The Lallantop

मूवी रिव्यू: कौन प्रवीण तांबे

ये एक आम इंसान के हीरो बनने की कहानी है. उसके खुद को लगातार रीक्रिएट करने की कहानी है.

post-main-image
ओवर द टॉप ड्रामा की उम्मीद रखेंगे तो निराश होंगे.
राहुल द्रविड का एक वीडियो है. जहां वो एक क्रिकेटर की बात करते हैं, ऐसा इंसान जो उनके लिए क्रिकेट फील्ड पर पैशन को दर्शाता है. वो कहते हैं,
लोग मेरे पास आते हैं और उम्मीद करते हैं कि मैं तेंदुलकर, लक्ष्मण, गांगुली और कुंबले पर बात करूं. लेकिन मैं जो कहानी सुनाना चाहता हूं वो प्रवीण तांबे की है.
डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई ‘कौन प्रवीण तांबे’ इसी वीडियो के साथ शुरू होती है. प्रवीण तांबे को आप गूगल करेंगे तो सामने आएगा कि आईपीएल में डेब्यू करने वाले सबसे उम्रदराज़ खिलाड़ी हैं. फिल्म इस एक लाइन की विकिपीडिया जानकारी से परे उस आदमी की कहानी दिखाना चाहती है. अपने किरदार की रूट्स समझती है, वो कहां से आता है, इससे परिचित है. इसलिए उस पर गिफ्टेड का टैग लगाकर सब कुछ आसान नहीं कर देती. फिल्म में प्रवीण की पहली प्रॉब्लम थी उसका लोवर मिडल क्लास होना. समाज का वो तबका जो कम्फर्ट ज़ोन में ढल जाता है, कम में संतुष्ट हो जाता है, और बड़े सपने देखने से घबराता है. सचिन को टीवी पर देखकर चियर करता है, बस अपना बेटा सचिन न बने.
18
फिल्म के कई एक्टिंग रिच सीन कट शॉर्ट कर दिए गए.

प्रवीण पर भी बीवी-बच्चों की ज़िम्मेदारी थी. वो उसका क्रिकेट के प्रति पैशन ही था, जो उसे हर हालात में गेम की ओर खींच ले जाता था. लेकिन पैशन की, अच्छी कहिए या सबसे बुरी बात, यही है कि उसकी कोई सीमा नहीं. सामने वाला उस घोड़े की तरह हो जाता है जिसे बस फिनिश लाइन दिख रही है. प्रवीण को भी बस किसी भी तरह रणजी खेलना है. उनका गेम भी चमकने लगता है. फिर भी सिलेक्शन नहीं होता. बार-बार ट्राइ किया, पर रिज़ल्ट हर बार सेम. मन को जहां खुद में झांककर आंकलन करना चाहिए था, वहां बाहर उंगली दूसरों पर उठने लगती है. कि दूसरों का सिलेक्शन जान-पहचान से हो जाता है, और मेरा मेहनत करने के बावजूद भी नहीं हो रहा.
वो अपने गेम में कम्फर्टेबल हो जाते हैं, कि जैसा खेल रहा हूं बढ़िया ही है, यानी अपनी प्रतिभा की संभावना तराशने की जगह, जितना मिला काफी है यार. ऐसे में कोई अनुभवी जब आकर समझाता है, कि तुम्हारा तो पूरा गेम बदलने की ज़रूरत है, तो ये बात चुभती है. बिल्कुल नॉर्मल इंसान की तरह वो उनका ओपीनियन खारिज कर देता है. फिर आगे चलकर अपनी गलती सुधारता है, और खुद को रीक्रिएट करता है. इसलिए ये फिल्म किसी पैदाइशी हीरो की कहानी नहीं. ये एक आम इंसान के हीरो बनने की कहानी है. उसके खुद को लगातार रीक्रिएट करने की कहानी है.
15
फिल्म खुद को तमाम लाउड मोमेंट्स से दूर रखती है.

फिल्म शुरू करने से पहले मेरे मन में ये धारणा थी कि फिल्म में कई रौंगटे खड़े कर देने वाले मोमेंट होंगे. जहां हीरो की लाइफ में कुछ ड्रामैटिक सा होगा, और बैकग्राउंड में म्यूज़िक बजेगा. कितनी ही बायोपिक्स ने इस टेम्पलेट को स्टैंडर्ड बना दिया है. इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है. कोई लार्जर दैन लाइफ मोमेंट नहीं. कहानी और उसके किरदार को पूरी तरह ग्राउंडेड रखा गया है. इसलिए यहां कुछ बड़ा नहीं घटता. फिल्म ऐसे चुनिंदा लाउड मोमेंट्स के दम पर अपनी कहानी नहीं कहना चाहती. ये बस आपको उस किरदार की दुनिया में उतार देती है, और उसकी जर्नी में भागीदार बना देती है. सौ बातों की एक बात ये है कि ‘कौन प्रवीण तांबे’ देखकर आप जोश से नहीं भर जाएंगे, हाथ में बल्ला नहीं उठा लेंगे. आप बस एक आदमी की कहानी देखेंगे, उसके बनकर टूटने की, और फिर से खुद को बनाने की कहानी.
फिल्म में प्रवीण का रोल श्रेयस तलपड़े ने निभाया है. ‘इकबाल’ में कमाल का डेब्यू करने के बाद वो यहां भी क्रिकेटर बने हैं. श्रेयस की जगह किसी बड़े कमर्शियल एक्टर को नहीं लेना एक सही फैसला साबित होता है. श्रेयस कॉमन मैन वाली लाइफ की एक्टिंग करते नहीं दिखते, बल्कि उसे जीते हुए दिखते हैं. फील्ड पर हों या उसके बाहर, आप उन्हें देखकर कहानी में इंवेस्ट होना चाहते हो. हालांकि, उनके हिस्से आए कुछ अच्छे एक्टिंग सीन्स को कट शॉर्ट कर दिया गया.
‘कौन प्रवीण तांबे’ एक नो नॉनसेंस किस्म की कहानी है. जो लंबी भले ही लगे, पर फिर भी अपना पॉइंट भूलती नहीं दिखती. आपको किरदार की दुनिया का हिस्सा बनाती है, बाहर से दर्शक बनकर उसकी स्टोरी नहीं दिखाती. उम्मीद यही है कि ऐसी फिल्में बायोपिक्स का टेम्पलेट बनें, ताकि कॉमन मैन को कॉमन मैन की तरह ही दिखाया जाए, किसी फ़रिश्ते की तरह नहीं.