शाहरुख खान की 'जवान' थिएटर्स में लग चुकी है. बिलाशक ये उनके करियर की सबसे मसालेदार फिल्म है. इसमें आपको तकरीबन हर वो एलीमेंट मिलेगा, जो किसी मेनस्ट्रीम एंटरटेनिंग फिल्म में होना चाहिए. एक के पैसे में दो-दो शाहरुख खान मिल रहे हैं. इससे ज़्यादा पब्लिक को क्या चाहिए? बेहतर फिल्म. 'जवान' को देखते हुए कई मौकों पर ऐसा लगता है कि शाहरुख जो चीज़ें अपने असल जीवन में नहीं कर पाते हैं, वो उन्होंने इस फिल्म में की है. मसलन, देश के सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर खुलकर अपनी बात रखना. देखिए 'जवान' ने कभी हमसे एकदम अलहदा फिल्म होने का वादा नहीं किया था. वो है भी नहीं. ये फिल्म सिर्फ और सिर्फ टिकट खिड़की पर पैसे कमाने के मक़सद से बनाई गई है. और फिल्म खूब सारे पैसे कमाएगी भी. शाहरुख को जितना क्रांतिकारी सिनेमा करना था, उन्होंने 2014 से 2019 तक कर लिया. अब वो वही करेंगे, जो पब्लिक देखना चाहती है. जो कि सही भी है.
जवान: मूवी रिव्यू
तमाम खामियों के बावजूद आप ये नहीं कह सकते कि 'जवान' आपको वो नहीं देती, जिसका वादा फिल्म ने किया था. एंटरटेनमेंट.
सबको पता है कि 'जवान' में शाहरुख खान का डबल रोल है. इस फिल्म से मेरा हासिल 'विक्रम राठौड़' का पिता वाला किरदार है. जिसकी बैकस्टोरी 'चक दे इंडिया' वाले कबीर खान की तरह है. मगर थोड़ा मैस्कुलिन, सिनेमैटिक और स्वैगर से भरपूर. फिल्म के आखिर में एक सीन है, जहां आज़ाद और विक्रम विलन से लड़ रहे हैं. काली उनके ऊपर शॉटगन से गोली दाग रहा है. ये दोनों लोग एक शील्ड के पीछे छुपे हैं. पहली गोली लगते ही विक्रम और आज़ाद दोनों थोड़ा पीछे की ओर सरकते हैं. पर्सनली ये फिल्म का इकलौता सीन है, जिसे मैं दोबारा या रिवाइंड करके देखना चाहूंगा.
'जवान' खालिस मसाला सिनेमा है. जिसको साउथ स्टाइल में ट्रीट किया गया है. कथानक से लेकर मैसेज तक सब कुछ. कैरेक्टर्स के लुक 'गार्डियंस ऑफ द गैलेक्सी' के कैरेक्टर्स की तर्ज पर बनाए गए हैं. फिल्म का एक सीन देखकर तो 'ज़ीरो डार्क थर्टी' की याद आ जाती है. फिल्म के सब-प्लॉट्स में कई सामाजिक मसलों को छूने की कोशिश की गई है. मगर वो जेन्यूइन एफर्ट नहीं लगता. इन्हें दर्शकों को ब्लैकमेल करने के लिए सिनेमैटिक टूल्स की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इस फिल्म की सबसे ज़्यादा खलने वाली चीज़ मुझे यही लगी.
'जवान' उन चीज़ों को पकड़ती है, जिसे लेकर सोसाइटी बहुत टची है. किसानों की आत्महत्या. बच्चों की जान का खतरा. प्रेग्नेंट महिलाएं. अल्पसंख्यक लोग. भ्रष्टाचार. चुनावों की रिगिंग. इनमें से हर चीज़ आपको परेशान करती है. क्योंकि वाकई वो ज़रूरी मसले हैं, जिन पर बात होनी चाहिए. फर्क बस ये है कि उन मसलों पर किस नीयत से बात की जा रही है. क्या वाकई फिल्म या इसे बनाने वाले इन सामाजिक मसलों को लेकर फिक्रमंद हैं? या…
'जवान' को महिला केंद्रित फिल्म कहकर प्रमोट किया जा रहा था. कहने को तो 'दंगल' भी महिला प्रधान फिल्म थी. मगर थी क्या? 'जवान' में आपको 6 महिला किरदार नज़र आते हैं. उन सबकी कहानी फिल्म के लिए अलग-अलग सब-प्लॉट्स तैयार करती है. पूरी कहानी में सिर्फ उनका इतना ही रोल है. सान्या मल्होत्रा से लेकर प्रियमणि अपनी फिल्मों/सीरीज़ में नायिकाओं के रोल्स करती हैं. यहां उन्हें एक फुल लेंग्थ डायलॉग तक बोलने को नहीं मिलता. नयनतारा इकलौती एक्ट्रेस हैं, जिन्हें फिल्म फुटेज देती है. वो भी इसलिए क्योंकि वो फिल्म की हीरोइन हैं.
विजय सेतुपति एकदम टिपिकल विलन बने हैं. जो पहले राउंड में हीरो को हरा देता है. दूसरे राउंड में हीरो, विलन से बदला लेने आता है. विजय सेतुपति के काली के किरदार को थोड़ा और उभरकर आने दिया जाता, तो शायद फिल्म और रोचक बन सकती थी. हालांकि उनका एक सीन है, जब वो अपने गुर्गों से कहते हैं कि आज़ाद और विक्रम को खत्म करो. वरना ये लोग गाना गाने लगेंगे. और उन्हें सुनना पड़ेगा. फिल्म में दो सुपरस्टार्स के कैमियो हैं. जो हद से ज़्यादा निराशाजनक हैं. फिल्म का एंड देखकर तो मुझे एक बार को लगा, आइला अब्बास-मुस्तन की 'रेस'.
ये फिल्म जितनी शाहरुख खान की है, उतनी ही एटली की भी है. एटली को एलीवेशन वाले सीन्स का मास्टर माना जाता है. वो यहां भी करते हैं. फिल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक तगड़ा है. खासकर ‘जवान थीम’. मगर ‘चलेया’ के अलावा कोई भी गाना याद नहीं रहता. कुल जमा बात ये है कि तमाम खामियों के बावजूद आप ये नहीं कह सकते कि 'जवान' आपको वो नहीं देती, जिसका वादा फिल्म ने किया था. एंटरटेनमेंट. शाहरुख 'पठान' के बाद 'जवान' के तौर पर एक अच्छा फॉलो-अप डिलीवर करना चाहते थे. वो उन्होंने कर दिया है. क्योंकि ये फिल्म झोंककर पैसा कमाने वाली है. 'जवान' को देखकर मुझे आजकल सोशल मीडिया पर चलने वाला मीम रूपी कथन याद आता है- I've won… but at what cost.
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