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Jigra - मूवी रिव्यू

कैसी है Vasan Bala और Alia Bhatt की नई एक्शन फिल्म Jigra, जानने के लिए रिव्यू पढिए.

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आलिया भट्ट ही इस फिल्म की स्टार हैं.

Jigra (2024)
Director: Vasan Bala
Cast: Alia Bhatt, Vedang Raina, Vivek Gomber
Rating: 3.5 Stars 

Vasan Bala और Alia Bhatt की एक्शन फिल्म Jigra सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है. फिल्म में आलिया के किरदार का नाम सत्या है. वो इवेंट मैनेजमेंट का काम करती है. बचपन में अपनी आंखों के सामने पिता को मरते हुए देखा. उसकी कई पहचान हो सकती हैं लेकिन इन सभी से ऊपर वो अंकुर की बड़ी बहन है. वेदांग रैना ने अंकुर का रोल किया है. सत्या कुछ भी कर के अपने भाई अंकुर को बचा के रखना चाहती है. अपने काम की वजह से अंकुर को हांशी दाओ नाम के देश जाना पड़ता है. वहां वो गलती से ड्रग्स के केस में फंस जाता है. इस देश के कानून इतने सख्त हैं कि अंकुर को मौत की सज़ा सुनाई जाती है. अब पूरी दुनिया से लड़कर सत्या को अपने भाई को बचाना है. क्या वो ऐसा कर पाएगी, और इस बीच क्या मुश्किलें आएंगी, यही फिल्म की कहानी है. 

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ये पूरी तरह से आलिया भट्ट की फिल्म है.

फिल्म के डायरेक्टर वासन बाला ने देबाशीष इरेंगबम के साथ मिलकर ये फिल्म लिखी है. ‘जिगरा’ अपने पॉइंट पर आने में ज़्यादा वक्त ज़ाया नहीं करती. स्क्रीनराइटिंग में एक टेक्नीक होती है, Inciting Incident के नाम से. ये वो पहली घटना होती है जिसके बाद आपके हीरो की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है. और वो अपने आगे के पथ पर अग्रसर हो जाते हैं. टीपिकली ये शुरुआत में ही आता है. ‘जिगरा’ का Inciting Incident था अंकुर की गिरफ्तारी. फिल्म वहां तक जल्दी पहुंचती है. लेकिन ज़रूरी बात यहां ये है कि उस घटना तक पहुंचने के चक्कर में वो सत्या और अंकुर की केमिस्ट्री की बलि नहीं चढ़ाती. दोनों के बीच कुछ सीन्स आते हैं, जहां आपको समझ आ जाता है कि उनकी बॉन्डिंग कैसी है. यहां फिल्म की राइटिंग के साथ उतना ही क्रेडिट आलिया भट्ट और वेदांग रैना को भी जाता है. 

मेन एक्शन पर आने से पहले फिल्म पर्याप्त इमोशन भरने की कोशिश करती है. इतना कुछ घट चुका होता है कि आप उन भाई-बहन की कहानी में इंवेस्टेड रहते हैं. बस फिल्म अपने थ्रिलर वाले पार्ट को सही शिखर तक नहीं ले जा पाती. आप देख रहे हैं कि अंकुर को हाई सिक्योरिटी जेल से निकाले जाने की प्लैनिंग चल रही है. स्केल बढ़ता जा रहा है. बार-बार टीज़ किया गया कि क्लाइमैक्स में बहुत बड़ी चीज़ें होने वाली हैं. सत्या कुछ ऐसा करेगी जिससे पूरी व्यवस्था हिल जाने वाली है. लेकिन दुर्भाग्यवश फिल्म क्लाइमैक्स के उस chaos में खो जाती है. ऐसा लगता है कि मेकर्स ने इसे ज़बरदस्ती टिपिकल हिंदी फिल्म बनाने की कसम खा ली हो. जबकि एक पिछले डायलॉग में सत्या कहती है कि ये मसाला हिंदी फिल्म थोड़ी है, कॉम्प्लेक्स तो होगी ही. बिना स्पॉइलर दिए बस इतना कहा जा सकता है कि क्लाइमैक्स बहुत बेहतर हो सकता था, मगर सेफ साइड के चक्कर में मेकर्स चूक गए. 

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वेदांग ने आलिया की परफॉरमेंस और फिल्म को कॉम्प्लिमेंट किया है. 

फिल्म के क्लाइमैक्स के बेअसर होने में एक और वजह है. सत्या जब हांशी दाओ के लिए चार्टर प्लेन से निकलती है, उसी पॉइंट से फिल्म उसका पैरेलल अमिताभ बच्चन के ऐंग्री यंग मैन के साथ ड्रॉ करती है. वो प्लेन में बैठी है और बैकग्राउंड से ‘अग्निपथ’ की आवाज़ सुनाई पड़ती है. ‘विजय दीनानाथ चौहान’ वाला डायलॉग चल रहा है. उसके बाद कुछ मौकों पर ‘ज़ंजीर’ के गाने सुनाई पड़ते हैं. बेसिकली अंत तक आते-आते सत्या पूरी तरह ruthless बन जाती है. वो अंकुर को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. सही या गलत की रेखा लांघने में उसे कोई झिझक नहीं. इसी क्रम में उसके हाथों कुछ ऐसा हो जाता है जिसकी कोई माफी मुमकिन नहीं. कुछ ऐसा जिससे पार जाने के लिए उसे पश्चाताप के रास्ते पर जाना पड़े. मगर फिल्म ऐसा नहीं करती है. इतनी बड़ी घटना को उसके जुनून के परदे में ढ़ककर फिल्म चुपके से निकल जाती है. 

बाकी फिल्म देखते वक्त लगा कि ये शायद कोई पॉलिटिकल कमेंट्री करने की कोशिश कर रही है. हम देखते हैं कि हांशी दाओ में ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ जैसे नारे लगाने पर सख्त सज़ा है. ये बात कई पॉइंट्स पर बताई जाती है. मगर ये सिर्फ रेफ्रेंस बनकर ही रहती है, फिल्म उस पहलू में ज़्यादा नहीं उतरती. बाकी वासन बाला के डायरेक्शन की बात करें तो उन्होंने अपनी पिछली फिल्मों की तरह यहां भी नॉस्टैलजिया के नाम कुछ हिंट छोड़े हैं. आप देखते हैं कि एक सीन में मनोज पाहवा के किरदार ने एक टी-शर्ट पहनी है. उस पर ‘उर्फ प्रोफेसर’ लिखा है. साल 2001 के बाद वाली जेनरेशन को शायद इस नाम के पीछे का रेफ्रेंस न पता हो. फिल्म देखने के बाद गूगल कीजिएगा, आप समझ जाएंगे कि वासन क्या कहना चाह रहे थे. 

खैर वासन की एक और बात के लिए तारीफ होनी चाहिए. उन्होंने अपनी फिल्म के सेंस ऑफ स्पेस को सही समझा है और उसे कायदे से इस्तेमाल किया है. जैसे एक सीन है जहां अंकुर की गिरफ्तारी के बाद सत्या उससे पहली बार मिलने के लिए जेल पहुंची है. वो घबराई हुई है. भाषा अनजान, लोग अनजान, ऐसे में कुछ समझ नहीं आ रहा कि कहां जाना है. इस पूरे सीक्वेंस को ऐसे शूट किया गया कि सब वन टेक में लगे. इससे टेंशन पर से ग्रिप हल्की नहीं पड़ने देते. आलिया घबरा रही हैं, इधर-उधर दौड़ रही हैं, इस पूरे माहौल की टेंशन आपको जकड़कर रखती है. इस सीन के लिए और पूरी फिल्म के लिए ही आलिया के काम की जी भर तारीफ बनती है. आलिया ने अपने किरदार को पूरी तरह अपना लिया. वो ज़िद्दी भी है, डरी-सहमी भी है, भाई के साथ खुश भी है, बस इन सभी रूपों में वो आलिया नहीं बल्कि सत्या हैं. 

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टिपिकल विलन वाले फेर में फिल्म फंस जाती है.

आलिया लगातार अपने बार को खींचकर ऊपर ही लेकर जा रही हैं. ‘जिगरा’ में भी उन्होंने यही किया है. सीन में उनके पास कितनी भी जगह हो, वो अपनी तरफ से बेस्ट देकर ही उससे एग्ज़िट करती हैं. ये वेदांग रैना की दूसरी फिल्म थी. जहां जितनी ज़रूरत थी, उन्होंने वैसा ही काम किया है. कहीं भी वो odd या out of place नहीं लगते. अपने रोल में पूरी तरह फिट बैठते हैं. बाकी विवेक गोम्बर के जेलर वाले किरदार के रूप में फिल्म को अपना विलन मिला. उनका रोल किसी टिपिकल विलन के जैसा ही था, बस उनका एक्सेंट उनकी परफॉरमेंस में दखल दे रहा था. 

‘जिगरा’ परफेक्ट फिल्म नहीं है. फिल्म में कुछ खामियां हैं. लेकिन उनके बावजूद ये एक ओरिजनल आवाज़ रखने की कोशिश करती है, और कुछ हद तक उसमें कामयाब भी होती है.             

 

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