कि ये एक थ्रिलर फिल्म थी. उसका वही पक्ष कमज़ोर पड़ जाता है. कुछ हिस्सों पर झट से मिस्ट्री हल हो जाती है. फिल्म आपको एंगेज कर के रखेगी लेकिन ये असरदार थ्रिलर नहीं. ड्रामा और थ्रिलर में ड्रामा बड़े फासले से आगे निकल जाता है. बाकी विशाल भारद्वाज ने अपनी पॉलिटिक्स, साहित्य के निशान फिल्म में जगह-जगह छोड़े हैं. जूलियस सीज़र पर एक प्ले होता दिखता है. तबू एक सीन में अगाथा क्रिस्टी की किताब पढ़ती दिखती हैं. हैम्लेट जैसे जुड़वा किरदार भी दिखते हैं, जो ‘हैदर’ की याद दिलाते हैं. शेक्सपियर की फोटो दरवाज़े पर चिपकी दिखती है.
विशाल भारद्वाज ने एक जगह डायलॉग लिखा है: “जब तक ये दुनिया देश और धर्म में बंटी है, तब तक ये खूनखराबा होता रहेगा. और इसके ज़िम्मेदार हम सब होंगे.” एक जगह तबू अमेरिकी शख्स से कहती हैं कि तुम लोग क्या सिर्फ अपनी फिल्मों में ही स्मार्ट हो. फिल्म के डायलॉग्स भारी-भरकम नहीं. कम शब्दों में अपनी बात कह डालते हैं. यहां सबसे बढ़िया काम किया है तीन लोगों ने – तबू, वामिका गब्बी और नवनीन्द्र बहल ने. वामिका रवि की पत्नी चारु बनी हैं. हर सीन में उनका किरदार पर नियंत्रण रहता है. कुछ भी ऊपर-नीचे नहीं जाता. वामिका का काम हर प्रोजेक्ट के साथ निखरता जा रहा है. यहां भी वो सिलसिला जारी रहा.

नवनीन्द्र बहल रवि की मां बनी हैं. उनके सीन्स में ह्यूमर दिखेगा, जिसे वो अपने काम से कई गुना ऊपर ले जाती हैं. इस रिव्यू को सिर्फ तबू और वामिका के बीच बांधकर नहीं रखा जा सकता था. नवनीन्द्र बहल का किरदार भी उतना ही अहम था. विशाल भारद्वाज ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘खुफिया’ में शाहरुख का इंडायरेक्ट कैमियो है. शाहरुख और मेट्रिक का कनेक्शन आपको फिल्म ही बताएगी. बाकी फिल्म देखिए और अपनी राय बनाइए. ये नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है.
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